Wednesday, 20 May 2020

पञ्चकर्म मे पञ्चगव्य का महत्व --

२-अथ पञ्चमं पञ्चकर्मविधिप्रकरणम्( पञ्चकर्म में पञ्चगव्य का उपयोग )
                                      अथ पञ्चकर्मनामान्याह --

पञ्चकर्म के नाम - १- वमन ,२- विरेचन, ३- अनुवासन, ४- निरूह , ५- नावन, ये पाँच कर्म है और पञ्चकर्म से इन्हीं पाँचो का बोध होता है ।।१।।

वमनकर्म में प्रथम वमन के योग्य समय व रोगियों का निर्देश - चतुर वैद्य को चाहिए कि वह ( क्वार,कार्तिक ) ऋतु बसन्त ( चैत्र,बैशाख ) ऋतु तथा वर्षा ( सावन ,भादो ) ऋतु इन समयों में मनुष्य को वमन करावें तथा रेचन जूलाब दें । जो मनुष्य बलवान हो या कफ से व्याप्त हो या हृलास ( उबकाई ) आदि रोग से पीड़ित हो तथा धीर चीत वाला हो और जिसे वमन कराना प्रकृति के अनुकूल पड़ता हो उसे वमन करावें । विषदोष ( विष सम्बन्धी दोष ) स्तन्यरोग ( दूषित दूध पीने से उत्पन्न हुआ बालकों का रोग ) तथा अग्निमंद होने पर एवं शीलपद ( फीलपांव ) अर्बुद, हृदयरोग, कुष्ठ, विसर्प,मेदरोग,अजीर्ण ,भ्रम,विदारिका, अपची,खाँसी , श्वास( दमा ) पीनस ,वृद्धि ( अण्डकोष ) ,मिर्गी, ज्वर ,उन्माद, रक्तातिसार इन रोगों में नासिका (नाक ) तालू तथा ओष्ठ के पकने पर , कर्णस्राव ( कान बहने ) पर अधिजिह्वक , गलसुण्डी ,अतिसार,पित तथा कफ सम्बन्धी रोग , में रोगी को वमन करावें ।।२-६ ।।

वमन कराने के अयोग्य लोगों का निर्देश -- जो लोग तिमिररोग , गुल्म तथा उदररोग वाले हो,या दुर्बल शरीर तथा अत्यन्त वृद्ध हो,एवं गर्भिणी स्त्री , स्थूल शरीर वाले ,घाव से व्याकुल ,मद से पीड़ित ,बालक, रूक्ष शरीर वाले ,या भूखे हो, और जिन्हें निरूहण बस्ती दी हो या जो उदावर्त रोग वाले हो या जिनके आँख ,कान, नाक तथा मुख की राह से रक्त गिरता हो या जो रूक्ष तथा कठिन द्रव्य खा लिए हो अथवा जो केवल वातरोग से पीड़ित हो या पाण्डूरोगी हो या जिनके पेट में कीड़े पड़ गये हो तथा वायु से जिनका स्वरभंग हो गया हो ऐसे लोगों को वमन कराना उचित नहीं है ।
किन्तु ऐसे लोग भी यदि अजीर्ण होने से या विष से पीड़ित हो अथवा कफ से व्याप्त हो अर्थात् कफ की अधिकता हो तो मुलेहटी का क्वाथ पिलाने के द्वारा वमन कराने के योग्य होते है ।।९।।

वमन कराने की विधी - जो लोग सुकुमार , बालक , कृश , वृद्ध या भीरू ( वमन करने से डरने वाले ) हो उन्हें यवागू या गाय के दूध या गाय दूध से बनी छाछ व दही पिलाकर वमन कराना चाहिए । प्राणियों को यदि प्रथम असात्मय ( प्रकृति के अनुकूल ) तथा कफकारक भोजन पदार्थ खिलाने के द्वारा दोषों को बाहर निकालने के लिए उन्मुख करके स्नेहन करा चूकने पर वमन कराया जाये तो वमन अच्छी तरह से होता है , सम्पूर्ण वमन कराने वाली औषधियों में सैंधानमक व मधु हितकर होता है वमन कराने वाली जो औषधियाँ दी जाय वे अरूचीकर होनी चाहिए किन्तु विरेचन कराने वाली औषधियाँ रूचीकर होनी चाहिए ।।११-१३।।

कफयुक्त वात सम्बन्धी पीड़ा में मयनफल के चूर्ण के साथ गाय का दूध मिलाकर तथा अजीर्ण होने पर किंचित गर्म जल में सैंधानमक छोड़कर उसे पिलाकर वमन कराये ।।२१।।
वैद्य को चाहिए की वह रोगी को प्रथम वमन कराने वाली औषधि को पिलाकर उकरू बिठावें उसके बाद उसके गले के अन्दर हाथ से अरण्ड के नाल को धीरे- धीरे डालकर वमन करावें , ठीक से वमन न होने पर मुख से पानी गिरना हृदय का जकड़ना या हृदय में पीड़ा होना , शरीर में चक्कते पड़ना , खुजली आदि के लक्षण प्रकट होते है। अधिक वमन होने पर प्यास लगना ,हिचकी तथा डकार आना , बेहोशी , जीभ का बहार निकलना , आँखों की पुतलियाँ उपर की और चढ़ जाना, दोनों जबड़ों का न मिलना ,मुख का बन्द न होना , वमन के साथ रक्त का निकलना या थूक के साथ रक्त का दिखाई पड़ना और गले में पीड़ा होना ये सब लक्षण दिखाई पड़ते है।

वमन अधिक होने पर मृदुविरेचन ( दस्त ) कराना चाहिए ,यदि अधिक वमन होने से जीभ अन्दर बैठ गयी हो अर्थात उससे लार नहीं गिरता हो तो स्निग्ध अम्ल तथा लवण रसयुक्त , गाय का घी , गाय का दूध का कुल्ला करना हितकर होता है।।२२-२४।।
यदि आँख की पुतलियाँ ऊपर की और चढ़ गयी हो तो आँखों में गाय का घी लगाकर धीर- धीरे भीतर की और दबाना चाहिए , यदि दोनों जबड़े आपस में न मिलते हो अर्थात मुँह फैल गया हो तो स्वेदन करान चाहिए तथा कफ व वातनाशक औषधियों का नास देना चाहिए अर्थात नाक में डालना चाहिए। यदि थूक के साथ रक्त दिखाई पड़ता है तो रक्तपित्त वाले रोगी कीजैसी चिकित्सा करनी चाहिए , आमला। रसवत, खस, और पान का लावा ,इन सबों को सफ़ेद चन्दन मिश्रित जल के साथ ख़ूब मथकर उस में गाय का घी ,शक्कर ,शहद डालकर पिलाया जाय तो इससे अितवमन  से उत्पन्न हुए पुर्वोक्त प्यास आदि रोग शान्त हो जाते है । उत्तम रीति से वमन होने वमन होने पर -- हृदय , गला तथा सिर की शुद्धी ( हल्का तथा साफ़ होना ) , अग्नि का प्रदीप्त होना , शरीर हल्का मालूम पड़ना और कफ तथा पित्त का दोष नष्ट हो जाना ये सब लक्षण उत्पन्न होते है । उसके बाद ( उत्तम रीति से वमन हो जाने के बाद ) अपराह्न २ बजे के बाद में प्रदीप्त अग्नि वाले पुरूष मूँग की दाल ,साठी या अगहनी धान का चावल हृदय के लिए हितकर जगंली जीवों का माँस व रस सुरवा ( जूस ) बनाकर भोजन के लिए देना चाहिए । जिसे भलीभाँति वमन हुआ है उसके लिए तन्द्रा , मुख से दुर्गन्ध निकलना , खुजली, संग्रहणी और विष ये सब कभी पीड़ा देने वाले नहीं होते । बुद्धिमान व्यक्ति को चाहिए कि यह वमन करने पर एक दिन तक अजीर्ण भोजन , शीतल जल , व्यायाम स्त्रीप्रसंग या किसी भी प्रकार का मैथुन , तैल की मालिश और क्रोध इन सब को छोड़ दें ।

                                                      अथ विरेचम्
                                          तत्रादौ विरेचनाईसमयजनानाह--

विरेचन के योग्य समय तथा व्यक्ति का निर्देश -- प्रथम मनुष्य को स्नेहपान व स्वेदन कराकर वमन करा चुकने पर उत्तम रीति से विरेचन दे क्योंकि बिना वमन कराये ही विरेचन देने पर उस मनुष्य का कफ नीचे खिसककर ग्रहणी को ढक लेता है और उससे मन्दाग्नि तथा शरीर में गुरूता उत्पन्न हो जाती है अथवा प्रवाहिका रोग हो जाता है । यदि वमन न कराया हो तो प्रथम अपरिपक्व कफ का पाचन औषधियों के द्वारा कराये । बसन्त तथा शरद ऋतु में ही देहस्थित दोषों की शुद्धी के लिए विरेचन लेना उचित है । यदि प्राण संकट में हो अर्थात शोधन करना उस समय आवश्यक हो तो बुद्धिमान व्यक्ति बसन्त आदि से अन्य ऋतुओं में भी विरेचन द्वारा देहशोधन कर ले।।३४-३६।।

मृदु ,मध्य तथा क्रूर कोष्ठ वाले मनुष्यों तथा उनके योग्य मात्रा एवं द्रव्यों का वर्णन -- अधिक पित्त वालों का कोष्ठ मृदु अधिक कफ वालों का मध्यम तथा अधिक वात वालों का क्रुर होता है । और इनका विरेचन बड़ी कठिनाई से होता है । अतएव यह दूर्विरेच्य कहलाते है। मृदु कोष्ठ होने पर रोगी के लिए विरेचन द्रव्यों की मात्रा मृदु व मध्य कोष्ठ वाले के लिए मध्य तथा क्रुर कोष्ठ वालों के लिए तिक्ष्ण मात्रा देना उचित होगा । मृदु, मध्य तथा क्रुर कोष्ठ वाले को क्रम से मृदु, मध्य तथा तिक्ष्ण वीर्यवाले द्रव्यों से विरेचन कराना उचित है । मृदु कोष्ठ वालों को दाख , गाय का दूध तथा एरण्ड के तैल के द्वारा , मध्यकोष्ठ वालों को निशोथ , कुटकी अम्लतास के द्वारा और क्रुरकोष्ठ वालों को थूहर का दूध , चोक तथा बड़ी दन्ती के फल ( जमालघोटा ) के द्वारा विरेचन करना उचित होता है ।।४५-४७।।
रोगी की अवस्था तथा रोग के अनुसार विचार कर मधु तथा गाय के घी के साथ मिलाकर मोदक या चूर्ण के द्वारा विरेचन कराने में इनकी मात्रा १ कर्ष ( १ भर ) , २ कर्ष (२ भर ) , या १ पल (४ भर ) की देनी चाहिए । जब पित्त की अधिकता हो तब दाख के क्वाथ आदि के साथ निशोथ का चूर्ण विरेचन के लिए खिलाना चाहिए । जब कफ की अधिकता हो तब विरेचन के लिए रोगी को त्रिफला का क्वाथ तथा गौमूत्र के साथ त्रिकटू ( सोंठ, पीपर,मिर्च ) का चूर्ण खिलाना चाहिए । वात से पीड़ित रोगी को अम्ल पदार्थों के रस के साथ अथवा जांगल जीवों के मांसरस के साथ निशोथ , सैंधानमक तथा सोंठ का चूर्ण खिलाकर विरेचन कराना चाहिए ।।४८-५२ ।।
यदि एरण्डतैल दोगुने त्रिफला के क्वाथ के साथ अथवा गाय के दूध के साथ मिलाकर पिलाया जाय तो विरेचन देर में न होकर शीघ्र होता है ।।४३।।
जिसे आवश्यकता से अधिक विरेचन हुआ हो उसको मुर्छा , गुदभ्रंश ( काच निकलना ) शूल , कफ का अधिक निकलना और मेद व जल के समान गूदा से रक्त का निकलना ये सब लक्षण प्रकट होते है । उपचार - उक्त लक्षणयुक्त मनुष्य को उस समय उसके शरीर को शीतल जल से सींचकर शीतल चावल के धोवन में शहद मिलाकर पिलाकर थोड़ा वमन करावें , आम के पेड की छाल को , गाय के दूध से बनी दही या सौवीर के साथ चटनी के समान पीसकर नाभि पर लेप करावें , इससे उग्र अतिसार भी नष्ट हो जाता है और कच्चे या पक्के भूसी रहित जौ के द्वारा सौवीर बनता है ।।७५।।
वैद्य को चाहिए कि अधिक दस्त आने पर रोकने वाली शीतल औषधियों से दस्त बन्द करे और जब रोगी के शरीर में लघुता मालूम पड़ने लगे तथा मन में प्रसंता तथा वायु का अनुलोमन अर्थात अंधोवायु यथावत रीति से होने लगे तब उसका विरेचन बहुत अच्छी रीति से हुआ है , यह समझकर रात्रि में उसे पाचन औषधि देवें , उचित विरेचन लेने से मनुष्य की इन्द्रियों में बल आता है , बुद्धी स्वच्छ होती है , अग्निप्रदिप्त होती है, धातुओं की तथा वायु की स्थिरता आती है।
विरेचन लेने वाला मनुष्य - अधिक वायु में रहना , शीतल जल , तेलमालिश , अजीर्ण पैदा करने वाला भोजन , व्यायाम , स्त्रीसहवास या किसी भी प्रकार का मैथुन , साली धान का चावल , मुंग आदि की दाल से बनाई गयी यवागू का सेवन करके आनंदलाभ उठायें ।।७७-८०।।

                                                   इति विरेकाधिकार: ।

                                                        अथानुवासनम् ।
                                               तत्रादावनूवासननिरूहयोर्भेदमाह ----

अनुवासन तथा निरूह के भेद -- बस्ति दो प्रकार की होती है ,१- अनुवासन ,२- निरूह । अनुवासन - जहाँ केवल स्नेह पदार्थ की बस्ति दी जाती है उसे 'अनुवासन ' कहते है । निरूह - जहाँ क्वाथ , गाय का दूध तथा तैल मिलाकर बस्ति दी जाती है उसे निरूह कहते है । अनुवासन तथा निरूह में तैलादि का प्रयोग बस्ति के द्वारा किया जाता है अतएव ये दोनों बस्ति कहलाते है ।।८२-८३।।

स्नेह बस्ति ( अनुवासन ) की विधि - ऊपर कही हुई बस्तियों में जो अनुवासन नाम की बस्ति है उसी के विषय में कहते है । अनुवासन बस्ति का ही भेद ' मात्राबस्ति ' है। मात्राबस्ति में स्नेह की मात्रा दो पल ( आठ तौले ) या इसकी आधी एक पल ( ४ तौले ) की होती है । जो मनुष्य रूक्ष शरीर वाला तथा तिक्ष्ण अग्नि वाला हो एवं केवल वातरोगी हो वह अनुवासित बस्ति देने योग्य होता है । जो जीर्ण शरीर वाला तथा उन्माद,तृषा, शोथ,मुर्छा,अरूचि,भय ,श्र्वास, क्षयरोग,से पीड़ित हो वे निरूह बस्ति तथा अनुवासन बस्ति दोनों बस्ति देने योग्य नहीं होते है।।८४-८६।।
यदि बस्ति भलीभाँति दी जाय तो उससे शरीर,वर्ण ( शरीर का रंग ) बल, आरोग्य तथा आयु की वृद्धि होती है शीत तथा बसन्तऋतु में दिन के समय स्नेहबस्ति उत्तम होती है ,ग्रीष्म वर्षा तथा शरदऋतु में रात के समय देनी चाहिए।।९५-९७।।
रोगी को अतिस्निग्ध ( अत्यन्त स्नेहयुक्त ) पदार्थ भोजन कराकर अनुवासन बस्ति नहीं देनी चाहिए,क्योंकि भोजन तथा बस्ति दोनों ही में स्नेह का प्रयोग करने से रोगी को मद तथा मुर्छा उत्पन्न होती है ।।९८।।
अत्यन्त रूखा अन्न जिसने भोजन किया है उसे यदि बस्ति दी जाय तो उससे भी बल तथा वर्ण की हानि होती है ।अत: रोगी को यथोचित घीयुक्त भोजन कराकर स्नेहबस्ति देनी चाहिए।।९९।।
अनुवासन तथा निरूह नामक ये दोनों बस्ति यदि हीन मात्रा में दी जाये तो वे अत्यन्त उपकारक नहीं होती और अधिक मात्रा में दी जाय तो अफारा, क्लान्ति तथा अतिसार उत्पन्न करने वाली होती है ।।१००।।
स्नेहबस्ति देने में २४ तौले की मात्रा उत्तम है तथा १२ तौले की मध्यम और ६ तौले की मात्रा हीन कही गयी है। बस्ति देने के लिए जो स्नेह हो उसमें सौंफ तथा सैंधानमक का चूर्ण डालना चाहिए और चूर्ण की मात्रा ६ मारे की उत्तम ४ माशे की मध्यम तथा २ माशे की हीन समझी जाती है । जिसे अनुवासन ( स्नेहबस्ति ) देना हो उसे विरेचन लिए हुऐ जब सात रात्री व्यतीत हो जाय तथा जब उसे बल आ जाये तब भोजन कराने के बाद अनुवासन बस्ति देनी चाहिए ।।१०१-१०३।।
अनुवासन बस्ति देने योग्य व्यक्ति को प्रथम भलीभाँति तैल की मालिश करके धीरे- धीरे गर्म जल से स्नान करा चुकने पर भोजन कराकर शास्त्रानुसार धीरे-धीरे टहलाकर ,मल, मूत्र तथा वायु का त्यागकर अन्त में स्नेहबस्ति देनी चाहिए ।।१०४।।

बायीं करवट से सोये हुए तथा बाईं जंघा पसारे हुए एवं दाहिनी जंघा सिकोड़े हुए रोगी की एरण्डआदि तैल से चिकनी की हुई गूदा के अन्दर बस्ति की नली को रख और उसके बाद डोरे से बँधे हुए बस्ति के मुख को बायें हाथ से पकड़ लें और दाहिने हाथ से मध्य वेग से दबा दे । बस्ति देने के समय रोगी को जम्हाई लेना , खाँसना ,छींकना ये सब कार्य करने के लिए मना कर दे बस्ति को दबाये रहने का समय ३० मात्रा तक कहा हुआ है । उसके बाद उक्तरीति से बस्ति ले चूकने पर १ से १०० गिनती गिनने के समय तक रोगी को हाथ- पैर फैलवाकर उत्तान लेटा रहने दें , ऐसा करने से उसके शरीर में स्नेहादि का यथोचित प्रभाव सर्वत्र फैल जाता है । अपने घुटने से ऊपर एक बार हाथ फिराकर चुटकी बजाने में जितना समय लगता है उसे १ मात्रा का काल कहते है अथवा जितना समय पुरूषों के पलक बन्दकर खोलने में लगता है उतने समय के सदृश काल को विद्वान मात्रा कहते है ।।१०४-११०।।

इसके बाद रोगी के दोनों पैरों के तलवों में तीन- तीन बार , धीरे- धीरे हाथ से ठोके और इसी भाँति दोनों कुल्हो पर  भी तीन- तीन बार ठोके उसके बाद पैताने की तरफ़ से शैय्या को तथा कमर को तीन बार उचकावें पुन: दोनों कुल्हो पर पूर्व की भाँति अपने हाथो से तीन बार ठोके और पैताने की तरफ़ की शैय्या को तीन बार उचकावें । इस प्रकार उक्त विधी को कर चुकने के बाद रोगी को सुखपुर्वक सोने दे।
जिस रोगी के अधोवायु तथा मल के साथ बिना उपद्रव के बस्ति द्वारा दिया हुआ स्नेह ( तैल ) यदि गुदामार्ग से बाहर निकल आवे तो उसे उत्तम रीति से अनुवासित बस्ति दी गयी ऐसा समझना चाहिये ।।।११४।।
गुदामार्ग से स्नेह के बाहर निकल आने पर और भोजन किये हुए अन्न के पच जाने पर यदि रोगी की अग्नि प्रदीप्त हो जाये तो उसे रूची के अनुसार लघु अन्न ( जल्दी पच जाने वाला ) भोजन करावें ।।११५।।
इस भाँति जिसे अनुवासित बस्ति दी गयी हो उसे दूसरे दिन गर्मजल अथवा धनिया तथा सोंठ का क्वाथ स्नेह सम्बंधी व्याधियों को दूर करने के लिए पिलाना चाहिए ।।११६।।
इस प्रकार पुर्वोक्त विधी के द्वारा रोगी को योग्यता अनुसार ६,७,८,९, बार तक अनुवासित बस्ति दें चुकने के अन्त में निरूहणबस्ति देनी चाहिए । रोगी को उत्तमरीति से प्रथम बार अनुवासितबस्ति देने पर उसके मूत्राशय तथा पेडू का स्नेहन होता है । दूसरी बार की अनुवासनबस्ति से मस्तक की वायु का समन होता है । तीसरी बार की अनुवासनबस्ति से बल व वर्ण ( रंग ) की उत्पत्ति होती है , चौथी व पाँचवी बार की अनुवासितबस्ति से रस तथा रक्त का निर्माण होता है, छठी बार की अनुवासित बस्ति से माँस का निर्माण होता है, सातवी बार की अनुवासितबस्ति से मेदा का निर्माण होताहै , आठवीं बार की अनुवासितबस्ति से अस्थियों का व नौंवी बार की अनुवासितबस्ति से मज्जा का स्नेहन होता है । इस प्रकार अट्ठारह दिन तक अट्ठारह अनुवासितबस्ति देने से शुक्रगत सभी रोग नष्ट होते है । जो पुरूष अट्ठारह दिन में अट्ठारह अनुवासितबस्तियों का सेवन करता है वह हाथी के समान बलवान,घोड़े के समान वेगवान तथा देवता के समान कान्तिमान होता है ।।११७-१२२।।
जो मनुष्य रूक्ष शरीर वाला और अधिक वात सम्बंधी दोष से पीड़ित हो उसे नित्य बस्ति देवें । इससे अन्य पुरूषों को अग्नि का बाध ( मन्दता ) होने के भय से तीन- तीन दिन पर अनुवासन बस्ति देनी चाहिए । रूक्ष शरीर वालों के लिए थोड़ी मात्रा में अनुवासनबस्ति दीर्घकाल तक भी दी जाये तो कोई हानिकारक नहीं होती है ।।१२३।।


स्निग्ध शरीर वाले लोगों को थोड़ी मात्रा में निरूहबस्ति देना उचित होता है अथवा जिस रोगी को स्नेहबस्ति देने पर तत्काल ही केवल स्नेह ( तैल ) गुदामार्ग से बाहर निकल आता है उसके लिए अत्यन्त थोड़ी मात्रा स्नेहबस्ति देने में लेनी चाहिए क्योंकि स्निग्ध शरीर में बस्ति द्वारा दिया हुआ स्नेह नहीं ठहरता है।।१२४।।
जिसकी अच्छी तरह से शुद्धी नहीं हुई है ऐसे मनुष्य का मल से मिला हुआ स्नेह जब पुन: बाहर निकलता है तब उसके अंगों में शिथिलता आ जाती है तथा अफारा, शूल और श्वास उत्पन्न हो जाते है और पकाशय में गुरूता होती है ऐसी अवस्था होने पर तीक्ष्ण औषधियों से युक्त तिक्ष्ण निरूह बस्ति देनी चाहिए अथवा वस्त्रादि में औषधि लपेटकर उसकी बत्ती बनाकर गुदामार्ग में डालनी चाहिए जिससे की वायु का अनुलोमन होकर मल के सहित स्नेह बाहर निकल आवे , उक्त अवस्था में विरेचन व नस्य भी देना उत्तम होता है स्नेहबस्ति देने पर यदि वह बाहर न निकलने से कोई उपद्रव न करे तो यह समझना चाहिए उसके शरीर में रूक्षता होने से सम्पूर्ण अथवा थोड़ा स्नेह शरीर ने शोख़ लिया है अत: चतुर वैद्य उसकी उपेक्षा कर दे । अर्थात उस स्नेह को बाहर निकालने का प्रयास न करे । यदि एक दिन एक रात्रि व्यतीत हो जाने पर भी स्नेह बाहर न निकले तो उसे संशोधन के उपाय द्वारा निकले । न की उसे निकालने के लिए पुन: दुबारा बस्ति का प्रयोग करे ।।१२५-१२९।।
सभी प्रकार के वात सम्बन्धी विकारों को दूर करने वाली अनुवासन बस्ति -- गिलोय, एरण्ड , करञ्ज,भारंगी,अडूसा, रोहिस घास, शतावर , कटशैरय्या , काकनासा, इन सबों को एक इन सबों को एक पल ( चार- चार तौले ) लेकर और जौ , उड़द ,अलसी , बेर की गुठली , कुलथी , इन सबों को दो- दो पल ( आठ तौले )  इन सभी को गौमूत्र में धोकर , निचोड़कर ४ द्रोण जल में पकावें जब एक द्रोण जल शेष रह जाये तब उतार ले , पुन: इस क्वाथ में जीवनीय गण की औषधियाँ एक-एक पल लेकर उनका कल्क पीसकर डाले दे, और आढक ( ६४ पल ) तैल के साथ पकावें जब केवल स्नेह भाग शेष रह जाये तब उतार ले , इस स्नेह से अनुवासितबस्ति देने सभी प्रकार के वातरोगो का नाश होता है ।

- जीवनीयगण - जीवक , ऋषभक , मेदा, महामेदा, कोकोली , क्षीरकाकोली , मुगवन , मषवन , जीवन्ती , मुलेठी , ये दस औषधियाँ जीवनीय होती है अत: ये जीवनीयगण कहलाती है ।

बस्तिकर्म का ठीक- ठीक उपयोग यदि न हो तो दूषित हो जाने से उससे छिहत्तर रोग उत्पन्न होते है । अत: समुचित नली आदि सामग्री से सुश्रोतोत्त रीति के अनुसार उन रोगों की चिकित्सा करनी चाहिए । स्नेहपान विधी में जैसा जो कुछ पीना, खाना, रहन- सहन ,तथा परहेज़ कहाँ हुआ है ठीक वैसा ही सबकुछ स्नेहबस्ति में करना चाहिए , इस विषय में विचार करने की आवश्यकता नहीं है ।।१३०-१३४।।


                                                    अथ निरूह : ।
                                           अथ निरूहबस्तिविधीमाह---
निरूह बस्ति की विधी --  समवायि कारण के भेद से ( पृथक - पृथक औषधियों द्वारा कराने से ) निरूह बस्ति के अनेक भेद होते है इसलिए ऋषियों ने उन बस्तियों के अलग - अलग नाम रखे है । ।१३५।।विद्वानों ने निरूह बस्ति का दूसरा नाम आस्थापन बस्ति कहां है। क्योंकि आस्थापन से दोषों तथा धातुओं का अपने- अपने स्थान पर स्थापन होते है । निरूह बस्ति की मात्रा का प्रमाण सवाप्रस्थ (१ सेर ) का श्रेष्ठ होता है । १ प्रस्थ (१२ छटाँक ४ ४भर ) की मात्रा निकृष्ठ समझनी चाहिए ।।१३६-१३७।।
जीवनीयगण - जीवक , ऋषभक , मेदा, महामेदा, कोकोली , क्षीरकाकोली , मुगवन , मषवन , जीवन्ती , मुलेठी , ये दस औषधियाँ जीवनीय होती है अत: ये जीवनीयगण कहलाती है ।
अत्यन्त स्निग्ध शरीर वाला उतक्लेशजनक आहारआदि द्वारा जिसके दोष बाहर निकलने के लिए उन्मुख न हुए हो , उर क्षत का रोगी , दुर्बल मनुष्य , अफारा, वमन , हिचकी , बवासीर, खाँसी , और दमा से पीड़ित , गूदा सम्बन्धी शोथ, अतिसार, विसुचिका तथा कुष्ठ रोग से युक्त मनुष्य , गर्भिणी स्त्री , मधुमेह का रोगी ,और जलोदर वाले रोगी को आस्थापनबस्ति नहीं देनी चाहिए ।।१३८-१३९।।
वात सम्बन्धी व्याधि ,उदावर्त वातरक्त , विषमज्वर , मुर्छा, तृष्णा , उदररोग , अनाह, मूत्रकृच्छ , पथरी , अण्डवृद्धि 'रक्तप्रदर , मन्दाग्नि , प्रेमह , शूल , अम्लपित्त और हृदयरोग इन सबों में बुद्धिमान वैद्य को विधीपुर्वक निरूह बस्ति देनी देनी चाहिए ।।१४०-१४१।। अधोवायु वाले तथा मल- मूत्र को त्याग कर चूका हो जो स्निग्ध तथा स्विन्न  हो चूका हो एवं जो बिना भोजन किये हुआ हो ऐसे मनुष्य को घर के अन्दर दोपहर के समय यथायोग्य निरूह बस्ति देनी चाहिए । यहाँ स्निग्ध का स्नेह द्वारा जिसका स्नेहन हुआ हो तथा स्विन्न का ' गर्मजल से जिसे स्नान कराया गया हो यह अर्थ समझना चाहिए । बुद्धिमान वैद्य स्नेहबस्ति के विधान से निरूहबस्ति दे और निरूहण हो जाने पर निरूहद्रव्य को बाहर निकालने इच्छा से मुहूर्तमात्र उत्कटआसन ( उकरू ) बैठे । यहाँ मुहूर्तमात्र पद से यह समझना चाहिए कि उतने समय में निरूहद्रव्य बाहर निकलता है उतने समय नाम मुहूर्तमात्र है । मुहूर्त भर प्रतिक्षा करने पर यदि निरूहबस्ति में प्रयुक्त द्रव बाहर न निकले तो जवाखार , गौमूत्र , अम्ल ,सैंधानमक के निरूहण द्वारा निरूहबस्ति के  द्रव्य को बाहर निकाले जिस मनुष्य के क्रमानुसार मल ,पित्त ,कफ तथा वायु निकलते है तथा शरीर में लघुता मालूम होती है उस मनुष्य को सुनिरूह ( भलीभाँति निरूहण ) कहते है ।।१४२-१४६।।

जिस मनुष्य को बस्ति धीरे- धीरे निकले और जो मुर्छा, पीड़ा , जड़ता और अरूची से युक्त हो उसे दुनिरूह ( ख़राब निरूहण ) कहते है । दी हूई औषधि का बाहर निकल जाना , मन की प्रसन्नता , स्निग्धता , व्याधिग्रह ( रोग में कमी ) ये सब आस्थापन तथा स्नेहबस्ति के भलीभाँति दिये जाने के लक्षणहैं ।।१४७-१४८।।
बस्ति देने में चतुर वैद्य इसप्रकार से निरूह बस्ति दे ,यदि उचित हो तो दूसरी , तीसरी व चौथी बार भी बस्ति दें।
वातरोग में स्नेह वाली एक बस्ति , पित्तरोग में गाय के दूध के साथ दो बस्ति दना चाहिए तथा कफरोग हो तो गर्म कषाय , कटू , रसयुक्त पदार्थ तथा गौमूत्र की तीन बस्ति देना उत्तम होता है । पित्त, कफ तथा वायु से आक्रान्त हुए मनुष्य को क्रम से गाय के दूध की, मूँग के रस तथा मांसरस की बस्ति देनी चाहिए । जिसको निरूह बस्ति दी गयी हो उसे भोजन के पश्चात अनुवासनबस्ति देनी चाहिए । सुकुमार शरीर वाले को , वृद्ध तथा बालक को मृदु बस्ति हितकर है । यदि इन्हें तीक्ष्ण बस्ति दी जाय तो इनके बल तथा आयु का नाश होता है । चतुर वैद्य प्रथम उल्क्लेशन बस्ति तत्पश्चात दोषहर बस्ति पुन: संशमनीय बस्ति दे । ।१४९-१५३।।

उत्क्लेशनबस्ति --- रेंड के बीज,मुलेठी , पीपल , वच को गौमूत्र में धोकर और हाऊबेर के फल का कल्क व सैंधानमक मिलाकर इनकी बस्ति दें, इस बस्ति को उत्क्लेशनबस्ति ( दोषों को बहिर्गमनोन्मुख करने वाली ) कहते है ।।१५४ ।।
दोषहर बस्ति -- शतावरी , मुलेठी , बेल का गूदा , इन्द्र जौ , इनको कॉजी तथा गौमूत्र में पीसकर उससे जो बस्ति दी जाती है उसे दोषहर बस्ति कहते है ।।१५५।।

शमन बस्ति -- फूल प्रियड्गु , मुलेठी , नागरमोथा , और रसोत इन सब को गाय के दूध में पीसकर जो बस्ति दी जाती है संशमनीय बस्ति कहते है । इस बस्ति से दोषों का समन होता है ।।१५६।।

लेखन बस्ति --- हरड़ , बहेड़ा , आँवला को क्वाथ , गौमूत्र , शहद ,जवाखार ऊषकादिक गणोक्त ( खारी मिट्टी , तूतीया ,हींग , दो प्रकार के कसीस , सैंधानमक , शिलाजीत ) चूर्ण के प्रक्षेप युक्त जो बस्ति दी जाती है वह लेखन बस्ति कहलाती है ।।१५७।।

बृंहणबस्ति --धातुओं के बढ़ाने वाले द्रव्यों के क्वाथो से तथा मधुर पदार्थों के कल्क , गाय का घी , एंव मांसरस से जो बस्ति दी जाती है उसे बृंहणबस्ति कहते है । इस बस्ति से धातुओं की वृद्धि होती है । ।१५८।।
 
पिच्छलबस्ति --- बेर , नांरगी , लिसोडा , सेमर के फूलो के अँकुर इनको गाय के दूध में पकाकर , मधु डालकर , बकरा, मेढ़ा , काले हिरण के रक्त के साथ जो बस्ति दी जाती है उसे पिच्छलबस्ति कहते है । पिच्छलबस्ति की मात्रा बारह पल की कही गयी है ।।१५९-१६०।।

निरूहबस्ति की मात्रा --- पहले एक तौला सैंधानमक लेकर उसमें १६ तौला मधु डालकर ख़ूब घोटे इसके बाद उसमें २४ तौले स्नेह देकर सबको मर्दन करके ख़ूब मिलाये जब सब एक गात हो जाये तो उसमें आठ तौला औषधिकल्क डालकर घोटे फिर ३२ तौला क्वाथ और उसके बाद १६ तौला प्रक्षेप द्रव्य का उत्तम चूर्ण डालकर सबको भलीभाँति घोटकर विद्वान लोग निरूह बस्ति दे । इसप्रकार तैयार की गयी बस्ति परिमाण में १६ तौला होती है विशेष वक्तव्य यह है कि वातरोग में १६ तौला मधु और २४ तौला स्नेह डाले । पित्तजन्य विकार में १६ तौला मधु और १२ तौला स्नेह डाले । यदि कफरोग हो तो २४ तौला मधु और १६ तौला स्नेह डालना चाहिए । । १६१-१६५ ।।

मधुतैलकबस्ति -- रेड़ की जड़ का क्वाथ ३२ तौला , मधु १६ तौला , तिलतैल १६ तौला , सौंफ २ तौला , सैंधानमक २ तौला डालकर सबको लकड़ी से मिलावे , यह मधुतैलकबस्ति कहलाता है । यह बस्ति मेद, गुल्म , कृमि , प्लीहा , मल तथा उदावर्त का नाश करती है , बल को बढ़ाती है , रंग को साफ़ चमकदार करती है , वीर्य को बढ़ाने वाली है , अग्नि को प्रदीप्त करती है और धातुओं को बढ़ाकर पुष्ट करती है ।।१६६-१६७।।

यापनबस्ति -- मधु , गाय का घी तथा तैल आठ- आठ तौले लेकर उसमें एक तौला हाऊबेर , एक तौला सैंधानमक डालकर घोटें । इसकी जो बस्ति दी जाती है उसको यापनबस्ति कहते है , यह बस्ति मलसारक ( मल को बाहर निकालने वाली ) है ।।१६८।।

युक्तरथबस्ति -- एरण्ड की जड़ के क्वाथ में मधु , तैल , सैंधानमक , वच , पीपल को डालकर जो बस्ति दी जाती है उसे युक्तरथबस्ति कहते है ।।१६९।।

सिद्धबस्ति -- पञ्चमूल के क्वाथ में तैल , पीपल , मधु , सैंधानमक , और मुलेठी डालकर जो बस्ति दी जाती है उसे सिद्धबस्ति कहते है । सिद्धबस्ति लेने वाले को उष्ण जल से स्नान कराना , दिन में सोना , अजीर्णकारक पदार्थों का भोजन त्याग देना चाहिए और स्नेहबस्ति के समान आचरण करना चाहिए ।।१७०-१७१ ।।

इसके बाद उत्तरबस्ति कहता हूँ --यह बस्ति निरूह बस्ति के बाद दी जाती है अतएव इसको उत्तरबस्ति कहते है । २५ वर्ष से कम अवस्था वालों के लिए इस बस्ति में स्नेह की मात्रा दो तौले की है और २५ वर्ष से अधिक अवस्था वालों के लिए चार तौले की मात्रा देनी चाहिए । इसके बाद निरूह बस्ति द्वारा शुद्ध तथा स्नान और भोजन से तृप्त हुए मनुष्य को जानू बराबर उँची चिकनी चौकी पर उकरू बैठाकर तथा स्नेह लगी हुई सलाई से उसके मूत्रमार्ग को स्वच्छ करके गाय का घी लगी हुई छ: अंगुल की नली लिंग के छिद्र में डाल दे । तत्पश्चात बस्ति को दबाकर धीरे से नली को बाहर निकाल ले तत्पश्चात स्नेह के बाहर निकल जाने पर पुर्वोक्त स्नेहबस्ति की भाँति उपचार करना चाहिए ।
स्त्री की योनि में उत्तरबस्ति की क्रिया करनी हो तो कनिष्ठ्का अंगुली के समान मोटी और जिसमें मूँग का दाना निकल जाय उतने छिद्र वाली दस अंगुल की सुक्ष्म नली लेकर योनि के अन्दर चार अंगुल डाले ।।१७२-१७८।।
यदि मूत्रकृच्छ रोग वाली महिला के मूत्रमार्ग में डालनी हो तो दो अंगुल डाले और बालकों के मूत्रकृच्छ विकार में इससे भी सुक्ष्म हाथ को काँपने से रोककर धीरे- धीरे लिंग के भीतर एक अंगुल डाले यह नली मालती के फूल की डंडी के समान होनी चाहिए ।।१७९-१८०।।
स्त्रियों के योनिमार्ग में स्नेह की मात्रा आठ तौले की और मूत्रमार्ग में चार तौले की है तथा बालकों के लिंग में दो तौले की लेनी चाहिए वैद्य स्त्री को उत्तान चित लेटाकर घुटने को ऊपर करके बस्ति दे , यदि उत्तरबस्ति बाहर न निकले तो वैद्य शोधनगुण वाली दूसरी बस्ति दे अथवा योनिद्वार में शोधन पदार्थों को सूत से बनी चिकनी दृढ़ फलवृत्ति प्रवेश करे ।।१८१-१८४।।
जिस स्थान में बस्ति दी गयी हो उसमें दाह हो तो बुद्धिमान वैद्य दूध वाले वृक्षों के क्वाथ से अथवा शीतलजल से दूसरी बस्ति दे ।।१८५।।

उत्तरबस्ति लोगों के शुक्र सम्बन्धी रोगों तथा स्त्रियों के ऋतु सम्बन्धी रोगों को नष्ट करता है । किन्तु उत्तरबस्ति प्रेमह रोगियों को नहीं देना चाहिए , उत्तरबस्ति के भलीभाँति देने के लक्षण , उत्तमरीति से न देने से उत्पन्न उपद्रव अन्य समस्त क्रम स्नेहबस्ति के समान ही जानने चाहिए ।।१८६-१८७।।
फलवृत्ति की विधी -- मल नि: सरण के लिए गूदा में गाय का घी चुपड़कर रोगी के समान मोटी और चिकनी वृत्ति प्रविष्ट करे इसी को वैद्य जन फलवृत्ति कहते है ।।१८८।।


                                                                 अथ नावनम्
                                                         अथ नस्य ग्रहणविधीमाह----

नस्यग्रहण की विधी --- नासिका से जो ग्राह्य औषधि होती है उसको बुद्धिमान लोग नस्य कहते है इसके नावन तथा नस्यकर्म ये दो नाम है ।।१८९।।
रेचन तथा स्नेहन ये दोनों भेद नस्य के कहे गये है । जिस नस्य से अन्त:स्थ पदार्थों की हीनता हो वह रेचन तथा जिस नस्य से भीतर के पदार्थों की वृद्धि की जाती हो वह स्नेहन कहलाती है । यदि कफ को नष्ट करना हो तो पुर्वाह्यन में , पित्त को नष्ट करन हो तो मध्याह्न में वात को नष्ट करना हो तो अपराह्न में नस्य देना चाहिए । यदि रोग भयंकर हो तो रात्रि में भी नस्य देना चाहिए ।।१९०-१९१।।
भोजन करने के पश्चात तथा मेघ से घिरे दिन में नस्य ना लें एवं लंघन किये हुए, नवीन प्रितिश्याय के रोगी , गर्भिणीस्त्री , गर ( कृत्रिम )  विधी से दूषित हुए अजीर्ण रोगी जिसको बस्ति दी गयी हो , जिसने स्नेहजल अथवा आसव तुरन्त पिया हो , क्रुध , शोकाकुल , प्यासे , वृद्ध , बालक ,मल-मूत्र के वेग को रोकने वाले परिश्रमी तथा जिसे स्नान करने की इच्छा हो ऐसे लोगों को नस्य देना वर्जित है ।।१९२-१९३।।
बालक जबतक आठ वर्ष का न हो तब तक उसको नस्य नहीं देना चाहिए तथा अस्सीवर्ष के ऊपर लोगों को नस्य नहीं देना चाहिए  ।।१९४।।

                                                    अथ रेचनस्य मात्राह --

रेचन नस्य की मात्रा -- तीक्ष्ण तैलो से , तीक्ष्ण औषधियों द्वारा औषधियों द्वारा पकाये हुए स्नेहों से क्वाथो तथा रसों में रेचन नस्य देना चाहिए ।।१९५।।
  रेचन नस्य की विधी -- नासिका के दोनों छिद्रों में रेचन नस्य देना चाहिए । प्रत्येक छिद्र में आठ- आठ बूँद की मात्रा उत्तम है , छ: - छ: बूँद की मात्रा मध्यम तथा चार- चार बूँद की मात्रा कनिष्ठ होती है ।।१९६।।

                                             अथ नस्यौषधप्रमाणमाह---

नस्य औषध का प्रमाण -- नस्यकर्म में तिक्ष्ण औषधि चार माशे , हींग यवभर, सैंधानमक एक माशा , गाय का दूध बत्तीस माशे , पानी तीन तौला और मधुर द्रव्य एक तौला लेना चाहिए ।।१८७-१९८।।

                                               रेचननस्यस्य भेदद्वयमाह--

रेचन नस्य के भेद -- रेचन नस्य के अवपीड तथा प्रधमन नामक दो भेद है । शिरोविरेचन के लिए योग्यरीति से इन भेदो का प्रयोग करना चाहिए ।।१९९।।
रेचन नस्य के भेदों के लक्षण -- जिसके साथ तिक्ष्ण पदार्थ संयुक्त हो ऐसी औषधि का कल्क करके उसको निचोड़कर जो रस निकाला जाता है वह अवपीड और अंगुल लम्बी , दो मुख वाली नली में आधा तीक्ष्ण चूर्ण भर कर मुख से फूँक मारकर जो चूर्ण नाक में चढ़ाया जाता है , उसको प्रधमन कहते है ।।२००-२०१।।

                                             अथ रेचनस्नेहननस्योपयोगमाह--

रेचन तथा स्नेहन नस्य के उपयोग ----उधर्व जत्रुगत अर्थात गले से ऊपर के रोगों में , कफरोगो में गला बैठने में अरूची,ज़ुकाम ,सिरशूल, शोथ ,अपस्मार तथा कुष्ठरोगो में रेचन नस्य हितकर है डरने वाले व्यक्ति स्त्री , कृश मनुष्य और बालक इन सबों को स्नेह से नस्य देना हितकर होता है । गले के रोग में , सन्निपात में निद्रा में विषमज्वर में मनोविकार व कृमिरोग में अवपीडन नस्य देना चाहिए । अत्यन्त उतकट रोगों में , जिनमें ज्ञान नष्ट हो जाये ऐसे रोगों में धीरवैद्य चूर्ण का प्रधमन नस्य दें , क्योंकि यह अत्यन्त तीक्ष्ण होता है ।।२०२-२०५।।

                                           अथ विरेचननस्ययौषधिगुणानाह---
रेचन औषधियों के गुण -- सौंठचूर्ण, पीपल,सैंधानमक को पानी में पीसकर यदि नस्य दे तो कान , नेत्र ,नासिका,सिर, गर्दन, दाढ़ ,गला ,बाहु और पीठ के रोग नष्ट हो जाते है । महुआ का रस ,पीपल,वच,मरिच, सैंधानमक को थोड़े - थोड़े गरम पानी में पीसकर नस्य देने से मिरगी , उन्माद , सन्निपात तथा अपतन्त्रक नष्ट होते है ।।२०६-२०८।।
                                          अथ रेचननस्यस्यापरविधीमाह---
रेचन नस्य का दूसरा प्रकार -- सैंधानमक ,श्वेत मरिच ,सहजने के बीज , सरसों तथा कूठ को बकरे के मूत्र में पीसकर नस्य देने से तन्द्रा नष्ट होती है ।।२०९।।

                                         प्रधमननस्यस्यौषधिमाह--
प्रधमन नस्य की औषधियाँ --- मिर्च , वच, कायफल का चूर्ण करके रोहूमछली के पित्त की भावना देकर नली द्वारा प्रधमन नस्य देना चाहिए ।।२१०।।

                                   अथ बृंहणस्नेहननस्य कल्पनामाह --
स्नेहननस्य की कल्पना - स्नेहननस्य के मर्श और प्रतिमर्श दो भेद होते है । प्रत्येक नासापूट में बत्तीस माशा मर्श डाली जाय यह मर्श की मात्रा उत्तम होती है एवं सोलह माशे की मात्रा मध्यम , चार माशे की मात्रा कनिष्ठ मात्रा कही गयी है ।।२११-२१३।।
बुद्धिमान वैद्य दोषों का बलाबल देखकर एक दिन में दो- तीन बार या एक दिन के अन्तर से अथवा दो दिन के अन्तर से मर्श नस्य का अपयोग करावें ।।२१४।। तीन या पाँच अथवा सात दिन तक बराबर सावधानी से नस्य का उपयोग करे ।।२१५।। मर्श नस्य देने के समय यदि स्थानभ्रष्ट दोष कुपित हुए हो तो उससे और शिरो-विरेचनार्थ रेचन नस्य के उपयोग से , धात्वादि के क्षय से विभिन्न प्रकार की व्याधियाँ उत्पन्न होती है यदि स्थानभ्रष्ट दोष के प्रकोप से रोग उत्पन्न हो जाय तो वमन रूप शोधन का प्रयोग करना उचित होगा ।।२१६।।यदि धात्वादि के क्षय से रोग उत्पन्न हुए हो तो तत्तद्धातुवर्धक बृंहण ( स्नेहन ) नस्य का उपयोग हितकर होता है। शिरोविकार , नासिकारोग, नेत्ररोग, सुर्यावर्त , आधाशीशी , दनतरोग , बलक्षय, गर्दन, भुजा ,कन्धा इन रोगों में मुखशोथ , कर्णनाद , वात- पित्त सम्बन्धी विकार , अकाल में बालों का सफ़ेद होना अथवा जिसकी दाढ़ी- मूँछ बिलकुल गिर पड़े ऐसे रोगों में स्नेहों से अथवा मधुर पदार्थों के रस से स्नेहन नस्य देना उत्तम होता है ।।२१७-२१९।।
बृंहण नस्य की विधी -- शर्करा संयुक्त गाय का दूध , गाय के घी से भूनी केसर को पीकर नस्य देने से वातरक्तजन्य पीड़ा नष्ट होती है । इसी प्रकार भौंह , कपाल,नेत्र , मस्तक , तथा कान के रोग , सुर्यावर्त तथा आधाशीशी ये भी नस्य से नष्ट हो जाते है ।।२२०।। अणुतैल , नारायणतैल , मांसादितैल , तत्तदरोगनाशक औषधियों के पकाये हुए गाय के घी से बृंहण नस्य देना चाहिए ।।२२१।। अणुतैल सुश्रुत में इस प्रकार कहाँ है -- जिससे बहुत दिनों तक तैल की पैराई की गयी हो ऐसे तैल पेरने वाले लकड़ी के कोल्हू को लेकर उसके छोटे- छोटे टुकड़े करके ओखली में किट लें और पानी से भरी कढ़ाई में डालकर आँच पर चढ़ा दे जब उससे तैल निकलने लगे तो उस तैल को निथार कर पानी से अलग कर ले तत्पश्चात वातनाशक औषधियों के कल्क के साथ उसे पकाकर साफ करके अलग बर्तन में रख ले , इस तैल को ही अणुतैल कहते है , यह वातसम्बन्धीरोगो को नष्ट करता है ।।२२१।।
                                              अथ नस्यस्यान्यं विधीमाह---
नस्य का दूसरा प्रकार -- कफ, वात सम्बन्धी रोगों में तैल और वातरोग में वसा का नस्य देना चाहिए , पित्तरोग हो तो सर्वदा गाय का घी और मज्जा का नस्य देना चाहिए । उड़द , केवांच के बीज ,रासना , बला , एरण्ड की जड़ रोहिष घास , और असंगध का क्वाथ करके उससे हींग तथा सैंधानमक डालकर कुछ गरम रहते हुए नस्य देन से कम्पसहित पक्षाघात ( अर्धांगवात ) , अर्दित ( लकवा ) , मन्यास्तम्भ और अबबाहुक रोग नष्ट हो जाते है ।।२२२-२२४।।
                                                 अथ प्रतिमर्शस्य मात्राविषये आहे ---
प्रतिमर्श की मात्रा -- प्रत्येक नासापूट में स्नेह की दो बूँद , तीन बूँद डाले , इसको प्रतिमर्श कहते है । तर्जनी उँगली को स्नेह में दो पौरे तक डूबो कर निकाल ले , उस उँगली से जो बूँद तैल की टपके वह बिन्दूरूप मात्रा कहलाती है । इसी प्रकार आठ बून्दो से शाण नामक मात्रा होती है जिसका मर्श संज्ञक नस्य में उपयोग होता है । दो- दो बूँद की मात्रा जिस नस्य में दी जाये वह प्रतिमर्श कहलाता है ।।२२७।।
                                    अथ प्रतिमर्शस्य समयमाह---
प्रतिमर्श का समय --- विद्वानों ने प्रतिमर्श नस्य देने के निम्न चौदह समय कहे है ---
१- प्रभात काल , २- दातौन के पश्चात , ३- घर से निकलते समय , ४- व्यायाम करने के बाद , ५- मार्ग चलकर आने के पश्चात , ६- मैथुन के बाद ,७- मल त्यागने के बाद , ८- मूत्र त्याग के बाद , ९- अञ्जन लगाने के बाद , १०- कवल खाने के बाद , १२- भोजन के बाद , दिन में सोने के पीछे , १३- वमन करने के पीछे , १४- सायंकाल।।२२८-२३०।।
कुछ छींक आ जाने पर नाक में डाला हुआ पदार्थ यदि मुख में आ जाये तो जानना चाहिए कि प्रतिमर्श की उचित मात्रा हो चूकी है । नाक से मुख में आये पदार्थ को पीना नहीं चाहिए बल्कि तुरन्त थूक देना चाहिए ।।२३१-२३२।।
प्रतिमर्श के विषय तथा गुण -- क्षीण , प्यास तथा मुख शोथ से व्याकुल रोगी , बालक तथा वृद्ध को प्रतिमर्श हीतकर होता है । प्रतिमर्श के उपयोग करते रहने से उर्धव जत्रुगत रोग नहीं उत्पन्न होते है, देह में झुरियो का पड़ना तथा पलित का नाश होता है और इन्द्रियों की शक्ति उत्तम होती है ।।२३३।।
बेहडा , नीम , खंभार , हरड़ , लिसोडा और मालकंगनी में से हर एक पदार्थ के तैल का नस्य लेने के अभ्यास से अवश्य पलित ( अकाल में बालों का श्वेत होना ) नष्ट हो जाता है ।।२३४।।
नस्य की सामान्य विधी -- वायु तथा धूल से रहित प्रदेश में दातौन कराने के पश्चात धूम्रपान करने से विशुद्ध होने के पीछे , कपाल तथा गले को स्वेदित कराने के बाद चित सुलाकर मस्तक को कुछ नीचा कर दे तथा हाथ और पैरों को लम्बा फैलवा दें तत्पश्चात नेत्रों को वस्त्र से ढककर नाक की नोक को ऊँची करके वैद्य रोगी को नस्य देवें ।।२३४-२३७।। सुवर्ण अथवा चाँदी की चम्मच , कपड़े या किसी यंत्र से या रूई के फ़ाहे से बीच में धार न टूटे इस प्रकार कुछ गरम नस्य नाक में डालें ।।२३८।। नस्य जिस नाक में डाला जाता है उस समय रोगी को सिर हिलाना क्रोध करना , किसी से बोलना , छींकना तथा हँसना वर्जित है । क्योंकि ऐसा करने से नस्य भीतर नहीं पहुँचता और कास, प्रितिश्याय , सिरशूल तथा नेत्रपीडा उत्पन्न हो जाती है ।।२३९-२४०।। नस्य को श्रृड्गाटक पर्यन्त पहुँच जाने तक स्थिर रखे जिससे नस्य निकल न जायें , पाँच , सात , अथवा दस गुरू अक्षरों के उच्चारण काल तक नस्य को धारण करना चाहिए तत्पश्चात बैठकर नाक से मुख में आये हुए द्रव को दाहिनी अथवा बायीं और थूक दे , किन्तु सामने न थूके ।।२४१-२४२।।

                                              नस्यदानान्तरमकर्त्वयानि कर्माण्याह---
नस्य दान के पश्चात निषिद्ध कर्म --नस्य देने के बाद मनस्ताप , धूल तथा क्रोध का त्याग , कर देना चाहिए । जब तक १०० गुरू अक्षरों का उच्चारण काल हो तब तक चित्त लेटा रहे नींद में न आयें ।।२४३।।
शिरोविरेचन के पश्चात धूम्रपान करना चाहिए या कवल खाना चाहिए यह हीतकर है । नस्य प्रयोग करने के पश्चात वैद्यकशास्त्र के चिन्तक वैद्यों को शुद्धयोग , हीनयोग , अतियोग की परीक्षा करनी चाहिए । उत्तम शुद्धि हो जाने पर शरीर में लघुता आती है ,स्रोतो के मल साफ़ होते है सिर सम्बन्धी व्याधि का नाश तथा चित् व इन्द्रियों में प्रसन्नता होती है ।।२४४-२४५।।
नस्य के अल्प प्रयोग से सिर की उत्तम शुद्धि न होने पर खुजली , शरीर में चिकनापन तथा गुरूता होती है और स्रोतो में कफ बढ़ता है ।।२४६।।
यदि शुद्धि का अतियोग हो गया हो तो नासिका से सिर की वसा गिरने लगती है और वात की वृद्धि , इन्द्रियों का अपने- अपने विषय को ग्रहण न करना और मस्तक का शून्य हो जाना ये सब होते है ।। २४७।।
नस्य के हीनयोग तथा अतियोग की चिकित्सा -- यदि नस्य का हीन योग तथा अति योग हो तो कफ- वाताघ्न और केवल नस्य का हीन योग हुआ हो तो वाताघ्न उपचार करना चाहिए यदि रेचन नस्य से सिर बहुत शून्य हो गया हो तो फिर गाय के घी का नस्य देना चाहिए । स्नेहन नस्य से सिर बहुत स्निग्ध हो गया हो तो कफ का स्राव होता है , सिर में गुरूता तथा इन्द्रियों में भ्रम होता है , यदि इस प्रकार अतिस्निग्ध के लक्षण प्रतित होते हो तो रूक्ष पदार्थों का नस्य देना चाहिए । अभिष्यन्दी पदार्थों का सेवन न करे तथा वावर्धक क्रियाओं का नस्य में उपयोग करें ।।२४८-२४०।।
                                                    ।।।।पञ्चकर्मविधिप्रकरणम् समाप्तम् ।।।


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