Friday, 26 February 2021

पञ्चगव्य :-5-

पञ्चगव्य :-5-

#- गलगण्ड - सरसों , नीम के पत्ते , सहजन के बीज , अलसी , जौ तथा मूलीबीज को गौ-तक्र ( गाय के दूध से बनी खट्टी छाछ ) में पीसकर गले में लेप करने से गलगण्ड में लाभ होता है ।

#- हृद्रोग , क्षतज श्वास,खाँसी , व वीर्यवृद्धि- पिप्पल्यादि लेह में मधु तथा गौघृत मिलाकर प्रतिदिन सेवन करने से क्षतज-श्वास खाँसी , हृद्रोग तथा कृशता दूर होकर वीर्य की वृद्धि होती है।

#- गुल्म रोग - गुल्म रोगी में यदि पुरीष तथा अधोवायु का अवरोध हो तब जौ से बनाए खाद्य पदार्थों में अधिक मात्रा में स्नेह एवं लवण मिलाकर गाय के दूध के साथ सेवन करने से लाभ होता है।

#- उदरशूल - जौ के आटे में जौ की क्षार एंव गौ-तक्र मिलाकर पेट पर लेप करने से उदरशूल का शमन होता है।

#- विसर्प रोग ( यह त्वचा का संक्रामक रोग है जिसमें त्वचा पर संक्रमण होकर लाल चकत्ते हो जाते है , इनमें भंयकर पीड़ा होती है।) - समभाग जौ तथा मुलेठी से बना कल्क में गौघृत मिलाकर विसर्प पर लेप करने से लाभ होता है। विसर्प रोगी को आहार में फालसा , अंगूर , आदि से सिद्ध जल में जौ का सत्तू तथा गौघृत मिलाकर अवलेह ( हलवा ) बनाकर सेवन करना चाहिए तथा जौ के सत्तू में गौघृत मिलाकर लेप करना विसर्प मे हितकर होता है ।
#- व्रण - समभाग जौ , मुलेठी तथा तिल के चूर्ण में गौघृत मिलाकर गुनगुना करके घाव पर लेप करने से व्रण का रोपण होकर ठीक होता है।

#- व्रण - पीडायुक्त , कठिन , स्तब्ध तथा स्राव-रहित घाव पर गौघृत युक्त जौ के आटे का बार- बार लेप करने से घाव में मृदुता उत्पन्न होकर रोपण होता है।

#- रक्तपित्त - गौघृत युक्त जौ के सत्तू को पानी में घोलकर , मथकर सेवन करने से अत्यधिक प्यास , जलन दाह , तथा रक्तपित्त में लाभ होता है।

#- ज्वरदाह, दौर्बल्य - जौ को गोदूग्ध में पकाकर , इसमें धागामिश्री तथा शहद मिलाकर सेवन से ज्वर दाह, तथा दौर्बल्य मे लाभ होता है।

#- मूत्र- विकार - पक्व तरबूज़ , फल-स्वरस में समान मात्रा में गो- तक्र ( छाछ) तथा स्वादानुसार लवण मिलाकर सेवन करने से पित्तज विकार , पीलिया , पूयमेह , मधुमेह , तथा मूत्राशय विकारों में लाभ होता है ।

#- पित्ताभिष्यंद - ताड़ वृक्ष ( ब्राब ट्री ( Brab tree ) की नवीन नवीन ( ताज़ी ) ताड़ी से सिद्ध किए हुए गौघृत की 1-2 बूँदों को नेत्रों में डालने से पित्ताभिष्यंद में लाभ होता है।

#- क्षयज- कास - क्षयज- कास के रोगी को मूत्रविवर्णता अथवा मूत्रकृच्छ ( मूत्र त्यागने में कठिनता ) हो जायें तो विदारीकन्द , कदम्ब तथा ताड़ फल के क्वाथ एवं कल्क से सिद्ध किये हुए गोदूग्ध व गौघृत का सेवन प्रशस्त है।

#- कर्णशूल - बिजौरा नींबू , दाड़िम ( अनार ) तिन्तिडीक स्वरस तथा गौमूत्र से सिद्ध तैल को कान में 1-2 बूँद डालने से कर्णशूल का शमन होता है ।

#- अतिसार - तिन्तिडीक त्वक चूर्ण पोटली बनाकर , जल में भिगोकर पोटली से नि:सृत जलीय - तत्व को गो- दधि मे मिलाकर सेवन करने से अतिसार का शमन होता है।

#- अर्श - त्र्यूषणादि चूर्ण को मात्रानुसार गो-दधि , मद्य , या उष्ण जल के साथ सेवन करने से अर्श ग्रहणी , शूल , अनाह आदि रोगों का शमन होता है।

#- रक्तपित्त - शतावर्यादि गौघृत का सेवन करने से कास , ज्वर , अनाह , विबन्ध , शूल तथा रक्तपित्त का शमन होता है।

#- हिक्का - जामुन तथा तिंदुक के पुष्प और फल के 1-3 ग्राम कल्क में मधु तथा गौघृत मिलाकर खिलाने से बच्चों की हिचकियाँ रूक जाती है।

#- सूर्यावर्त - गोदूग्ध मे तिल को पीसकर वेदनायुक्त स्थान पर लगाने से या मस्तक पर लगाने से सूर्यावर्त नामक शिरोरोग में लाभ होता है।

#- रसायन वाजीकरण - रसायन - एक वर्ष तक 5 ग्राम तिनिश त्वक कल्क या स्वरस को गोदूग्ध के साथ प्रात: काल पीने से या मधु, या गौघृत मिलाकर चाटने से , ओर केवल गोदूग्ध व भात का भोजन करने से ज़रा व्याधि रहित दीर्घ जीवन प्राप्त होता है।

#- तिल के पुष्प तथा गोक्षुर को बराबर लेकर गौघृत तथा मधु में पीसकर सिर पर लेप करने से गंजापन तथा रूसी दूर होती है।

#- अर्श - तिल को जल के साथ पीसकर गाय के दूध से बने मक्खन के साथ दिन में तीन बार भोजन से 1 घन्टा पहले खाने से अर्श में लाभ होता है तथा रक्त का निकलना बन्द हो जाता है।

#- पथरी - तिल पुष्पों के 1-2 ग्राम क्षार में 2 चम्मच मधु और 250 मिलीग्राम गोदूग्ध मिलाकर पिलाने से पथरी गलकर बाहर आ जाती है।

#- पूयमेह , मूत्रदाह - तिल के ताज़े पत्तों को 12 घन्टों तक पानी में भिगोकर उस पानी को पिलाने से अथवा तिल के 1-2 ग्राम क्षार को गोदूग्ध व शहद के साथ देने से पूयमेह में लाभ होता है तथा मूत्रदाह का शमन होता है।

#- वाजीकरण रसायन- रसायन - काले तिल और जल भांगरे के पत्तों को लगातार एक मास तक सेवन करने से जरावस्थाजन्य विभिन्न प्रकार के रोग मिटते है तथा भोजन मे केवल गोदूग्ध का ही सेवन करे।

#- विषमज्वर - तिल की लूगदी को गौघृत के साथ लेने से विषमज्वर में लाभ होता है ।

#- सुर्यावर्त रोग- तिल को गोदूग्ध मे पीसकर मस्तक पर लेप करने से सूर्यावर्त शिरोरोग मे लाभ होता है।

#-शिरोरोग - तीखुर ( एण्डियन ऐरोरूट Indian arrowroot ) तीखुर आदि द्रव्यों से विधीपुर्वक निर्मित महायूर गौघृत का सेवन करने से अर्दित , धातु- विकार , कास, श्वास, योनिरोग , शिरोरोग , आदि का शमन होता है।

#- प्रवाहिका , आन्त्रव्रण - शुष्क प्रकन्द के चूर्ण को गोदूग्ध तथा मिश्री के साथ पथ्य के रूप में प्रवाहिका , आन्तरिक ज्वर , आंत्र व्रण तथा मूत्राशय व्रण की चिकित्सा में प्रयोग किया जाता है।

#- अग्निदग्ध - तीखुर , प्लक्ष की छाल , लालचन्दन, गेरू एवं गिलोय के चूर्ण को गौघृत में मिलाकर लेप करने से लाभ होता है।

#- विरेचनार्थ - अजमोदा , तवक्षीर , बिदारीकन्द , शर्करा तथा निशोथ को समान मात्रा में लेकर चूर्ण बनाकर 1-2 ग्राम चूर्ण में मधु तथा गौघृत मिलाकर सेवन करने से सम्यक् प्रकार से विरेचन हो जाता है ।

#- पित्तज विकार- तवक्षीर को गौघृत में मिलाकर सेवन करने से पित्तज- विकारों का शमन होता है।

#- उदर विकार - तीखुर भेद ( वैस्ट इण्डियन ऐरोरूट West I Indian arrowroot ) के 1 चम्मच अरारोट प्रकन्द चूर्ण में दो चम्मच गोदूग्ध मिलाकर , 500 मिली जल के साथ पकायें , फिर उसमें 250 मिली गोदूग्ध तथा थोड़ी शक्कर डालकर पकाएँ , आधा पानी जल जाने पर उतारकर ठंडा करके 125 मिलीग्राम जायफल चूर्ण मिलाकर सेवन करने से अतिसार , प्रवाहिका , अजीर्ण आदि उदरविकारो मे लाभ होता है।

#- पित्तज विकार- 1-2 ग्राम तीखुर प्रकन्द चूर्ण में 200 मिलीग्राम जल मिलाकर पकाए , फिर उसमें 250 मिलीग्राम गोदूग्ध तथा 50 ग्राम मिश्री डालकर पकाए , दूध मात्रा शेष रहने पर उतारकर सुखोष्ण ( गुनगुना ) सेवन करने से पित्तज- विकार , दाह, मस्तक शूल , नेत्ररोग तथा रक्तार्श में लाभ होता है।


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