(२९)-गौ- चि०-१- बुखार ।
१ - फेफड़ों का बुखार ( Contagious Pleuro Pneumonia )
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कारण व लक्षण - फेफड़ों का ज्वर प्लूरो निमोनिया की भारत देश के असम प्रान्त मे ही देखने को मिलती हैं , किन्तु संसार मे यह रोग व्यापक रूप से विद्यमान हैं । यह भी एक प्रकार का छूत रोग ही हैं जो कि अन्य स्वस्थ पशुओं मे रोगी पशु की छूत से तीव्रता से से फैलता हैं । यद्यपि यह रोग बहुत धीरे- धीरे बढ़ता हैं । किन्तु रोगी पशु को रोगमुक्त होने में कभी- कभी काफी समय ( महीनों ) लग जाता हैं ।
कारण व लक्षण :- यह रोग " बीवीमाइसीज प्लूरो निमोनिया " के जीवाणु समूह के एक अतिसूक्ष्म जीवाणु द्वारा उत्पन्न होता हैं । यह जीवाणु गौ - पशुओं के अतिरिक्त अन्य पशुओं में- यह रोग पैदा नही करता हैं । आमतौर पर यह रोग - रोगी पशु के श्वास द्वारा अन्य स्वस्थ पशुओं को लग जाता हैं , क्योंकि जो जीवाणु रोगी पशु की श्वास के साथ बाहर निकलते हैं , वे हवा द्वारा अन्य पशुओं के श्वास में चले जाते हैं , इसके अतिरिक्त रोगी पशु की नाक से बहने वाला पानी तथा लार आदि भी रोगाणु फैलाने में सहायक होते हैं ।
इस रोग की सामान्यवस्था के रोग लक्षण लगभग एक महीने में प्रकट होते हैं , जबकि उग्रावस्था के रोग लक्षण प्रकट होने में मात्र एक सप्ताह का ही समय लगता हैं । इस रोग मे सर्वप्रथम रोगग्रस्त पशु को तीव्र ज्वर होता हैं और निमोनिया के लक्षण दृष्टिगोचर होने लगते हैं और शीघ्र ही पशु को श्वास लेने में कठिनाई अनुभव होने लगती है । श्वास रूक जाने के कारण प्राय: रोगी पशु की मृत्यु भी हो जाती हैं । पशु चारा, दाना,खाना व चरना और जूगाली करना बन्द कर देता हैं तथा उसकी छाती मे दर्द होता हैं । और उसे सूखी खाँसी का ठसका भी लगता हैं । इस प्रकार निमोनिया तथा प्लूरिसी रोगों के मिलेजुले लक्षण इस रोग मे प्रकट होते हैं जोकि फेफड़ों पर अँगुलियाँ रखकर बजाने से स्पष्ट प्रतीत होते हैं । इस रोग में फेफड़ों तथा छाती में एक प्रकार का तरल पदार्थ - सा जमा हो जाता हैं । पशु हर समय गर्दन व सिर लटकायें हुए सुस्त - सा खड़ा रहता हैं तथा उसकी नाक से हर समय पानी बहता रहता हैं ।
मन्दावस्था वाले पशु धीरे-धीरे कमज़ोर होकर लगभग दो महीने में मर जाता हैं । मध्यमावस्था वाले पशु रोग में २ या ३ सप्ताह में पशु की मृत्यु हो जाती हैं तथा उग्रावस्था के रोग में पशु एक सप्ताह में ही मर जाता हैं । जो रोगग्रस्त पशु बच भी जाते हैं - वे दीर्घकाल तक दुर्बल बने रहते हैं तथा उनको खाँसी भी बनी रहती हैं और खाँसी एवं श्वास के द्वारा वे रोग के कीटाणु फैलाते रहते हैं । इस रोग को हमारे देश के विभिन्न प्रान्तों में धस्का , धाँस, फिफडी , फेफड़े का निमोनिया तथा मरी आदि नामों से पुकारा जाता हैं
१ - औषधि - कपूर १ तौला , तारपीन तेल १ छटांक , अलसी का तेल १२५ ग्राम , इन तीनों को मिलाकर पशु के सीने पर इस तेल की मालिश करें तथा थोड़ा- सा मिश्रण पिला भी दें , इस प्रयोग से पशु को तुरन्त आराम आ जायेगा ।
२ - औषधि - तारपीन तैल १ भाग , तिल का तैल १० भाग , दोनो को आपस मे मिलाकर पशु की छाती पर मालिश कर ना चाहिए यह लाभकारी सिद्ध होगा ।
३ - औषधि - नीम के पत्ते , युकलिप्टस के पत्ते , मरूवा तुलसी के पत्ते , सभी के पत्ते २५०-२५० ग्राम लेकर तीन किलो पानी मे १० ग्राम तारपीन तेल डालकर पकायें , ख़ूब उबालें और इस पानी की भाप से रोगी पशु के मुँह पर भपारा देंवें जिससे श्वास द्वारा पशु के फेफड़े में पहुँचने से शीघ्र लाभ प्राप्त होता हैं । सुबह- सायं दिन में २ बार तीन- चार दिन यह प्रयोग करें । इस बात का ध्यान रखें कि यह क्रिया बन्द स्थान में करें , जहाँ कि भाप देते समय या उसके तुरन्त बाद पशु को ठण्डी हवा सीधी न लगें ।
४ - औषधि - उपर्युक्त क्रिया की ही भाँति लोबान और गुगल को आग में जलाकर उसकी धूनी पशु के मुँह पर देना भी लाभकारी हैं । यह धूआँ श्वास द्वारा पशु के फेफड़ों में पहुँच कर फेफड़ों में जमा बलगम तथा जकड़न को दूर करता हैं । यह क्रिया भी ठण्डी हवा से बचाव रंखकर दिन मे २-३ बार प्रतिदिन करनी चाहिए । इस प्रयोग से फेफड़ों की सूजन उतर जाती हैं ।
५ - औषधि - यदि रोगग्रस्त पशु को खाँसी का ठस्का अधिक उठता है तो - कपूर ३ माशा , कलमीशोरा ६ माशा , मुलहटी १ तौला , अलसी ढाई तौला , कालीमिर्च ६ माशा , गन्ने की राब या शीरा पाँच तौला , सबसे पहले सूखी चीज़ों को पीसकर चूर्ण बना लें और फिर सभी को राब या शीरा में मिलाकर पशु को दिन में २-३ बार चटायें । इस दवा को ३-४ बार चटाने से ही खाँसी दूर हो जायेगी ।
यदि पशु को क़ब्ज़ भी हो और वह गोबर सामान्य ढंग से न करता हो तो सर्वप्रथम उसकी क़ब्ज़ दूर करने का प्रयास करना चाहिए । इस हेतू निम्न योग का प्रयोग परम लाभकारी होगा ।
६ - औषधि - सेंधानमक आधा पाव , पिसाहुआ गन्धक डेढ़ छटांक , पिसी हुई सौँफ १ तौला , सब या शीरा डेढ़ छटांक , गरमपानी आधा लीटर - इन सबको मिलाकर पशु को पिला दें । एक या अधिक से अधिक २ बार पिलाने से ही पशु को साफ़ दस्त आकर क़ब्ज़ दूर हो जायेगी ।
चूँकि इस रोग में पशु को तेज ज्वर हो जाता हैं । इसलिए बुखार की तेज़ी कम करने तथा बुखार अधिक न बढ़ने देने के लिए निम्नांकित योग लाभकारी हैं -
७ - औषधि - कपूर ९ माशा , कलमीशोरा ९ माशा , धतुरे के बीज पीसे हुऐ ९ माशा , देशी शराब ढाई तौला और पानी १ लीटर लें । पहले कपूर को देशी शराब में घोलें । तदुपरान्त कलमीशोरा को पानी में घोल लें । पहले कपूर को देशी शराब में घोलें तदुपरान्त कलमीशोरा को पानी मे घोल लें ओर उक्त दोनों घोलो को आपस मे मिलाकर उसमे धतुरे के पीसे हुए बीज मिला दें । यह दवा थोड़ी- थोड़ी करके पशुओ को दिन भर में ३-४ बार पिलायें । यह योग छाती मे जमे हुए कफ ( बलगम ) को निकालेगा , बुखार की तीव्रता को कम करेगा और रोगी पशु की शारीरिक शक्ति को क्षीण नही होने देगा । साधारण निमोनिया में यह योग लाभकारी हैं ।
आलोक- इस रोग से पीड़ित दूधारू पशु का दूध पीने हेतू कदापि उपर्युक्त नही होता हैं । अत: यथासम्भव दूध प्रयोग में न लायें । उसका घी तैयार करके प्रयोग किया जा सकता हैं । रोगी पशु को हवा तथा सर्दी से भी पूर्णरूपेण बचायें ।( किसी बन्द स्थान में झूल आदि डालकर रखें )
परहेज़ - हल्की , सुपाच्य तथा दस्तावर चींजे रोगी पशु को चिकित्सा काल में खाने को देना चाहिए । जैसे दलिया , चोकर, चाय , दूध, आदि , पानी गुनगुना पिलायें ।
२ - साधारण ज्वर
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कारण व लक्षण - साधारणतया: खाद्य पदार्थों की गड़बड़ी , क़ब्ज़ ,अचानक मौसम परिवर्तन , अत्यधिक भीगने पर , मच्छर आदि के काटने पर तथा अन्य कई कारणों से पशुओं को भी ज्वर हो जाता हैं । इनके अतिरिक्त अन्य कई बिमारियों के कारण भी पशुओ को ज्वर आ जाता है साधारण प्रकार के पशुओ में ज्वर के लक्षण निम्न प्रकार के हैं --
ज्वरग्रस्त होने पर पशु का शरीर गर्म हो जाता हैं , रोगी पशु के बाल खडे हो जाते हैं तथा उसकी श्वास की गति तेज हो जाती हैं । पशु थर- थर काँपने लगता हैं और अपने कानों को नीचे लटका देता हैं तथा जूगाली करना बन्द कर देता है । पशु सुस्त रहने लगता हैं , और उसके पेशाब का रंग बदल जाता हैं ।
१ - औषधि - बुखार मे पशु को ठन्डी हवा से बचाकर सुरक्षित स्थान पर रखें तथा उसके शरीर पर झोल ( झूल यानि गरम कपड़ा ) आदि डाल दें , क़ब्ज़ को दूर करने के लिए हल्का जूलाब दें , ताकि पेट साफ़ हो जाये । तदुपरान्त निम्नलिखित योगों की प्रयोग करना चाहिए ।
२ - औषधि - कपूर ३ माशे , कलमीशोरा १ तौला - इन दोनो को १ छटाक देशी शराब मे घोलकर तदुपरान्त आधा किलो गुनगुने शीरे के घोल मे मिलाकर रोगी पशु को पिलायें ।
३ - औषधि - द्रोणपुष्पी ( गुम्मा ) घास के फूल १ छटाक, कालीमिर्च १ तौला , को आधा लीटर गुनगुने पानी मे घोटपीसकर गुनगुना करके पिलायें ।
४ - औषधि - कलमीशोरा डेढ़ तौला , सैंधानमक ढाई तौला , चिरायता ढाई तौला,आधा पॉव राब या शीरे मे मिलाकर पिलाये । यदि राब या शीरा न हो तो आधा लीटर गुनगुने पानी मे मिलाकर पिलायें ।
५ - उपचार - ज्वरक्रान्त रोगी पशु को ऐसे स्थान मे रखना चाहिए , जहाँ अधिक हवा न लगे तथा नीचे लिखी दवाओं मे से सुविधानुसार दवा लेकर उपचार शुरू करें ।
६ - औषधि - गाय का घी १ पाव , कालीमिर्च पावडर १ छटांक , मिर्च को घी मे मिलाकर पशु को पिलाना चाहिए यह लाभकारी सिद्ध होता हैं ।
७ - औषधि - धतुरे की जड की छाल १० ग्राम ,कालीमिर्च ४० ग्राम , दोनो पिसकर आधा किलो पानी मे मिलाकर गरम करके पिलाना हितकर होता होता हैं ।
८ - औषधि - चिरायता आधा छटांक व गुड आधा किलो दोनो को एक लीटर पानी मे डालकर पकाये जब पानी आधे से अधिक जल जायें तब इसे छानकर रोगी पशु को गुनगुना करके पिलाये यह गुणकारी होता हैं ।
९ - औषधि - नमक अजवायन कालीमिर्च , सोंठ , चिरायता , प्रत्येक औषधि १०-१० ग्राम लेकर चावल के माण्ड के साथ मिलाकर रोगी पशु को तीन दिन तक पिलायें ।
१० - औषधि - बेल की पत्तियाँ ( बिल्वपत्र ) अदरक , गुडुची ( गिलोय ) पारिजात ( हारश्रगाँर ) के पत्ते तुलसी की पत्तियाँ ,गुड १ पाँव , पानी एक किलो लेकर सभी को मिलाकर पकाये जब आधा पानी रह जाये तो छानकर गुनगुना ही पशु को पिलाये ।
११ - औषधि - गुम्मा ( द्रोणपुष्पी ) एक छटाक , कालीमिर्च एक तौला , आधा किलो पानी मे मिलाकर सेवन कराये । गुणकारी होता हैं ।
# - परहेज़ - रोगी पशु को खाने मे माण्ड मे नमक मिलाकर देना चाहिए तथा पीने के लिए स्वच्छ जल देना होगा ।
३ - अढैया ( शीत ज्वर )
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कारण व लक्षण - मनुष्यों की भाँति पशुओ को भी बुखार आता हैं , भैंस व बैल का नार्मल ताप १०१ डिग्री फारेहनहाइट होता हैं। इससे अधिक होने पर पशु को बुखार का रोगी समझा जाता हैं । शीत ज्वर मे पशु के मुख का भीतरी भाग गरम नाड़ी की गति तीव्र हो जाती हैं तथा पशु के रोयें खडे हो जाते हैं । पेशाब , आँखें , नाक इत्यादि लाल वर्ण के हो जाते हैं तथा खाने मे अरूचि व प्यास ज़्यादा लगती हैं । पशु जूगाली करना भी बन्द कर देता हैं ।
ध्यान देने योग्य बात यह हैं कि ज्वर कभी - कभी अन्य रोगों के साथ भी आता हैं । जैसे - खूरपका रोग के साथ , ऐसे रोगों का वर्णन उन रोगों के साथ ही किया गया हैं ।
अढैया ज्वर को शीत ज्वर के नाम से भी जाना जाता हैं । यह ज्वर अढ़ाई घन्टे , अढ़ाई पहर तक या अढ़ाई दिन तक रहता हैं , इसी कारण इसे अढैया ज्वर कहते है । सामान्य ज्वर अथवा अढैया बुखार एक साध्य रोग हैं । इस बुखार उपर लिखे गये लक्षणो के अतिरिक्त पशु के शरीर का ताप बढ़ जाता हैं । बारी - बारी से रोगग्रस्त पशु के चारों पैर लँगडे हो जाते हैं । कभी - कभी तो पशु का सर्वांग लँगड़ा हो जाता हैं । यह अवस्था अल्पकाल तक रहती हैं ।
१ - औषधि - गाय का घी आधा पाँव , कालीमिर्च पावडर आधा छटाक मिलाकर पशु को पिलाने से लाभ होता हैं ।
२ - औषधि - चिरायता का चूर्ण आधा छटांक , गुड ८ छटांक , पानी आधा लीटर लेकर आपस मे मिलाकर गुनगुना ही पशु को पिलाने से लाभ होता हैं ।
३ - औषधि - धतुरे की जड १० ग्राम , कालीमिर्च ४० ग्राम ,पानी मे पीसकर गरम करके नाल द्वारा पशु को पिलानी चाहिए ।
४ - औषधि - सोंठ , चिरायता , कालीमिर्च , अजवायन , सैंधानमक ( प्रत्येक ५-५ तौला ) लेकर चूर्ण बनाकर , चावल के माण्ड मे मिलाकर पिलाना हितकर होता हैं ।
५ - औषधि - बेलपत्र ,अदरक , पित्तपापड़ा ४०-४० ग्राम , गुड़ ५०० ग्राम , १ किलो पानी मे पकाकर गुनगुना ही रोगी पशु को पिलायें । इससे ज्वर दूर होगा ।
४ - लँगड़ा ज्वर ( बुखार ) ( ब्लैक क्वार्टर )
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कारण व लक्षण - इस ज्वर के कई नाम है जैसे लँगड़ा , लँगड़ी , गोली , चिरचिरा , फलसूजा , आदि । यह ज्वर पशु के ख़ून मे कीटाणु द्वारा विकार उत्पन्न किये जाने से होता हैं । इस ज्वर से पीड़ित पशु अन्य स्वस्थ पशुओ से अलग खड़ा दिखाई देता हैं और चलने से लँगड़ाता मालूम होता हैं , जैसे कि उसे लकवा मार गया हो , थोड़ी देर बाद ही चलते- चलते गिर जाता हैं तथा सिर को एक तरफ़ को गिरा देता हैं , पशु की पेशियाँ काली पड़ जाती हैं इसलिए इस रोग को ब्लैक लैग तथा स्यूडो एन्थैक्स भी कहते हैं । ये पेशियाँ गैस के दबाव के कारण छेददार दिखाई देती हैं । रोगी पशु के ऊत्तकों ( टिश्यूज ) मे संडे और खट्टे मक्खन की गन्ध से मिलती- जुलती खट्टी बू आती हैं तथा पेशियाँ सूख जाती हैं रोगी पशु के भीतरी अंगों मे ख़ून जमा हो जाता हैं फिर भी शत- प्रतिशत सही निदान के लिए के लिए चिकित्सक को पशु की पेशी तथा रक्त का जैविकीय तथा संवर्धन जाँच के लिए प्रयोगशाला मे भिजवा दें । उसके कान लटक जाते हैं । रोगी पशु जहाँ से लँगड़ाता है , उसके आसपास सूजन भी दिखाई देती हैं । इस सूजन को जब हाथ से दबाया जाता हैं तो कर- कर या मर- मर , बज- बज ,चर- चर की आवाज मालूम होती है इसकी सूजन पशु की पिछली जाँघ अथवा पीठ पर होती हैं । इससे पशु को तेज बुखार हो जाता हैं और उसका पेट फूल जाता हैं तथा पाखाना - पेशाब भी बन्द हो जाता हैं । यदि उसके रक्त मे विशिष्ट क्लोस्ट्रीडिया पाया जाये तो यह इस बात का प्रमाण हैं कि रोग निश्चित रूप से लँगड़ा ज्वर ( ब्लैक क्वार्टर ) ही हैं । इस रोग से ग्रसित पशु की प्राय: २४ घन्टे मे मृत्यु हो जाती हैं ।
# - उपचार - यह एक असाध्य रोग हैं । इस रोग से ग्रसित ९९% रोगी मर जाते हैं । इसकी सर्वोत्तम औषधि यदि है की इसका टीका लगवा देना चाहिए । कुछ अन्य चिकित्सकों के अनुसार नीम का तेल या कपूरादि तैल किटाणुनाशक अन्य कोई दवा सूजन वाली जगह मे चीरकर भरवा देनी चाहिए । यदि उचित समय पर समुचित चिकित्सा की जाय तो सम्भव है कि रोगी पशु का जीवन बच जायें ,
१ - औषधि - कपूरादि तैल - कपूर १ तौला , तारपीन का तैल १ छटाक और सरसों का तैल २५० ग्राम लें , इन सबको मिलाकर कपूर को तेलों के मिश्रण मे भलीप्रकार घोल लें । यह तैल रोग के कीटाणुओं को भी नष्ट कर देता हैं और छिदना के घावों पर मक्खियों को भी नही बैठने देता हैं ।
# - चीरा लगाने वाले यंत्र को लाल गरम करके पहले कीटाणु रहित कर लें उसके बाद ठंडा करके चीरा लगाये ।
२ - सूजन वाले स्थान को गरम लोहे की लाल सलाखों से दागना चाहिए इससे सभी कीटाणु मर जाते है और पशु के बचने की उम्मीद बढ जाती हैं ।
३ - इस रोग मे छेदन क्रिया या छेदना भी लाभदायक होता है , छेदना करने की विंधी इस प्रकार हैं --
पशु के गले की लटकती हूई खाल जिसे हेलुआ या गलकम्बल के नाम से जानते हैं , हेलुआ मे तेज चाक़ू या छुरी कोई एक अँगुल की चौड़ाई का छेद खाल के आर पार कर दें । किन्तु ध्यान रहे कि - जिस चाक़ू या छुरी का प्रयोग करें , उसे पानी मे खोलाकर पहले किटाणु रहित कर लें फिर ऐसा ही एक छेद पहले छेद से तीन - चार अगुँल की दूरी पर करे । अब इन दोनो छेदो मे से होकर एक मोटा डोरा ( धागा ) या घोड़े की पूछ के बालों की साफ़ डोरी बनाकर को सूजे ( सूए ) द्वारा छेद मे डालकर मज़बूती से दोनो सिरों को आपस मे बाँध दें किन्तु ध्यान रहे की बाधते समय डोरी इतनी ढिली रहे की उससे कही भी पशु की खाल न खींचें और न ही खाल दबे । अब इन छेदो पर नीम का तैल या कपूरादि तैल चपड़ दे ।ताकि मक्खियाँ न बैठे । यह कीटाणुनाशक तैल दिन मे कई बार चुपड़ते रहें । यदि घाव का अंकुर ऊँचा हो गया हो तो उस पर पिसा हुआ नीलाथोथा बुरक दें ।
यदि पशु के शरीर मे सूजन अधिक बढ जाये , फेफड़ों मे ख़ून - सा भरा प्रतित हो तथा पशु को साँस लेने मे कठिनाई प्रतित होने लगे तो उसके बचने की आशा बहुत ही कम रह जाती हैं । क्योंकि उस अवस्था मे पहुँचने पर कोई दवा प्रभावकारी सिद्ध नही होती हैं । अत: उस अवस्था से पूर्व ही निम्नलिखित योग प्रयोग किया जाये तो प्राय: रोगग्रस्त पशु के प्राण बच जाते हैं -
१ - औषधि - अलसी का तैल २५० ग्राम , पिसा हुआ गन्धक १२५ ग्राम , सोंठपावडर साढ़े बारह ग्राम , इन सब द्रव्यों को आधा लीटर गरम पानी मे मिलाकर पशु को पिलायें और जबतक पशु का पेट न चलने लगे ( दस्त ) तबतक प्रत्येक तीसरे घन्टे के बाद इससे योग का सेवन निरन्तर चालू रखे । यह योग एक प्रकार का जूलाब हैं जोकि गोबर द्वारा पशु के शरीर के अन्दर का सारा रोग ( विष ) बाहर निकल जाता है और पशु की जान बच जाती हैं ।
# - इस रोग की छूत अन्य पशुओ मे न फैले , इस हेतु दो सरल उपाय लिख रहे हैं -
२ - औषधि - नमक १० तौला , गन्धक साढ़े सात तौला , सोंठ सवा तौला - इन तीनों को पीसकर साढ़े सात तौला राब मे मिलाकर अपने सभी स्वस्थ पशुओ को चटा दें । इस प्रयोग से उन्हे इस रोग की छूत लगने का ख़तरा कम हो जायेगा ।
३ - औषधि - पानी मे थोड़ा - सा कलमीशोरा और थोड़ा - सा नमक घोलकर सब स्वस्थ पशुओ को पिलाते रहे ( ताकि यदि कभी रोग के कीटाणु उनके अन्दर पहुँच भी जायें तो तत्काल ही नष्ट हो जायें । )
५ - प्लेग
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कारण व लक्षण - इस संक्रामक रोग का प्रभाव बहुत ही तीव्र गति से होता हैं । रोगाक्रान्त पशु से अन्य स्वस्थ पशुओ को इस रोग के कीटाणु अपना शिकार तेज़ी से बनाते हैं । अत: स्वस्थ पशुओ से रोगी पशु को तुरन्त अलग करना चाहिए । इस रोग मे बुखार के साथ गिल्टी निकलकर पशु को कष्ट देती हैं ।बैल व गाय आदि पशुओ की नाक , आँख , मुँह से पानी बहना , तन्द्रा होना , रोंगटे खड़ा हो जाना , मल- मूत्रवरोधन तथा श्वसन क्रिया मे अनियमिता और अवरोध उपस्थित हो जाते हैं तथा पशु के मृत्यु कारक लक्षण प्रकट होते हैं ।प्लेग रोग का निदान तुरन्त कर लेना चाहिए अन्यथा २४ घन्टे के अन्दर ही रोगी पशु की मृत्यु हो जाती हैं ।
१ - औषधि - दशमूल , पाचन , समुद्र फेन , बुबई व तुलसी की पत्तियाँ प्रत्येक सममात्रा मे लेकर एंव काले धतुरे की कुछ पत्तियाँ पीसकर मिलाकर इसकी पुलटीश ४-५ घन्टे के अन्तर पर रोगी पशु की गर्दन पर गिल्टियों वाले स्थान पर लगाये यह लाभकारी योग हैं ।
२ - औषधि - सहजन के बीज भाँग का चूर्ण अपामार्ग ( चिरचिटा ) का चूर्ण , पीपल , अरण्डी के बीज का गूद्दा और मृगनाभि चूर्ण प्रत्येक को उचित मात्रा मे मिलाकर आवश्यकतानुसार रोगी पशु को दिन मे २-३ बार पिलाना चाहिए ।
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