(२३) -२- गौ -चि०-.गर्दनरोग-गलाघोटू । (Haemorrhagic Septicaemia or Malignant Sore Throat )
१ - गलाघोंटू या गलफुलवा ( मुँह का लकवा रोग )
( Haemorrhigic Septicaemia or Malignant Spre Throat )
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कारण व लक्षण - यह एक भयानक संक्रामक रोग हैं और इसकी छूत ( संक्रमण ) भी अन्य स्वस्थ पशुओं में तेज़ी से फैलती हैं । इस रोग को गलाघोटू अथवा हेमरेजिक सेप्टीसीमिया व विभिन्न नामों से जाना जाता हैं , जैसे - गलाघोटू , गलफुलवा , गलसा , गढरवान , गुरादा , घेघी , घटरोदन , घटरोल , घुडका , घोडवा , घुरवा , हुनका , हेलना , वासी , बाघा , बिल्वरू , बेल्लई , बुलाकी , बोमडा , जलवलिया , लडवा , घुटका , धुखा , डकहा , पसीजा ,भगौती माँढ इत्यादि ।
इस रोग से ग्रसित रोगी ८०% पशु प्राय: १२से २४ घन्टे के अन्दर ही मर जाते हैं । यह रोग प्राय: वर्षा - ऋतु और उसके बाद होता हैं इसमें सर्वप्रथम पशु चारा- दाना छोड़ देता हैं तथा निढाल - सा होकर खड़ा अथवा बैठा रहता हैं । दूसरे दिन तेज़ बुखार चढ़ जाता हैं , जिसका तापमान १०८ से १०९ डिग्री फारेनहाइट तक जा पहुँचता हैं । रोगी पशु के गले में एक कठोर सूजन हो जाती हैं । पशु की आँखें लाल हो जाती हैं , पशु के नाक से पतला श्लेष्मा निकलना शुरू हो जाता हैं । रोगी पशु के कण्ठ व गला नली के ऊपरी भाग के सभी स्थान फ़ुल जाते हैं ,पशु की साँसें रूक- रूककर चलने लगती हैं उसका दम घुटने लगता हैं । पशु के गले से घर्र- घर्र की आवाज आती हैं पशु गिरकर न उठ पाना आदि लक्षण प्रकट होते हैं । अन्तिम अवस्था में दुर्गन्धयुक्त पतले दस्त होते हैं । दस्त आरम्भ हो जाने पर पशु के जीवित बच पाने की आशा प्राय: नहीं रहती हैं । इस रोग में गले मे सख्त और गरम सूजन रहती हैं और इस ज्वर मे पशु के पैर मे सूजन नही होती हैं , कौड़ी मे सूजन होती हैं , इस ज्वर मे रोगी पशु की जीभ फ़ुल जाती हैं और बाहर को निकल पड़ती हैं और पशु की साँसें बढ़ते- बढ़ते बन्द हो जाती हैं ।
यह रोग रक्त की विकृति से उत्पन्न जीवाणु द्वारा प्रसारित पशुओं का एक प्रकार का " "प्लेग " ही हैं जिसमें बुखार के अतिरिक्त पशु के विभिन्न अंगों में शोथ उत्पन्न हो जाती हैं । यह कण्ठ और गला नली के ऊपरी भाग के सब स्थान फूल जाते हैं । गले से घर्र- घर्र की आवाज़ होती हैं । गले में गरम और सख्त ( कठोर ) सूजन दिखायी देती हैं जो हाथ की ऊँगलियों से दबाने पर भी नहीं दबती हैं । ऐसा प्रतित होता हैं जिससे पशु के गले में कोई चीज़ अटक गई हो । नाक व मुँह से नज़ला ( पानी गिरना ) शुरू हो जाता हैं । इस रोग में सूजन नहीं होती हैं । कौड़ी में सूजन होती हैं । इसमें जीभ फूल जाती हैं और बाहर को निकल पड़ती हैं तथा दुर्गन्ध आने लगती हैं । साँस बढ़ते - बढ़ते बन्द हो जाती हैं और इस रोग से ग्रसित पशु की मृत्यु हो जाती हैं ।
विशेष --नवीनतम् अनुसन्धानों से पता चला हैं कि यह रोग " पास्चुरैला सैप्टिका " ( Pasturela Septica ) नामक एक अति सुक्ष्मग्राम निगेटिव कोको बैसीलस रोगाणु द्वारा उत्पन्न होता हैं । यह रोगाणु दोनों सिरों अथवा दोनों ध्रुवों पर अत्यधिक रंग पकड़ने के कारण - ध्रुवी जीवाणु भी कहे जाते हैं । ये रोगाणु न केवल गायों भैंसों अपितु अन्य पशुओं में भी गलाघोटू रोग उत्पन्न करता हैं । आमतौर पर यह रोग उन निचले स्थानों में अधिक फैलता हैं - जोकि बरसात में पानी में डूबे रहते हैं । जहाज़ द्वारा लम्बी यात्रा करने वाले पशुओं में यह रोग शीघ्र उत्पन्न होता हैं , अत: इसे शिपिंग फीवर ( Shipping Fever ) के नाम से भी जाना जाता हैं ।
# - गलाघोटू के विशेष लक्षण -
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इस गलाघोटू रोग के अनेक लक्षण अन्य दूसरे रोगों के लक्षणों से मिलते- जुलते होते हैं , इसलिए प्राय: रोग निर्धारण ( डायग्नोसिस ) करने में भूल हो जाती हैं । इसी तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए गलाघोटू रोग के लक्षणों एवं अन्य दूसरे रोगों के गलाघोंटू रोग से मिलते - जुलते लक्षणों का अन्तर बता रहे हैं , ताकि पाठकों को सही रोग की पहचान करने में असुविधा न हो -
१ - इस रोग में पशु का तापमान १०८ डिग्री फारेनहाइट तक हो जाता हैं ।
२ - इस रोग में पशु को ख़ूनी दस्त होते हैं ।
३ - इस रोग में सिर या गले की सूजन कठोर होती हैं और दबाने पर नहीं दबती हैं तथा न ही उस सूजन को दबाने पर किसी प्रकार की आवाज़ ही होती हैं ।
# - अन्य दूसरे रोगों के समान लक्षण -
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१ - माता रोग में तापमान १०३ से १०५ डिग्री फारेनहाइट के मध्य रहता हैं ।
२ - माता रोग में आंँव जैसा लुआबदार पदार्थ ख़ून के साथ मिलकर आता हैं ।
३ - लँगड़ी रोग में गले या कमर अथवा जाँघ आदि की सूजन दबाने से दब जाती हैं तथा सूजन दबाने पर कर्र- कर्र की आवाज़ होती हैं ।
उपर्युक्त लक्षणों के अतिरिक्त यह स्मरण रखें कि माता रोग में पशु के मुँह के अन्दर तथा जबड़ों पर छालें निकल आते हैं किन्तु इस रोग में नहीं होते । इसी प्रकार " बाबलारोग " यानि " एन्थ्रेक्स रोग " में पशुओं के ख़ून का रंग बदल जाता हैं , किन्तु इस रोग में ख़ून का रंग परिवर्तित नहीं होता हैं । माता रोग तथा बावला रोग में पशु के गले में सूजन भी नहीं होती । जबकि इस रोग में गले में सूजन होना प्रमुख लक्षण हैं तथा यह सूजन कठोर होती हैं ।
आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति के अनुसार सर्वप्रथम इस रोग के शरीर में फैले विष को निकालने के लिए पशु को दस्त कराने आवश्यक हैं,साथ ही गले की सूजन बढ़ने से रोकने तथा मिटाने का भी विशेष रूप से प्रयत्न करना चाहिए ।
सर्वप्रथम रोग के होते ही जूलाब देना ज़रूरी हैं ।और कंठाअवरोध और श्वासावरोध न हो । एक कान के पास से दूसरे कान के कोने तक गले के ऊपर एवं जबड़े के नीचे दाग देना चाहिए । ( २-२ इंच के फ़ासले पर दागना चाहिए ) दागने के बाद २ छटांक देशी शराब , सोंठ , कालीमिर्च आधी- आधी छटांक मिलाकर पिला देनी चाहिए ।
१ - औषधि - जूलाब :- अलसी का तेल २५० ग्राम , और पिसी हुई गन्धक २ छटांक , पिसी हुई सोंठ सवा तौला सबको आधा किलो गरम पानी में मिलाकर पशु को पिलायें । दस्तावर योग हैं ।
२ - औषधि - जूलाब :- जमालघोटा का तेल ३० बून्द , मीठा तेल और अलसी का तेल ५-५ छटांक मिलाकर पिलायें यह भी दस्तावर योग हैं ।
३ - औषधि जूलाब - आधा किलो गाय का घी गुनगुना करके २ तौला फिनाइल मिलाकर दिन में २ खुराक पिलायें ।
४ - औषधि - जूलाब :- यदि पशु को तेज़ बुखार हो तो कपूर ३ माशा , कलमीशोरा डेढ़ तौला , देशी शराब १० तौला और पानी आधा छटांक लेकर - पहले कपूर को शराब तथा कलमीशोरा को पानी में घोल लें इसके बाद दोनों घोल को परस्पर मिलाकर पशु को दो बार पिलायें ये योग भी दस्तावर हैं ।
# - उपर्युक्त में से सुविधानुसार किसी एक का प्रयोग करके रोगी पशु को दस्त करा दें , ताकि दस्तों के द्वारा रोग का सारा विष निकल जायें । जब दस्त काफ़ी हो जायें तो निम्न योग का सेवन करायें ताकि दस्त रूक जायें और पशु को अधिक कमज़ोरी न होने पायें । इस योग के प्रयोग से बुखार कम भी हो जाता हैं -
१ - औषधि - धतुरे के बीज पिसे हुए साढ़े चार माशा , कपूर ९ माशा , देशी शराब आधा पाँव , पिसा हुआ नमक २ तौला - इन सब को मिलाकर चावलों के माण्ड के साथ रोगी पशु को प्रत्येक ३-३ घन्टे के अन्तर पर पिलायें ।
२ - औषधि - एनिमा :- यदि उपर्युक्त जूलाब के योगों के प्रयोग से पशु के पेट की पूर्णरूपेण सफ़ाई न हो सके तो एनिमा देकर आँतों व पेट की पूरी सफ़ाई कर दें । यह क्रिया आँतों की सूजन तथा घाओं को भरने में भी सहायक सिद्ध होती हैं । एक तौला साबुन को २ लीटर गरम पानी में घोलकर व डेढ़ छटांक कडुआ तेल मिलाकर एनिमा दें ।
कुछ विशेष बातें ध्यान रखने योग्य --
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१ - गलाघोटू में बुखार से पीड़ित पशु को हवा और ठण्ड से बचाना चाहिए एवं बहुत तेज़ बुखार में जूलाब की दवा नहीं देनी चाहिए । बुखार में बहुत ठण्डा पानी पीने से तथा ठण्डी हवा लगने से निमोनिया हो जाता हैं । बुखार उतर जाने के बाद मुलायम , शीघ्र पचने वाला चारा देना चाहिए । तेज़ बुखार में दूध एवं गेहूँ का चोकर और अलसी की लई देनी चाहिए । बाद में अच्छा हो जाने पर दलिया आदि और बिल्कुल अच्छा यानि पूर्णरूपेण रोगमुक्त हो जाने पर धीरे- धीरे साधारण चारा पशु को देना चाहिए । पीने के लिए गुनगुना गरम अथवा कुऐं का ताज़ा पानी देना चाहिए ।
२ - इस रोग में " गले की सूजन " ही सबसे अधिक ख़तरनाक होती हैं , क्योंकि यह सूजन बढ़ जाने पर ही रोगी पशु का गला बन्द हो जाता हैं वह साँस नहीं लें पाता हैं और दम घुटकर उसकी मृत्यु हो जाती हैं । इसलिए गले की सूजन दूर करने के लिए तत्काल उपाय करने चाहिए । अब हम कुछ सूजन कम करने के उपाय बता रहे हैं जो बहुत प्रभावकारी हैं ।
१ - औषधि - बिनौला ( कपास के बीज ) नेनुआ का झाड़ , कुम्हड़े की सूखी बेल , सरसों की सूखी डालें , ताड़ के सूखे बाल - इन सबको लेकर छोटे - छोटे टुकड़ों में काटकर मिट्टी की एक हांडी में डालें और उपलों की आग पर चढ़ा दें । जब उसमें से धुँआँ उठने लगे तो बीमार पशु के मुँह के पास रख दें । यदि आग जल उठे तो ऊपर धान की भूसी डाल दें ताकि आग की लौ बूझ जायें और केवल धूआँ उठता रहे । इस धूएँ के नाक व मुँह द्वारा अन्दर जाते ही पशु के मुँह से लार टपकने लगेगी । इस लार के साथ ही मुँह गला तथा सिर का तमाम गन्दा पदार्थ निकल जायेगा और पशु का सिर तथा गला हल्का हो जायेगा , साथ ही गले की सूजन भी नहीं बढ़ेगी ।
२ - औषधि - पिसी हूई फिटकरी साढ़े चार माशा और गन्ने की राब दो छटांक दोनों को आधा लीटर गरम पानी में डालकर उससे बार- बार पशु का मुँह तथा गर्दन धोएँ और मुँह के अन्दर भी कपड़े से यही पानी रगड़कर फेरें । थोड़ा - सा पानी मुँह के अन्दर भी डाल दें । इस प्रकार मुख प्रक्षालन क्रिया से गर्दन की सूजन घटेगी ।
# - टोटका - एक छिपकली को मारकर ३ तौला छिला हुआ लहसुन और एक छटांक , कलाकन्द ( जो लगभग ८ साल पुराना हो ) के साथँ पीसकर उस सूजन वाले स्थान पर बाँध दें । किन्तु ध्यान रहे कि छिपकली में तीव्र विष होता हैं । इसलिए अपने हाथों तथा शरीर के अन्य किसी भाग से पीसते समय अथवा पशु को बाँधते समय इस विष को अन्य किसी स्थान पर न लगने दें । तथा जिस सिल- बट्टे का प्रयोग इस लेप को तैयार करने हेतु करे , उस भी अन्य किसी प्रयोग में न लायें । साथ ही अपने हाथ भी फिनाइल तथा साबुन से धोकर भली - भाँति साफ़ कर लें । इस लेप का ज़हर पशु के रोग के ज़हर को मार देगा और सूजन मिटकर पशु ठीक हो जायेगा ।
२ - गला घोंटू
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कारण व लक्षण - यह रक्तविकार की एक बीमारी है । यह बीमारी नये पशु , नौजवान पशु तथा छोटे बच्चों को अधिक होती है । जो पशु नदी, नालों, गड्ढों में पैदा हुई सड़ी - गली और गड़हों का पानी पी जाते है , उन्हें यह रोग हो जाता है । शुरु की बरसात के पानी से भी यह रोग होता है । पशु अत्यन्त सुस्त रहता है । उसे तेज बुखार रहता है । उसके गले पर एक प्रकार की सख्त सूजन आ जाती है , जो कि दबाने से नहीं दबती और पशु को अधिक दर्द होता है । कभी - कभी तो सूजन को छूने पर ऐसा लगता है की पशु के गले में मानों कोई ठोस वस्तु अटक गयी है । पशु बहुत जोर से खर्राटेदार साँस लेता है , जिसकी आवाज कुछ दूर से सुनाई पड़ती है । इस प्रकार दम घुट - घुटकर पशु की एक - दो दिन में मृत्यु हो जाती है ।
१- औषधि - तेन्दूफल ५ नग , सत्यनाशी की जड़ ८४ ग्राम , आँधी झाड़ा की जड़ ( अतिझाड़ा ) ६० ग्राम , आँबाहल्दी ६० ग्राम , गौबलन ( इन्द्रायनफल ) १ नग , गाय के दूध से बनी बनी छाछ १४२० ग्राम सबको बारीक पीसकर गाय की छाछ के साथ रोगी पशु को बिना छाने हुए ४-४ घंटे बाद पिलायें ।
२- औषधि - अरण्डी का तेल २४० ग्राम , भिलावा ११ नग भिलावे को कूटकर अरण्डी के तेल में मिलाकर गरम करके और छानकर रोगी पशु को दिन में दो बार पिलायें ।
३- औषधि - खेजडे़ के उपर के ( सफ़ेद कीकर ) बाँधे की पत्ती ४८० ग्राम , पानी १४२० ग्राम दोनों को उबालें । जब पानी लगभग ८० तोला रह जाय तो उतारकर तथा छानकर एवं कुनकुना रहने पर रोगी पशु को पिला दें । उबली पत्तियाँ सूजन पर बाँध दें ।
४- औषधि - हिंगोट ५ नग फलों का गूद्दा , गाय के दूध से बनी छाछ १ लीटर में हिंगोट को मिलाकर , सुबह - सायं , रोज़ाना अच्छा होने तक पिलाना चाहिए ।
३ - पशुओं में गलाघोटू रोग ।
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१ - औषधि - पशु को जब गलाघोटू रोग हो रहा हो उस समय गाय के गोबर से बने ऊपला को किसी बर्तन में रंखकर जलाये जब धूआँ ख़त्म हो जाये तो आग के ऊपर थोड़ी - थोड़ी अजवायन डालते रहे और अजवायन के धूएँ को पशु के मुँह के पास रखें जिससे उसके मुँह में धूआँ जाता रहे पशु को आधा घन्टे में आराम आने लगेगा । फिर पशु को भृंगराज ताज़ा ५० ग्राम , पीसी कालीमिर्च ४० दाने , दोनों को बारीक पीसकर गाय का घी ६० ग्राम मिलाये और पशु को नाल द्वारा पिला दें । यह दवा बस एक बार ही पिलानी चाहिए ।
४ - पशुओं में गलाघोटू
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कारण व लक्षण - घटरोल ( कण्ठ अवरोध ) --पशुओं के गले में दोनों और दो बड़े -बड़े गोले ऊभर आते है और एक या दो घन्टे में ही पशु का दम घुटने लगता है तथा बाद में उसकी मृत्यु हो जाता है ।
१ - औषधि - अपनी घरेलू बिल्ली की लैटरीन ( शौच ) को लेकर सूखाकर घर में रखनी चाहिऐ जैसे ज़रूरत पड़ने पर बिल्ली की शौच को पानी में घोलकर २-३ नाल बनाकर पशु के गले में डाल देना चाहिए । अगर पशु के पेट में चली जायेगी तो अवश्य ही ठीक होगा । और पशु घन्टा भर में ही चारा खाना शुरू कर देता हैं ।
५ - कण्ठ के रोग
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कारण व लक्षण - पशु के कण्ठ में एक प्रकार की सूजन आ जाती है और गला काफी फूल जाता है । कुछ लोगों का कहना है कि पशु जब कोई कीड़ा खा लेते हैं । तो ऐसी बीमारी हो जाती है । डाक्टरों का भी ऐसा ही विचार है।
उपचार - लोहे की छड़ को गरम करके कण्ठ में तीन चार जगहपर उससे छेदकर देना चाहिए। इससे उसका ज़हर निकल जायेगा और पशु अच्छा हो जायेगा ।
१ - औषधि - गाय का मूत्र ९६० ग्राम , नीला थोथा १२ ग्राम , नीला थोथा को बारीक पीसकर गोमूत्र में मिला कर पिलायें और छेद में पिचकारी का एनिमा डालकर उसका ज़हर धोयें । इसको दिन में दो बार सुबह - सायं करना चाहिए। नीम के पत्तों के पानी से सूजन को सेंकना चाहिए, जिससे ज़हर निकल जायेगा और सूजन दिन पर दिन कम होती जायेगी ।
२ - औषधि - जीभ के नीचे गाँठ हो जाने पर उसको गरम लोहे की छड़ से छेद कर देना चाहिए । यह छेद भीतर जीभ के नीचे या बाहर कंठ से भी सुविधानुसार कर सकते है । इसके बाद नीला थोथा और पशु के मूत्र से घाव धोना चाहिए । जिसमें गाय का मूत्र ४८० ग्राम ,नीला थोथा १२ ग्राम , इस इलाज को करने के बाद और इसके पहले भी नीम के पत्तों के पानी से घाव धोना चाहिए ।
६ - कण्ठ पर सूजन
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कारण व लक्षण - पशु के कण्ठ पर सूजन आ जाती है तो पशु कराहता है,उसके मूँह से झाग गिरती है । वह सुस्त रहता है , बैठता नहीं, चारा खाना छोड़ देता है , जूगाली करना बंद कर देता है ।
उपचार - कण्ठ की सूजन पर नीचे की और कण्ठ बचाकर लोहे के सूजे ( सूए ) से छेद कर देना चाहिए अथवा तार सरीखे , उँगली बराबर मोटे, गरम लोहे से दोनों तरफ़ छेद कर देना चाहिए । उसमें से ज़हर धीरे - धीरे टपक - टपक कर निकलता रहेगा और साफ़ हो जायेगा ।
३ - औषधि -नीम की पत्ती १ किलो १५ से १८ लीटर पानी में मिलायें और गरम करें। इसमें से जब ३-५ लीटर पानी कम हो जाय , तो सूजन का स्थान कपड़े से धो डालें ।
४ - औषधि - २५० ग्राम गोमूत्र ( ठँडा हो तो थोड़ा गरम कर लें ) तथा नीला थोथा ३० ग्राम , नीला थोथा बारीक पीसकर गोमूत्र में मिलाकर , पिचकारी द्वारा घाव को धोना चाहिए, ताकि मवाद निकालकर घाव साफ़ हो जायें । - - इस बात का ध्यान रहे कि किसी भी प्रकार अन्दर पानी न जाने पायें । ऊपर ही बाँधकर नीम के उबले पानी से धोना और सेंकना चाहिए ।
५ - औषधि - पशुओ को खिलाने वाली दवा का प्रयोग इस प्रकार करें । पहले दिन बड़े पशु को मुर्ग़ी के २ अण्डे , गाय का दूध २ लीटर लेकर उसमें दोनो अण्डे फोड़कर मिला लें यह एक खुराक है इस खुराक को पशु को बोतल या नाल से पिला दें ऐसे ही सुबह - सायं दिया जायें ।
# - दूसरे दिन आराम होने पर मुर्ग़ी का एक अण्डा लेकर,एक लीटर दूध में मिलाकर फिर से पिलादें ।
#- - अलसी का आटा ७४० ग्राम , पानी २ लीटर , अलसी के आटे को ८ घंटे तक भिगो दें , २ लीटर पानी में उस आटे को घोलकर रोगी पशु को एक खुराक सुबह - सायं पिला दें इसी प्रकार शाम को भी पिला दिया जाय ।
# - -अलसी का तैल ३०० ग्राम , सुबह तथा सायं को भी पिलाऐं ।।
# -- ज्वार का आटा ५०० ग्राम , ३ लीटर पानी के साथ पकाकर सावधानी के साथ पशु को पिलाऐं । वह पी लें तो अच्छा है , यदि न पीयें तो बोतल या नाल से दें दे ।
# -- चावल का माँड़ बनाने के लिए चावल ७४० ग्राम , पानी ४ लीटर , में पकाया जायें और ख़ूब गीला माँड़ हो जाय , तो हल्का गरम - गरम पिलाना चाहिए ।
# - बैठने के लिए -- बिमार पशु के बैठने के लिए उसके नीचे बालू की रेत अधिक रखनी चाहिए ।
# -- और ध्यान रहे ज्वार के आटे का कच्चा घोल कभी नहीं पिलाना चाहिए । ऐसा करने से पशु मर जायेगा । ( कारण आटा तालवें में चिपका रहता हैं ।)
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७ - अँजीर रोग
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१ - अंजीर बेलरोग -( गले में बड़ी -बड़ी गाँठें बन जाना और पककर फूटना ) --:- तूतीया ( नीला थोथा ) -३० ग्राम , मूर्दा सिंह-२० ग्राम , सफ़ेद तैल - १०० ग्राम , पीस छानकर तीनों को आपस में मिलाकर मरहम बना ले ।
गाँठों पर प्रतिदिन मरहम लगाये पर ध्यान रहें कि हम हाथ से न लगावें क्योंकि लगाने वाले को नुक़सान हो सकता है ।
२ - अंजीर बेल -- तूतीया -३० ग्राम , मूर्दा सिंह - १० ग्राम , बबना का तैल - १०० ग्राम , तारपीन का तैल ५० ग्राम , पीस छानकर चारों को आपस में मिलाकर मरहम बना लेवें । प्रतिदिन गाँठों पर लगाये लाभ अवश्य होगा। इसे भी हाथ से न लगायें ।
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