रामबाण – 130
आढकी ( अरहर )-
अनाज रूप में सुप्रसिद्ध इस औषधि के विषय में विशेष द्रष्टव्य यही है कि अन्य कतिपय औषधियों के समान भारतवर्ष की ही यह एक खास अप्रतिम शक्तिवर्धक वस्तु है। अरहर प्राय भारत वर्ष में सभी जगह दाल के रूप में उपयोग की जाती है तथा लगभग समस्त लोग इससे परिचित है। यह मूलत दक्षिण-पूर्व एशिया में प्राप्त होती है। भारत के प्राय सभी प्रान्तों में 1800 मी की ऊँचाई तक इसकी खेती की जाती है। यह दो प्रकार की होती है-(1) एक तो वह जो प्रतिवर्ष होती है, जिसका पौधा दो या तीन हाथ ऊँचा होता है और दाल आकार में बड़ी होती है, (2) दूसरी वह जो तीन या चार वर्षों तक फूलती-फलती रहती है। इसका पौधा 5 से 8 हाथ तक ऊँचा बढ़ता है तथा इसका काण्ड भी काफी मोटा होता है, जो घरों के छप्पर वगैरा में लगाया जाता है। इसकी दाल आकार में छोटी होती है। उक्त दूसरे प्रकार की अरहर प्राय उत्तरप्रदेश और उत्तरी भारतवर्ष में ही होती है और प्रथम प्रकार की दक्षिण भारत में बहुलता से होती है। वर्ण भेद से श्वेत और लाल इसकी दो मुख्य जातियाँ होती है। श्वेत की अपेक्षा लाल अरहर उत्तम मान जाती है। पीली काली अरहर भी कहीं-कहीं पाई जाती है।
वानस्पतिक नाम : Cajanus cajan (Linn.) Millsp. (कैजेनस कैजन)
Syn-Cajanus indicus Spreng.
कुल : Fabaceae (फैबेसी), अंग्रेज़ी नाम : Pigeon pea (पिजिन पी),संस्कृत-आढकी, तुवरी, तुवरिका, शणपुष्पिका; हिन्दी-अरहर अड़हर, रहड़, तूर; उर्दू-अरहर (Arhar, अंग्रेजी-कैटजंग पी (Catjang pea) नो आइ पी (No eye pea), रेड ग्राम (Red gram) कांगो पी (Congo pea); भी कहते है |
गुण - आढ़की मधुर, कषाय, शीत; लघु, रूक्ष, कफपित्तशामक, किञ्चित् वातकारक, ग्राही, विबन्धकारक, आध्मान-कारक तथा विष्टम्भी होती है। अरहर मेद, मुखरोग, व्रण, गुल्म, ज्वर, अरोचक, कास, छर्दि, हृद्रोग, रक्तदोष, विष प्रभाव तथा अर्श नाशक है। आढ़की के पत्र गुरु, त्रिदोषशामक, ग्राही तथा कृमिघ्न होते हैं। घृतयुक्त आढ़की वातशामक होती है। आढ़की का लेप कफपित्तशामक होता है। आढ़की यूष दीपन, बलकारक, पित्तशामक तथा दाहनाशक होता है।
श्वेत आढ़की-दोषों का प्रकोप करने वाली, ग्राही, गुरु, पथ्य, अम्लपित्तकारक, आध्मानकार, वातपित्तकारक तथा मलरोधक होती है।
रक्त आढ़की-रुचिकारक, बलकारक, पथ्य, पित्तशामक तथा ग्राही होती है व अम्लपित्त, ताप, ज्वर, सन्ताप तथा अनेक रोगों का शमन करती है।
कृष्ण आढ़की बलकारक, अग्निदीपक, पित्तशामक, दाहनाशक, पथ्य, किञ्चित् वातकारक, कृमि तथा त्रिदोषशामक होती है।
*# - अर्धावभेदक - 5-10 मिली अरहर पत्र-स्वरस में समभाग गाय का दूध या दूर्वा स्वरस मिलाकर 1-2 बूँद नाक में डालने से आधासीसी की वेदना का शमन होता है।
*# - आंख रोग - आढ़की मूल को पानी में घिसकर आँखों में अंजन करने से नेत्र रोगों में लाभ होता है।
*# - मुख-प्रदाह - आढ़की पत्र तथा पुष्पों का क्वाथ बनाकर गरारा करने से मुखदाह तथा जिह्वा दाह तथा मुखपाक आदि का शमन होता है।
*# - मुहं के छालें - अरहर के कोमल पत्तों को चबाने से मुख के छाले दूर होते हैं तथा मसूड़ों की सूजन में लाभ होता है।
*# - कण्ठशोथ - आढ़की पत्र-स्वरस को गर्म कर या इसकी छाल को पानी में भिगोकर कुछ गुनगुना करके गरारा करने से कंठ की सूजन का शमन होता है।
*# - वक्षगत विकार - इसकी कलियों तथा हरी फलियों को पीसकर छाती पर लेप करने से छाती से संबंधित रोगों में लाभ होता है।
*# - अतिस्तन्य स्राव - आढ़की बीज एवं पत्रों के कल्क को स्तनों पर लेप करने से यह अतिस्तन्य स्राव (Excessive lactation) को रोकता है।
*# - हिचकी - अरहर की भूसी को हुक्के में रखकर पीने से हिचकी बन्द हो जाती है।
# - कामला-प्रतिदिन प्रातकाल 1-2 ग्राम आढ़की पत्रों को सेंधा नमक के साथ मिलाकर, पीसकर जल के साथ सेवन करने से कामला (पीलिया) में लाभ होता है।
# - वातरक्त - अरहर, चना, मूंग, मसूर तथा मोठ का यूष बना लें। 20-40 मिली यूष में घी मिलाकर पीने से वातरक्त के रोगियों में लाभ होता है।
*# - व्रण-सद्यक्षत पर आढ़की पत्र-स्वरस का लेप करने से घाव से होने वाला रक्तस्राव रुक जाता है तथा उबले हुए पत्रों का लेप करने से घाव शीघ्र भर जाता है।
*# - शोथ - शोथयुक्त स्थान पर आढ़की पत्र को पीसकर लेप करने से सूजन कम हो जाती है।
# - शोथ - अरहर की दाल को पीसकर सूजन वाले स्थान पर लेप करने से सूजन में लाभ होता है।
*# - अफीम विषाक्तता - आढ़की के पत्तों का रस पिलाने से अफीम का विष उतरता है।
प्रयोज्याङ्ग : पञ्चाङ्ग, पत्र, पुष्प तथा बीज।
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