Saturday, 7 November 2015

(४६)-२-गौ-चि०-चर्मरोग

(४६)-२-गौ-चि०-चर्मरोग

- बरूथियों द्वारा उत्पन्न खाज रोग
=====================

बरूथियों की अनेक जातियाँ पशु - पक्षियों और मनुष्यों के शरीर में त्वचा की खाज तथा उससे मिलते - जुलते अन्य रोग जैसे दाद,चम्बल ( सोरायसिस ) आदि पैदा कर देते हैं , ये चर्मरोग दो प्रकार के होते हैं ।
१- सैरकोप्टिक खाज :- यह सैरकोप्टिज स्कैबियाई जाति की बरूथियों द्वारा उत्पन्न होती हैं ।
२- सोरोप्टिक खाज :- यह सोरोप्टिज कम्यूनिस जाति की बरूथियों द्वारा उत्पन्न होती हैं ।

गो- पशुओ की खाज :- गो- पशुओ मे "सोरोप्टिक खाज " सबसे अधिक छूत की खाज मानी जाती हैं । यह पुछ की जड से लेकर सिर , कन्धों आदि तक फैल जाती हैं । इसमे खाज के दाने फैलकर एक दूसरे से मिल जाते हैं । दूसरी - " कोरिआप्टिक खाज " अथवा " सिम्बायोटिक खाज " कुछ हल्के प्रकार की होती हैं । जोकि प्राय: टखनों और पुछ के मूल भाग मे होती हैं । इसके चक्कतों पर मोटी पपड़ी जम जाती हैं । और पुछ के मूल भाग मे उपर मस्सें जैसा उभर आता हैं । तीसरे प्रकार की " सैरकोप्टिक खाज " यद्यपि बहुत कम देखने मे आती हैं किन्तु सबसे अधिक ख़तरनाक होती हैं । इसकी बरूथियाँ त्वचा मे गहरी घुसकर वहाँ पर टढी- मेढी सुरंगें सी बना देती हैं और उन्हीं मे वह अपने अण्डे देती हैं । । यह खाज शरीर के ऐसे भागो मे होती हैं । जहाँ पर बाल या रौंये नही होते हैं । इससे प्रभावित त्वचा अत्यन्त मोटी व झुर्रीदार हो जाती हैं तथा वहाँ पर सूखी पपड़ियाँ जम जाती हैं और खरौंच ( खुरन्ड ) सी जम जाती हैं । चौथी प्रकार की " फौलीक्यूलर खाज " प्रय: छोटी आयु के पशुओं मे कभी- कभी देखने मे आती हैं । इसे " डोमोडेक्टिक खाज " भी कहते हैं ।इसमे पशु के शरीर पर मटर के दाने के बराबर गाँठें सी पड़ जाती हैं तथा उनमे भूरे रंग का पीव - सा भरा रहता हैं ।

बरूथियों द्वारा उत्पन्न पशुओं की खाज चिकत्सा व रोकथाम के सरल उपाय
==================================================

(१)-यदि खाज शरीर के थोड भाग मे होतों उतने ही आक्रान्त स्थान पर लगाकर साफ-सुथरी कीटाणु रहित पट्टी बाँध देनी चाहिए । यदि खाज पशु के समस्त शरीर मे हो तो ऐसे रोगी पशु को दवाओं से युक्त पानी से स्नानकरान करवाकर सारे शरीर पर उचित खाजनाशक मरहम लगाना चाहिए ।
(२) - अन्य स्वस्थ पशुओं को खाज रहित खाजग्रस्त रोगी पशु से अलग रखना चाहिए । ताकि अन्य पशुओं को छूत न लगे ।
(३) - रोगी पशुओं के शरीर से उतरने वाले खुरन्ड व पपड़ियाँ इकट्ठा करके उपलो के साथ जलाकर नष्ट कर देनी चाहिए ।
(४)- गो- पशुओं भैड-बकरियों आदि की सोरोप्टिक तथा सोरोप्टिक खाजों को दूर करने के लिए आमतौर पर गन्धक का मलहम और गन्धक का तैल विशेष कारगर सिद्ध होता हैं ।
# - गन्धक का तैल बनाने के प्रकार --

(५) - गन्धक का खाजनाशक मरहम :- गन्धक २ भाग , पौटेशियम कार्बोनेट १ भाग , सुअर की चर्बी ८ भाग लेकर सभी को घोटकर मरहम बना लें किसी साफ़ - स्वच्छ चौड़े मूंह वाली शीशी मे भरकर रख दें ,और यथा समय उपयोग में लायें ।

(६) - गन्धक का खाजनाशक तैल :- गन्धक का पावडर ढाई पौण्ड अलसी का तैल एक गैलन , इन दोनों को मिलाकर किसी साफ़ सुथरी शीशी मे भरकर ढक्कन लगाकर सुरक्षित रखना चाहिए और यथा समय लगाना चाहिए ।

(७) - चूने और गन्धक के पानी से खाजग्रस्त पशु को नहलाना चाहिए , यह भी लाभदायक सिद्ध होता हैं । इस हेतू १०० गैलन पानी में १२ पौण्ड बुझा हुआ चूना और २४ पौण्ड गन्धक का चूर्ण मिलाकर पशु को स्नान कराने हेतू पानी तैयार करना चाहिए ।

(८) - कोरिआप्टिक खाज की चिकित्सा हेतू :- मिट्टी का तैल और अलसी का तैल , दोनो को बराबर मात्रा मे मिलाकर पशु को आक्रान्त भाग पर लगाना भी लाभदायक सिद्ध होता हैं ।

(९) - प्रोटोडेक्टिव खाज :- पशु के कान मे ग्लिसरोल में १०% आयोडीन घोलकर इन्जैकशन लगाने से बहुत जल्दी लाभ होता हैं । इसके लिए तरल पैराफिन में तैयार किया गया बी. एच . सी . आइसोमर के ०.१% घोल से अथवा ज़ैतून के तैल ( Oliv Oil ) में १ % रोटेनन के घोल से इलाज करना भी लाभकारी सिद्ध होता हैं । ये दवाएँ रोगी पशुओं के कान साफ़ करके ड्राप्स मे दवा भरकर डालनी चाहिए ।

(१०) - उपरोक्त दवाओं के अतिरिक्त :- रोगी पशु को प्रतिदिन खरैरा करकें नहलवायें तदुपरान्त उसकी त्वचा को अच्छी तरह से रगड़कर पोंछना चाहिए , खाज़ के चक्कतों के मवाद, पपड़ी आदि को कूडेकचरे के साथ समेंटकर जला देना , अथवा गड्ढा खोदकर गहरा दबा देना चाहिए । गरमपानी व ब्लौ लैम्प या कीटनाशक दवाओं की मदद से उन बरूथियों को नष्ट कर देना चाहिए । और पशुओं की त्वचा के लिए पौष्टिक आहार खिलाना चाहिए । फफोलों वाली डोमोडेक्टिक खाज के केश में " औटोजिनस " के टाँके लगवाना भी अच्छा रहता हैं ।सभी प्रकार की सावधानियाँ रखते हुए रोगी पशु का ठीक पर्कार से समुचित इलाज शीघ्र ही करना चाहिए । अन्यथा यह रोग भी पशुओं मे हानिकारक सिद्ध होता हैं ।




२ - तिला रोग
============

कारण व लक्षण - यह रोग अक्सर बैल या भैंस को होता है, इस रोग मे पशु की साँसें अधिक चलती हैं और रोगी पशु दिन - प्रतिदिन दूबला होता जाता हैं तथा उसके शरीर का रंग बदल जाता हैं । भूख कम लगती हैं ,और गले मे साँसों के साथ घुरघुराहट होती रहती हैं ।
१ - औषधि - काला तिल, सोंठ ,सफ़ेद मूसली , और मिश्री प्रत्येक २५०-२५० ग्राम लेंकर सभी को कुटपीसकर आवश्यकतानुसार गाय का घी मिला लें । ढाई सेर गेहूँ रात में भिगों दें और प्रात: कुटवाकर सबको मिला लें और इन सबकी १५ गोली बनाकर पशु को सेवन करायें । यह लाभप्रद होता हैं ।
२ - औषधि - नीम के पेड़ का निकला हुआ रस ( निबावट ) आधा लीटर प्रतिदिन ८ दिनों तक निरन्तर सेवन कराना भी गुणकारी है।यह बड़े पशु की मात्रा हैं ,छोटे पशुओं की मात्रा उनकी आयु , वज़न व रोग दशानुसार कम कर दें ।
३ - औषधि - बहुत अधिक दिनों तक रोगी पशु को प्याज़ खिलाते रहना भी इस रोग में लाभप्रद होता हैं ।

३ - बोदी अथवा ओदी रोग
====================
यह रोग प्राय: पशुओं के बच्चों में होता हैं । गन्दगी ही इस रोग के पैदा होने का मुख्य कारण हैं । पशु के दुर्बल होने पर भी यह रोग हो जाता हैं । रोगी पशु के बाल झड़कर खुजली की तरह गिरने लगते हैं और उनका चमड़ा लाल हो जाता हैं ।
१ - औषधि - नीम की पत्ती के उबले हुए पानी या फिटकरी के पानी से धोना चाहिए । इस प्रयोग से शीघ्र ही अत्यन्त लाभ होता हैं ।

टोटका :- मंगल या रविवार को , माटी चिकनी लेय ।
क्वारी कन्या विप्र की , पोत सकल तन देय ।।
इस प्रयोग से भी लाभ होते देखा गया हैं ।


Sent from my iPad

No comments:

Post a Comment