Monday, 28 June 2021

रामबाण योग :- 118 -:

रामबाण योग :- 118 -:


खुरासानी अजवायन -

खुरासानी अजवायन के वृक्ष हिमाचल में कश्मीर से गढ़वाल तक 8000 से 11000 फीट तक की ऊंचाई पर पैदा होते हैं। यह एक क्षुप जाति का पौधा है। इसका प्रकांड सीधा और पुस्ट होता है। इसमें एक प्रकार की तेज सुगंध आती है, जो कुछ कुछ अग्रियसी होते हैं। इसके पत्ते कटे हुए और कंगुरेदार होते हैं। इसके फूल पीलापन लिए हुए हरे रंग के होते हैं। इनमें दो बैगनी रंग की धारियां होती हैं। भारतीय चिकित्सकों ने इस औषधि को अजवायन के समान समझकर इसका नाम खुरासानी अजवायन या पारसीक यामानी रख दिया मगर वास्तव में यह औषधि अजवायन के वर्ग की नहीं है, बल्कि उससे बिल्कुल भिन्न बदखन या सोलेनेसोई वर्ग की औषधि है, जिसमें बेलेडोना, धतूरा आदि विषैली दवाइयां सम्मिलित है। यूनानी चिकित्सा मीर मुहममद हुसैन ने बंज के नाम से इस औषधि का वर्णन किया है। जिसकी सफेद काली और लाल भेद से तीन प्रकार की मानते हैं। इसमें सफेद जाति
सबसे उत्तम मानी जाती है। इसके अतिरिक्त इसका एक भेद और होता है, जिसे को ही भंग कहते हैं। यह बहुत ज़हरीली होती है।ख़ुराफ़ाती अजवायन को संस्कृत- परसीक यमानी(Parsik Yamani), तुरुष्का मड़करिनी(Turuska Madkarini)। हिंदी- खुरासानी अजवायन(Khurasani Ajwain)| लेटिन- Hyoscyamus Niger कहते है। आयुर्वेदिक मतानुसार खुरासानी अजवायन अर्थात पारसीक यमानी के बीज तीखे कड़वे, गरम, अग्नि को दीप्त करने वाले, आंतों को सिकुड़ने वाले, मादक, भारी, अग्नि वर्धक तथा अजीरण, पेट के कीड़े, आमसूल और कफ को नष्ट करने वाले होते हैं।

रासायनिक विश्लेषण - Ajwain chemical analysis 
इसके बीजों में हायोसायमीन नामक एक नशीला उपक्षार और एक तेल पाया जाता है। ब्रिटिश फार्मा कॉपियों में इस औषधि के रासायनिक विश्लेषण में पाए जाने वाले उपक्षार का जो अंकड़ दिया हुआ है, उस की अपेक्षा कोलकाता के ट्रॉपिकल मेडिसिन और हायंश स्कूल में इस औषधि का विश्लेषण करने पर यह उपक्षारिय तत्व कम पाया गया। ब्रिटिश फॉर्म कोमियो ने जहां इस औषधि में 1065 उपक्षार तत्व बतलाए गए हैं, वहां यहां पर इसमें केवल तीन उपक्षारि तत्व पाया गया, इससे मालूम होता है कि यूरोप में पाई जाने वाली खुरासानी अजवायन से देशी खुरासानी अजवायन में उपचारित कम है। एलोपैथिक चिकित्सा के अन्तर्गत इस औषधि की समनता एट्रोपिं और बेलेडोना के साथ की जाती है ।

खुरासानी अजवायन वेद नाशक, निद्रा जनक, संकोच विकास प्रतिबंधक, अवसादक और कुछ मुलात्र होता है।
छोटी मात्रा में हृदय की गति को धीमा कर के उसे बल देता है मगर अधिक मात्रा में हृदय के लिए हानिकारक होता है। इसकी अवसादक क्रिया मस्तिष्क पर, ज्ञानेंद्रिय पर, आंतों पर विशेष रूप से दिखाई देती है। इस औषधि के देने से गहरी निद्रा आ जाती है। नींद आने के लिए और वेदना को समन करने के लिए इसी के मुकाबले की दूसरी औषधि अफीम है। परंतु जिन रोगियों को अफीम नहीं दी जाती उन रोगियों को भी यह दी जाती है। अफीम को देने से कब्जियत हो जाती है मगर खुरासानी अजवायन से कब्जियत बिल्कुल नहीं होती बल्कि इसको लेने से दस्त साफ होता है। 

इस औषधि की क्षमता ( समान ) करने वाली दूसरी औषधि धतूरा है। मगर धतूरे की अपेक्षा भी यह श्रेष्ठ है क्योंकि धतूरे से रोगी को भ्रम और मद पैदा हो जाता है। खुरासानी अजवायन से भ्रम नहीं होता। यह औषधि सब स्नायुयो पर शामक असर डालता है, इसलिए इससे मन शांत होता है और सुखपुर्वक गाढ़ी निद्रा आती है। धतूरे से आने वाली नींद गाढ़ी नहीं होती है। औषधि को प्रारंभ में थोडी मात्रा में लेना चाहिए और धीरे-धीरे करके इसकी मात्रा बढ़ाना चाहिए। छोटे बच्चों के लिए हानिकारक होता है और तमाम उन्नतशील राष्ट्रों के फर्मकोपियो में यह सम्मत है।

#- नशा - खुरासानी अजवायन दूसरे दर्जे में ठंडी और रूक्ष तथा काली खुरासानी अजवायन, तीसरे दर्जे में ठंडा और रूक्ष है। यह नशा लाने वाली और कंठमाला रोग में नुकसान करने वाली है।

#- कामोद्दीपक - खुरासानी अजवाय के बीज 5 मिलीग्राम लेने से लाभ होता है क्योकि यह स्वाद में कुछ कड़वे और कामोद्दीपक है। यह नशीली और नींद लाने वाली होती है।

#- दांतदर्द - खुरासानी अजवाइन पत्ते कफ निस्ससारक हैं। दांतो के दर्द में यह कुल्ले करने में
काम में लिए जाते हैं। इनसे मसूड़ों में खून भी बंद हो जाता है। 

#- छाती की जलन व सूजन - खुरासानी अजवायन के पत्ते पीसकर लेप करने से  संधिवात, यकृत की सूजन और छाती की जलन में भी लाभ पहुंचाता है।

#- पीड़ा - खुरासानी अजवायन के 5 मिलीग्रम पत्तों का स्वरस यकृत की पीड़ा में यह एक उत्तम उपचार है। 

#- अफारा व निद्रा - खुरासानी अजवायन 5 मिलीग्राम की मात्रा में लेने से विरेचक, उपशामाक, पेट के आफ़रे को दूर करने वाली तथा निद्रा कारक है। यह स्वास की बीमारी में भी लाभ पहुंचाता है।

#- श्वास रोग - खुरासानी अजवायन का 5 मिली पत्र स्वरस लेने से श्वास, कुकुर खांसी इत्यादि रोगों में यह उपशामक औषधि की तरह काम में लिए जाते हैं। बच्चों की शिकायतों में जहां पर अफीम काम में नहीं ली जा सकती उसके बदले में यह काम में लिए जा सकते हैं।

#- नज़ला - खुरासानी अजवायन 200-400 मिलीग्राम चूर्ण यह औषधि सब प्रकार के नजले में लाभ पहुंचाने वाली, कफ की खासी को मिटाने वाली, कफ के अंदर खून का आना बंद करने वाली तथा रूक्षता पैदा करने वाली है।


#- आँख ,कान, नाक रोग - खुरासानी अजवायन आंखों से पानी जाने में, कान के रोग में, नाक की तकलीफ में, सिर दर्द में और जोड़ों के दर्द में भी ये मुफीद है।

#- दाँतो की सड़न , श्वास रोग - ( धूम ) खुरासानी अजवायन 200-400 मिलीग्राम , इसका धुआं खाज और खुजली में, दांतों की सड़न में, खांसी में और वायु नालियों के प्रवाह में उपयोगी है। यह पेट के शूल को भी नष्ट करता है।

#- विशेष - खुरासानी अजवायन के बीज मुसलमान वैद्यों के द्वारा कई वर्षों से उपयोग में लिए जा रहे हैं। यद्यपि यह औषधि हिमालय में पैदा होती है फिर भी प्राचीन हिंदू आयुर्वेद ग्रंथों में इसका कहीं उल्लेख नहीं पाया जाता है।

#- खालित्य - खुरासानी अजवायन के बीज स्वरस का सिर पर लेप करने से गंजापन में लाभ होता है।

#- नेत्रजलस्राव - 2-3 ग्राम खुरासानी अजवायन के बीज को कूटकर रात को 100 मिलीग्राम पानी में भिगो दें। प्रात: पानी से आँखें धोने से आँखों से आने वाला पानी व अन्य नेत्र रोगों में लाभ होता है।

#- आँखों की सूजन - खुरासानी अजवायन के पत्तों को गरम करके आँख के उप्र बाँधकर रखने से आँखों की सूजन व पीड़ा में लाभ होता है।

#- कर्णरोग - खुरासानी अजवायन से पके तिल तैल को कान में 2- 2 बूँद टपकानें से कान का दर्द मिटता है।

#- कान रोग - खुरासानी अजवायन के पुष्प स्वरस को कान में डालने से कान के दर्द में लाभ होता है।

#- दन्तशूल - खुरासानी अजवायन के पत्तों का क्वाथ का कवल एवं गण्डूष धारण करने से दंत के दर्द तथा मसूडो से होने वाले रक्तस्राव में लाभ होता है।

#- श्वास रोग - 5 मिलीग्राम पत्रस्वरस में शहद मिलाकर सेवन करने से श्वास कष्ट तथा कुक्कुरकास में लाभ होता है।

#- उदरशूल - खुरासानी अजवायन में गुड मिलाकर गोली बनाकर देने से पेट की पीड़ा मिटती है । इसके 1-2 ग्राम चूर्ण में 250 मिलीग्राम कालानमक मिलाकर खिलाने से लाभ होता है।

#- उदरशूल - 2-4 बूँद खुरासानी अजवायन तैल को एक ग्राम सोंठ चूर्ण में मिलाकर खाने से तथा ऊपर से 15-20 मिलीग्राम गर्म सौंफ का अर्क पिलाने से उदर पीड़ा शान्त हो जाती है। अथवा इसके 10-20 मिलीग्राम क्वाथ में थोड़ा गुड मिलाकर पिलाएँ ।

#- कृमि विकार - जिस रोगी के पेट में कीडे हो , वह सुबह ही 5 ग्राम गुड खाकर , कुछ समय बाद खुरासानी अजवायन के 1-2 ग्राम चूर्ण को बासी पानी के साथ सेवन करने से आँतों में स्थित कीडे बाहर निकल जाते है।

#- यकृत पीड़ा - खुरासानी अजवायन के तैल को छाती तथा उदर पर लेप तरने से पुरानी यकृत की पीड़ा तथा छाती के दर्द में बहुत लाभ होता है।

#- यकृत पीड़ा - शराब के साथ खुरासानी अजवायन पीसकर उदर के ऊपर लेप करने से यृकतशूल तथा यकृतशोथ का शमन करता है।

#- मूत्ररोग - 15-20 बूँद बीज सत्त् को दिन में 3-4 बार देने से मूत्रेन्दिय सम्बंधी पीड़ा रोगों में मूत्र विरेचन होकर शान्ति मिलती है।
 
#- गुर्दे की पथरी - 15-20 बूँद बीज सत्त् को दिन में 3-4 बार देने से मूत्रेन्दिय सम्बंधी पीड़ा रोग व गुर्दे की पथरी मूत्र विरेचन होकर बाहर निकलकर शान्ति मिलती है।

#- गर्भाशय की पीड़ा - गर्भाशय की पीड़ा मिटाने के लिए खुरासानी अजवायन की बत्ती बनाकर योनि में रखनी चाहिए इससे आराम आता है।

#- स्तनशोथ - खुरासानी अजवायन के पत्रों को पीसकर लेप करने से स्तन की सूजन में लाभ होता है।

#- सन्धिवात - खुरासानी अजवायन बीज को तिल के तेल में सिद्ध कर मालिश करने से संधिवात व गृधसी , कमरदर्द , इत्यादि रोगों में लाभ होता है।

#- आमवात - खुरासानी अजवायन की पत्र व बीज का लेप करने से तथा सूजनयुक्त स्थान पर पत्र कल्क की पुलटीश बाँधने से आमवात तथा वातरक्तजन्य शोथ एवं शूल में लाभ होता है।

#- कम्पवात - खुरासानी अजवायन पत्रों को पीसकर लेप बनाकर लगाने से लाभ होता है।

#- द्रदू - राल , टंकण, गंधक , तथा खुरासानी अजवायन बीज को मिलाकर टिकियां बना ले , इस टिकियां को पानी के साथ पत्थर पर घिसकर लेप करने से दाद- खाज में लाभ होता है।

#- मानसिक रोग , आवेश - 25-30 मिलीग्राम जल मे 5-10 बूँद खुरासानी अजवायन बीज तैल को मिलाकर पिलाने से स्त्रियों का हिस्टिरिया व शूल में लाभ होता है।

#- मात्रा - 200-400 मिलीग्राम , जलसार 3-6 बूँद , शुष्क सार 15-60 मिलीग्राम , मूलार्क 3-6 बूँद की ही मात्रा प्रयोग करें, अधिक करने पर भ्रम, सूजन, उन्माद , सन्यास, त्वचारोग, आदि रोग हो सकते है।



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Sunday, 27 June 2021

रामबाण योग :- 117 -:


रामबाण योग :- 117 -:

अतीस –

आयुर्वेद में अतीस के गुणों के आधार पर इसका प्रयोग कई बीमारियों के इलाज के लिए किया जाता है। वैसे के शिशु संबंधित कई तरह के बीमारियों के लिए अतीस को गुणकारी माना जाता है। असल में अतीस एक प्रसिद्ध वनौषधि है। अतीस सर्दी-खांसी, उल्टी, दस्त, फोड़ा-फून्सी जैसे कई बीमारियों के लिए आयुर्वेद में इलाज के तौर पर प्रयोग किया जाता है। अतीस वनौषधि का ज्ञान हमारे आचार्यों को अत्यन्त प्राचीनकाल से था। प्राय: समस्त रोग को दूर करने वाली होने से यह विश्वा या अतिविश्वा के नाम से वेदों में प्रसिद्ध है। यजुर्वेद अ. 12 मत्र 84 अतिविश्वा परिष्ठास्तेन' इत्यादि जो ऋचा है, उसमें अतिविश्वा' शब्द अतीस के लिए लिया गया
है। चरक संहिता के लेखनीय, अर्शोघ्न इत्यादि प्रकरणों में तथा आमातिसार के प्रयोगों में इसका उल्लेख पाया जाता है। सुश्रुत के शिरोविरेचन अध्याय तथा वचादि, पिप्पल्यादि व मुस्तादिगण में भी इसका उल्लेख है। इस बूटी की विशेषता यह है कि यह विष वर्ग वत्सनाभ कुल की होने पर भी विषैली नहीं है। इसके ताजे पौधों का जहरीला अंश केवल छोटे जीव जन्तुओं के लिए प्राणघातक है। यह विषैला प्रभाव भी इसके सूख जाने पर  ज्यादातर उड़ जाता है। छोटे-छोटे बालकों को भी दिया जा सकता है। परन्तु इसमें एक दोष है कि उसमें दो महीने बाद ही घुन लग जाता है।

अतीस पाचन संबंधी रोग, बुखार, कृमि, बालकों के उल्टी, खाँसी आदि रोगों में विशेष रुप से उपयोगी होता है। अतीस की जड़ भी पाचन संबंधी समस्या में लाभकारी, शक्तिवर्द्धक, कफ दूर करने वाला, बुखार, कृमिरोग, अर्श या पाइल्स, ब्लीडिंग, भीतरी सूजन तथा कमजोरी में फायदेमंद (ativisha benefits in hindi) होता है| अतीस का वानास्पति नाम Aconitum heterophyllum Wall. ex Royle (ऐकोनिटम हेटरोफाइलम) Syn-Aconitum cordatum Royle होता है। अतीस Ranunculaceae (रैननकुलैसी) कुल का है। अतीस को अंग्रेजी में Indian Aconite (इंडियन एकोनाइट) कहते हैं। लेकिन भारत के भिन्न-भिन्न प्रांतों में अतीस को विभिन्न नामों से पुकारा जाता है, जैसे-Sanskrit-अतिविषा, शिशुभैषज्या, विश्वा, शृङ्गी, अरुणा, प्रतिविषा, उपविषा, भङ्गुरा, घुणवलल्भा, कश्मीरा, शुक्लकन्दा; Hindi-अतीस, अतिविख; Urdu-अतीस कहते है |

अतीस के गुणों के आधार पर आयुर्वेद में कई बीमारियों के लिए इसका प्रयोग औषधि के रुप में किया जाता है।
चलिये अतीस के फायदों के बारे में विस्तार से जानते हैं कि यह किन-किन बीमारियों में और कैसे उपचार स्वरुप काम करता है। 

# खाँसी –5 ग्राम अतीस के जड़ से बने चूर्ण में 2 चम्मच मधु मिलाकर चटाने से खांसी मिटती है।

#- श्वास रोग - 2 ग्राम अतीस और 1 ग्राम पोखर-जड़ (पुष्कर मूल) के चूर्ण में 2 चम्मच मधु मिलाकर चटाने से सांस संबंधी रोग और खांसी में लाभ होता है। (प्राय: हिमालय के उच्च क्षेत्रों में अतीस और कुटकी ही अनेक रोगों में प्रयोग किया जाता है।)

# - खाँसी - सोंठ, अतिविषा, नागरमोथा, कर्कट शृंगी तथा यवक्षार से बनाए चूर्ण (1-2 ग्राम) में
मधु मिलाकर सेवन करने से खाँसी से छुटकारा मिलता है।

#-बच्चों की खाँसी - 20 ग्राम अतीस और 15 ग्राम वायविडंग दोनों को कूटकर आधा लीटर जल में पकाएं। जब जल का चौथाई शेष रहने पर उतार लें, ठंडा कर छान लें, फिर मिश्री मिलाकर शरबत की चाशनी तैयार करें। इसके बाद उसमें चौकिया सुहागा की खील 5 ग्राम पीसकर मिला लें। एक वर्ष तक के बच्चे को गाय के दूध में मिलाकर पांच बूंद तक देने से खांसी से आराम मिलता है। इसके अलावा शिशु को महालाक्षादि तेल की मालिश करने  से उनका शरीर पुष्ट होता है और विकास में भी मदद मिलती है। अतीस  सांस संबंधी समस्या और अपच आदि रोगों में भी फायदेमंद होता है।

#- उल्टी, छर्दि - अगर मसालेदार खाना खाने या किसी बीमारी के साइड इफेक्ट के वजह से उल्टी हो रही है तो अतीस (Atees)का सेवन इस तरह से करने पर फायदा (ativisha benefits in hindi) मिलता है। 2 ग्राम
नागकेशर और 1 ग्राम अतीस के चूर्ण को खाने से उल्टी बंद होती है।

#- उल्टीयां -लाल चंदन, खस, नेत्रवाला, कुटज की छाल, पाठा, कमल, धनिया, गिलोय, चिरायता, नागरमोथा, कच्चाबेल, अतीस तथा सोंठ इन औषधियों से बनाए काढ़े में मधु मिलाकर पीने से उल्टी से जल्दी आराम मिलता है।

#- मंदाग्नि - अगर खाना हजम करने में असुविधा होती है और बार-बार एसिडिटी की समस्या हो रही है तो अतीस का सेवन पाचन शक्ति को बढ़ाने में मदद करता है। 2 ग्राम अतीस-जड़ के चूर्ण को 1 ग्राम सोंठ या 1 ग्राम पीपल के चूर्ण के साथ मिलाकर मधु के साथ चटाने से पाचन शक्ति बढ़ती है।

#- दस्त, अतिसार - अगर ज्यादा मसालेदार खाना, पैकेज़्ड फूड या बाहर का खाना खा लेने के कारण दस्त है कि रूकने का  नाम ही नहीं ले रहा तो अतीस का घरेलू उपाय बहुत काम आयेगा।3 ग्राम अतीस के चूर्ण को, 3 ग्राम
इन्द्रजौ की छाल के चूर्ण और 2 चम्मच शहद के साथ देने से अतिसार और रक्तपित्त में लाभ होता है।

#- अतिसार - अतिविषावलेह-(बेल की गिरी), मोचरस, लोध्र, धाय का फूल, आम की गुठली की मींगी, अतिविषा तथा शहद को सही 1-2 ग्राम चूर्ण की मात्रानुसार सेवन करने से  अतिसार या दस्त के गंभीर अवस्था में लाभ होता है।

# बच्चों के दस्त व दर्द और तेज़ बुखार - अतीस के कन्द (bulb) को पीसकर चूर्ण कर शीशी में भरकर रख लें, बालकों में होने वाले (पेट दर्द, ज्वर या बुखार, अतिसार या दस्त आदि) रोगों में यह लाभकारी होता है। बालक की उम्र के अनुसार 250 से 500 मिग्रा तक शहद के साथ दिन में दो तीन बार चटाने से बालकों के सभी रोगों में लाभ होता है।

#- आमातिसार -अतिसार और आमातिसार में 2 ग्राम अतीस के चूर्ण को देकर 8 घण्टे तक पानी में भिगोई हुई 2 ग्राम सोंठ को पीसकर पिलाने से लाभ होता है। जब तक अतिसार नहीं मिटे तब तक रोज देते रहना चाहिए।

#- हैज़ा व प्लेग रोग - अतीस-की जड़ को कूटकर रात में दस गुने जल में भिगो दें। सुबह इसको पकाएं, जब शहद जैसा गाढ़ा हो जाय या गोलियां बनाने लायक हो जाए तो 500-500 मिग्रा की गोलियां बनाकर छाया में सुखा लें। विसूचिका (हैजा) में 3-3 गोली 1-1 घण्टे के अन्तर से तथा प्लेग में 3-3 गोली दिन में बार-बार खिलायें।

#- अतिसार - 1 ग्राम से 10 ग्राम तक अतीस को पानी में पीसकर दिन में 2-3 बार, बल और आयु के अनुसार देने से अतिसार में लाभकारी होता है।

#- संग्रहणी व पेचिश - संग्रहणी या पेचिश अगर ठीक नहीं हो रहा है तो अतीस का औषधीय गुण लाभकारी सिद्ध हो सकता है।  अतिसार पतला, सफेद, दुर्गन्ध युक्त हो तो 10-10 ग्राम अतीस और शुंठी दोनों को
कूटकर, 2 ली पानी में पकाएं। जब आधा शेष रह जाए तब छौंककर, फिर इसमें थोड़ा अनार का रस और लवण मिलाकर, थोड़ा-थोड़ा करके दिन में 3-4 बार पिलाने से संग्रहणी और आमातिसार में लाभ होता है। इसके अलावा अतीस के दो ग्राम चूर्ण को हरड़ के मुरब्बे के साथ खिलाने से आमातिसार दूर  होता है।

#-पेट की गड़बड़ी - अक्सर किसी एलर्जी के वजह से या किसी बीमारी के कारण इरिटेबल बॉवल सिंड्रोम यानि पेट में गड़बड़ी की समस्या होती है। अतीस का सेवन इस रोग में लाभकारी होता है। सोंठ, अतिविषा तथा नागर -मोथा से बनाए काढ़े या पेस्ट को गुनगुने जल के साथ सेवन करने से आमदोष का पाचन होकर ग्रहणी में लाभ होता है। इसमें गुडुची ( गिलोय ) मिलाकर पीने से विशेष लाभ होता है।

#- पेट दर्द -अंकोल के जड़ की त्वचा का चूर्ण (3 भाग) तथा अतीस-चूर्ण (1 भाग) को मिलाकर 1-3 ग्राम की मात्रा में तण्डुलोदक के साथ पीने से ग्रहणी और पेट दर्द आदि रोग में लाभकारी होता है। 

#- रक्तार्श - अगर ज्यादा मसालेदार, तीखा खाने के आदि है तो पाइल्स के बीमारी होने की संभावना बढ़ जाती है।अगर समय रहते खान-पान में सुधार नहीं किया तो रक्तार्श में परिवर्तित हो सकता है।अतीस में राल और कपूर मिलाकर इसके धूँएं से सेंकने पर बवासीर के ब्लीडिंग से राहत मिलती है। तथा 1-2 ग्राम चूर्ण का सेवन कर सकते हैं।

#- रक्तप्रदर - इद्रजौ, अतीस, कटुत्रिक, बिल्व, नागरमोथा तथा धाय के फूल, इनका चूर्ण बनाकर 1-2 ग्राम चूर्ण में शहद मिलाकर खिलाने से रक्तप्रदर (Metrorrhagia) में लाभ होता है।

#- फोडा-फुन्सीं - फोड़ा-फून्सी अगर सूख नहीं रहा है तो अतीस का इस तरह से प्रयोग करने पर जल्दी सूख जाता है। अतीस के 5 ग्राम चूर्ण को खाकर ऊपर से चिरायते का अर्क पीने से फोड़े-फुन्सी आदि त्वचा रोगों से जल्दी छुटकारा मिलता है।

#- शिशुओं की रोगप्रतिरोधक क्षमतावर्धनार्थ - अगर आप बार-बार बीमार पड़ रहे हैं तो प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में अतीस बहुत लाभकारी होता है। नागरमोथा, अतीस, काकड़ा सिंगी और करंज के भुने हुए बीज, चारों द्रव्यों को समान मात्रा में मिलाकर चूर्ण बनाकर, इन्द्रयव की छाल के काढ़े में 12 घण्टे रखने के बाद 65 मिग्रा की गोलियां बना लें। दिन में दो बार सुबह-शाम 1-2 गोली देने से बच्चों के सब रोगों से शांती मिलती है। यह रोग प्रतिरोधक क्षमता को भी बढ़ाती है।

#- दौर्बल्य - अगर लंबे बीमारी के कारण या पौष्टिकता की कमी के वजह से कमजोरी महसूस हो रही है तो अतीस का इस तरह से सेवन करने पर लाभ लेने के लिए 1-2 ग्राम चूर्ण का सेवन कर सकते हैं।

#- बलवर्धनार्थ – छोटी इलायची और वंशलोचन, इन दोनों के साथ अतीस के 1 से 2 ग्राम चूर्ण को मिलाकर मिश्री युक्त गाय के दूध के साथ लेने से शक्ति मिलती है एवं यह पौष्टिक व रोगनाशक होता है।

#- ज्वरोपरान्त दौर्बल्य - 3 ग्राम अतीस-चूर्ण तथा 125 मिग्रा लौहभस्म में 500 मिग्रा शुंठी-चूर्ण के साथ
मिलाकर सेवन करने से बुखार के बाद होने वाली दुर्बलता दूर होती है।

 #- श्वास रोग - श्वास सम्बंधित परेशानियां कफ दोष के बढ़ने के कारण होती हैं। अतीस में कफ शामक गुण पाए जाने के कारण यह इसके लक्षणों को कम करने में मदद करती है। 1-2 ग्राम चूर्ण का सेवन कर सकते
हैं।

#-कृमि- बालरोग - अतीस बालरोग में भी फायदेमंद होती है जैसे- बच्चों के पेट में कीड़े होने आदि परेशानियों में यह अपने कृमिघ्न गुण के कारण लाभ देती है। साथ ही अतीस दीपन पाचन गुण के कारण यह  पाचन तंत्र को मजबूत बनाने में भी मदद करती है। बच्चों को कृमि की समस्या सबसे ज्यादा होती है, इसके लिए अतीस का सेवन बहुत लाभकारी होता है। 2 ग्राम अतीस (ativisha)और 2 ग्राम वायविडंग का चूर्ण लेकर 1-1 ग्राम शहद के साथ चटाने से बच्चों के कृमि नष्ट हो जाती है।

#- पित्तज रोग - अतीस की तासीर गर्म होने के बाद भी यह पित्तज रोगों में भी लाभ पहुंचाता है। 1-2 ग्राम चूर्ण का सेवन कर सकते हैं।

#- मुखरोग - मुख रोग में पाचन शक्ति का कमजोर होना भी एक कारण होता है इस अवस्था में अतीस का 1-2 ग्राम चूर्ण का सेवन कर सकते हैं। इसका प्रयोग फायदेमंद होता है क्योंकि इसमें दीपन -पाचन का गुण पाया  जाता है।

#- वाजीकरण -  आजकल की भाग-दौड़ और तनाव भरी जिंदगी ऐसी हो गई है कि न खाने का नियम और न ही सोने का। इसका सारा असर सेक्स लाइफ पर पड़ता है।  5 ग्राम अतीस के चूर्ण को शक्कर और गाय के दूध के साथ मिलाकर पीने से वाजीकरण गुणों (काम शक्ति) की वृद्धि होती है।

#- प्रयोग - आयुर्वेद में अतीस के जड़ का प्रयोग औषधि के लिए सबसे ज्यादा किया जाता है।



 








 



 





 




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Friday, 25 June 2021

रामबाण योग :- 116 -:



रामबाण योग :- 116 -:

अलसी –

आपने अलसी (flax seeds) का रोज घर में प्रयोग करते होंगे। कई घरेलू व्यंजनों में अलसी का इस्तेमाल किया जाता है। वैसे तो असली के बीज बहुत ही छोटे-छोटे होते हैं, लेकिन इसमें इतने सारे गुण होते हैं, जिसका आप अंदाजा नहीं लगा सकते। क्या आपको यह जानकारी है कि जिस अलसी के बीज को आप सभी केवल खाद्य पदार्थ के रूप में इस्तेमाल में लाते हैं, उससे रोगों का इलाज भी किया जा सकता है? जी हां, अलसी के फायदे और भी हैं। अलसी का दूसरा नाम तीसी है। यह एक जड़ी-बूटी है, जिसका इस्तेमाल औषधि के रूप
में भी किया जाता है। स्थानों की प्रकृति के अनुसार, तीसी के बीजों के रंग-रूप, और आकार में भी अंतर पाया
जाता है। देश भर में तीसी के बीज सफेद, पीले, लाल, या थोड़े काले रंग के होते हैं। गर्म प्रदेशों की तीसी सबसे अच्छी मानी जाती है। आमतौर पर लोग तीसी के बीज, तेल को उपयोग में लाते हैं।तीसी के प्रयोग से सांस, गला, कंठ, कफ, पाचनतंत्र विकार सहित घाव, कुष्ठ आदि रोगों में लाभ लिया जा सकता है।तीसी का वानस्पतिक नाम लाइनम यूसीटैटीसिमम (Linum usitatissimum L., Syn-Linum humile Mill., है, और यह लाइनेसी (Linaceae) कुल की है। .– तीसी, अलसी कहते है |

# - सिर दर्द -  सिरदर्द से आराम पाने के लिए अलसी का सही तरह से प्रयोग करने पर अलसी के लाभ पूरी तरह से मिल सकता है। इसके लिए अलसी के बीजों को ठंडे पानी में पीसकर लेप करें। इससे सूजन के कारण होने वाले सिर दर्द, या अन्य तरह के सिर दर्द, या फिर सिर के घावों में फायदा मिलता है।

#- सिर के घाव - अलसी के बीजों को शीतल जल में पीसकर लेप लगाने से सूजन के कारण होने वाले सिरदर्द , माथे की पीड़ा तथा सिर के घावों का शमन होता है।

#- अनिद्रा - ( टोटका ) नींद ना आने की बीमारी में अलसी का सेवन फायदेमंद होता है। इसके लिए अलसी, तथा एरंड तेल को बराबर-बराबर मात्रा में मिलाकर, कांसे की थाली में अच्छे से पीस लें। इसे आंखों में काजल की तरह लगाने से नींद अच्छी आती है।  

#- प्रतिशयाय - अलसी के बीजों का धूम्रपान करने से जुकाम में हीतकर होता है।

.# - जुकाम - जुकाम से परेशान हैं, तो तीसी का इस्तेमाल कर सकते हैं। महीन पिसी अलसी को साफ कर धीमी आंच से तवे पर भून लें। जब यह अच्छी तरह भून जाय, और गंध आने लगे, तब पीस लें। इसमें बराबर
मात्रा में मिश्री मिला लें। अलसी खाने का तरीका यह है कि आप इसे 5 ग्राम की मात्रा में गर्म पानी के साथ, सुबह और शाम सेवन करें। इससे जुकाम में लाभ होता है। 

# - आंख रोग  -  अलसी के गुण आँख संबंधी बीमारियों में बहुत फायदेमंद होता है।  आंखों की बीमारी, जैसे- आंख आना, आंखों की लालिमा खत्म होने आदि को ठीक करने के लिए अलसी के बीजों को पानी में फूला लें। इस पानी को आंखों में डालें। इससे आंख आने की परेशानी में फायदा होता है। 

#- निद्रा नाश ( काजल ) - अलसी तथा अरण्ड तैल को समभाग मिलाकर काँसे की थाली में काँसे के ही बर्तन से ख़ूब घोटकर रात को आँख में सूरमे की तरह लगाने से नींद बहुत अच्छी आती है।

# - कान की सूजन - कान की सूजन को ठीक करने के लिए अलसी के गुण उपचार स्वरुप बहुत काम आते
हैं। इसके लिए अलसी को प्याज के रस में पकाकर, छान लें। इसे 1-2 बूंद कान में डालें। इससे कान की सूजन ठीक हो जाती है।

# - खाँसी ,दमा - अलसी के बीज खाने के फायदे  खांसी और दमा रोग में भी मिलते हैं। अलसी के बीजों से काढ़ा बना लें। इसे सुबह और शाम पीने से खांसी, और अस्थमा में लाभ होता है। ठंड के दिनों में मधु, तथा गर्मी में मिश्री मिलाकर सेवन करना चाहिए।

# - खाँसी व अस्थमा - इसी तरह 3 ग्राम अलसी के चूर्ण को, 250 मिली उबले हुए पानी में डालें। इसे 1 घण्टे तक छोड़ दें। इसमें थोड़ी चीनी मिलाकर सेवन करें। इससे सूखी खांसी तथा अस्थमा में लाभ होता है।

# - खाँसी - इसके अलावा, 5 ग्राम अलसी के बीजों  को 50 मिली पानी में भिगोकर रखें। 12 घंटे बाद छानकर
पानी को पी लें। सुबह भिगोआ हुआ पानी शाम को, और शाम को भिगोया हुआ पानी सुबह को पिएं। इस पानी के सेवन से खांसी, और दमा में फायदा होता है। इस दौरान ऐसा कुछ नहीं खाना, या पीना चाहिए, जो बीमारी को
बढ़ाने वाला हो।

# - खाँसी व अस्थमा - आप खांसी, या दमा के इलाज के लिए 5 ग्राम अलसी के बीजों को कूटकर छान लें।इसे जल में उबाल लें। इसमें 20 ग्राम मिश्री मिला लें। यदि ठंड का मौसम हो तो मिश्री के स्थान पर शहद मिलाएं। इसे सुबह और शाम सेवन करें। इससे खांसी, और अस्थमा में लाभ होता है।

# - खाँसी - अलसी के औषधीय गुण से खांसी को ठीक किया जा सकता है। आप तीसी के भूने बीज से 2-3 ग्राम चूर्ण बना लें। इसमें मधु, या मिश्री मिलाकर सुबह और शाम सेवन करें। इससे खांसी ठीक हो जाती है।

# - दमा - आप खांसी, और दमा के उपचार के लिए यह तरीका भी आजमा सकते हैं। 3 ग्राम अलसी के बीजों को मोटा कूट लें। इसे 250 मिली उबलते हुए पानी में भिगो दें। इसे एक घंटा ढक कर रख दें। इसे छानकर, थोड़ी चीनी मिला लें। इसका सेवन करने से भी सूखी खांसी, और दमा की बीमारी ठीक हो जाती है।

# - दमा - इसके अलावा, अलसी के बीजों को भूनकर शहद, या मिश्री के साथ चाटें। इससे खांसी, और दमा का इलाज होता है।

# - वात-कफ विकार - अलसी के औषधीय गुण का फायदा वात-कफ विकार में भी ले सकते हैं। 50 ग्राम भूनी अलसी के चूर्ण में बराबर-बराबर मात्रा में मिश्री, और एक चौथाई भाग मरिच मिला लें। इसे 3-5 ग्राम की मात्रा में सुबह, मधु के साथ सेवन करने से वात-कफ दोष विकार ठीक होते हैं।

# - थायराइड - आप थायराइड का उपचार करने के लिए भी अलसी का प्रयोग कर सकते हैं। अलसी के लाभ का पूरा फायदा उठाने के लिए बराबर-बराबर मात्रा में अलसी के बीज, शमी, सरसों, सहिजन के बीज, जपा के फूल, तथा मूली की बीज को छाछ से पीसकर पेस्ट बना लें। इस पेस्ट को गले की गांठों आदि पर लेप करने से थायराइड में लाभ होता है।

#- सर्वांगशूल व शोथ - अलसी की पुलटीश सब पुल्टिसों में उत्तम है। 4 भाग कूटी हुई अलसी को , 10 भाग उबलते हुए पानी में डालकर धीरे- धीरे मिलाएँ । यह पुलटीश बहुत मोटी नहीं होनी चाहिए लगाते समय इसके निम्न भाग पर तैल चुपड़कर लगाना चाहिए । इसके प्रयोग से सूजन व पीड़ा दूर होती है।

# - बद ,गांठ - अलसी के चूर्ण को गाय के  दूध, और पानी में मिला लें। इसमें थोड़ी हल्दी का चूर्ण डालकर खूब पका लें। यह गाढ़ा हो जाएगा। इस गर्म गाढ़े औषधि को आप जहां तक सहन कर सकें, गर्म-गर्म ही गांठ पर लेप करें। ऊपर से पान का पत्ता रख कर बांध दें। इस प्रकार कुल 7 बार बांधने से घाव पककर फूट जाता है। घाव की जलन, टीस, पीड़ा आदि दूर होती है। बड़े-बड़े फोड़े भी इस उपाय से पककर फूट जाते हैं। यह लाभ कई दिनों तक लगातार बांधने से होता है।

*# - फोड़ा -  इसी तरह अलसी को पानी में पीसकर, उसमें थोड़ा जौ का सत्तू, तथा खट्टी गोदधि ( दही) मिला लें। इसे फोड़े पर लेप करने से भी फोड़ा पक जाता है।

# - वातज फोड़े - वात रोग के कारण होने वाले फोड़े में अगर जलन, और दर्द हो रहा हो, तो तिल और तीसी
को भून लें। इसे गाय के दूध में उबाल लें। ठंडा होने पर इसी दूध में पीसकर फोड़े पर लेप करें। इससे लाभ होता है।

# - पक्वव्रण ,पके फोड़े - पके फोड़े के दर्द को ठीक करने के लिए यह उपाय भी कर सकते हैं। बराबर-बराबर मात्रा में अलसी, गुग्गुल, थूहर का दूध लें। इसके साथ ही मुर्गा, तथा कबूतर की बीट, पलाशक्षार, स्वर्णक्षीरी, तथा मुकूलक का पेस्ट लें। इनका लेप घाव पर करें। इससे घाव ठीक हो जाता है।

# -व्रणोपनाह , घाव - घाव को पकाने के लिए तिल की बीज, अलसी की बीज, खट्टा गोदधि  ( दही), सुराबीज, कूठ, तथा सेंधा नमक को पीसकर चूर्ण की पिण्डिका बना लें। इसे घाव पर लेप करने से घाव जल्दी पककर ठीक हो जाता है।

# - दर्द व सुजन - अलसी,तीसी (agase beeja) के इस्तेमाल से दर्द, और सूजन में भी बहुत फायदा होता है। इसमें अलसी से बनाई हुई गीली दवा बहुत काम करती है। एक भाग कुटी हुई अलसी को, 4 भाग उबलते हुए पानी में डालकर धीरे-धीरे मिलाएं। यह गीली होनी चाहिए, लेकिन बहुत गाढ़ा नहीं होना चाहिए। इसे दर्द, या सूजन वाले अंग पर तेल की तरह चुपड़ कर लगाएं। इसके प्रयोग से सूजन, और दर्द दूर होती है।

*# - अग्निदग्ध का घाव व दर्द - शुद्ध अलसी का तेल, और चूने का निथरा हुआ जल को बराबर-बराबर मात्रा में लेकर अच्छी प्रकार मिला लें। यह सफेद मलहम जैसा हो जाता है। अंग्रेजी में इसे Carron oil  कहते हैं। इसको आग से जले हुए स्थान पर लगाएं। इससे तुरंत आग से जले हुए घाव का दर्द ठीक हो जाता है। रोज 1 या दो बार लेप करते रहने से घाव ठीक होता है।

# -कामशक्तिवर्धनार्थ - कई लोगों की शिकायत होती है कि उनकी सेक्स करने की ताकत में कमी आ गई है। इसी तरह अनेक लोग वीर्य, या धातु रोग से पीड़ित रहते हैं। इन सभी परेशानियों को तीसी, या अलसी का प्रयोग ठीक कर सकता है। 2 ग्राम  काली मिर्च और 5 ग्राम  शहद के साथ 3 ग्राम  अलसी का सेवन करें। वीर्य की पुष्टी होकर सेक्स करने की ताकत बढ़ती है, और वीर्य दोष दूर होता है।

*# -  पेशाब रोग -

पेशाब संबंधित रोगों को ठीक करने के लिए भी अलसी का इस्तेमाल करना बहुत अच्छा फायदा देता है। इसके लिए 50 ग्राम अलसी, 3 ग्राम मुलेठी को कूट लें। इसे 250 मिली पानी के साथ मिट्टी के बर्तन में हल्की आंच पर पकाएं। जब 50 मिली पानी रह जाए तो, इसे छानकर 2 ग्राम कलमी शोरा मिला लें। इसे 2 घंटे के अंतर से 20-20 मिली की मात्रा में पिएं। इससे मूत्र रोग जैसे, पेशाब करने में दिक्कत, पेशाब की जलन, पेशाब में खून आना, पेशाब में मवाद आने संबंधी दिक्कतें दूर हो जाती हैं।


*# - पेशाब रोग - इसके अलावा 10-12 ग्राम अलसी की बीज के चूर्ण में 5-6 ग्राम मिश्री मिला लें। इसे 3-3 घंटे पर सेवन करने से पेशाब संबंधित बीमारी ठीक होती है।

*# - सुजाक - अलसी के औषधीय गुण से सुजाक रोग में भी लाभ लिया जा सकता है। इसके लिए अलसी के तेल की 4-6 बूंदों को मूत्रेन्द्रिय (योनि) के छेद में डालें। सुजाक ठीक हो जाता है। 


* #- मूत्ररोग - अलसी और मुलेठी को समभाग लेकर कूट लें। 40-50 ग्राम चूर्ण को मिट्टी के बर्तन में डालकर उसमें 1 लीटर उबलता जल डालकर ढक दें । एक घन्टे बाद छानकर , इसमें 25 से 30 ग्राम तक कलमी शोरा मिलाकर , बोतल में रख लें । तीन घंटे के अंतर से 25-30 मिलीग्राम तक इस जल का सेवन करने से 24 घन्टे में ही पेशाब की जलन , पेशाब का रूक-रूक कर आना , पेशाब में ख़ून आना , पेशाब में मवाद आना ,पेशाब करते समय सिंग में सूरसूराहट होना आदि शिकायतें दूर होती है।

*#- पेशाब मे जलन व मूत्रशुद्ध होना - 10 ग्राम अलसी और 6 ग्राम मुलेठी , दोनों को ख़ूब कुचलकर एक लीटर जल में मिलायें, आधा भाग शेष रहने तक पकाये । तीन घन्टे के अन्तर से लगभग 25 मिलीग्राम काढ़े में 10 ग्राम मिश्री मिलाकर सेवन करने से जलन तत्काल दूर होकर मूत्र साफ होकर आने लगता है।

#- प्रमेह - 5-7 मिलीग्राम अलसी तैल का सेवन करने से प्रमेह ( डायबीटीज़ ) में लाभ होता है।

# - बवासीर - बवासीर के लिए 5-7 मिली अलसी के तेल का सेवन करें। इससे कब्ज ठीक होता है, और बवासीर में लाभ होता है।

# - टी .बी . रोग - टीबी के लिए 25 ग्राम अलसी के बीजों को पीसकर, रात भर ठंडे पानी में भिगोकर रखें। इस पानी को सुबह कुछ गर्म करें, और इसमें नींबू का रस मिलाकर, पिएं। इससे टी.बी. के रोगी को बहुत लाभ होता है। 

# - संधिशूल,जोड़ों के दर्द या गठिया -  जोड़ों के दर्द या गठिया में भी अलसी जड़ी-बूटी बहुत काम करता है। अलसी तेल या अलसी की बीजों को इसबगोल के साथ पीसकर लगाने से जोड़ों के दर्द में लाभ होता है।

 *# - कमर दर्द -  इसी तरह अलसी के तेल को गर्म कर, शुंठी का चूर्ण मिला लें। इससे मालिश करने से कमर दर्द, तथा गठिया में लाभ होता है।

#- गठिया - अलसी के तैल की पुल्टीश को गठिया की सूजन पर लगाने से लाभ होता है।

# - नकसीर  - वात-रक्त विकार में अलसी खाने से फायदे होते हैं। अलसी को दूध के साथ पीसकर लेप करने से वातप्रधान वातरक्त व वात के कारण होने वाले विकार ठीक होते हैं।तथा वेदना का शमन होता है।

#- गण्डमाला - समभाग अलसी , शमी , सरसों , सहजन बीज , जपापुष्प , मूली बीज , को गौतक्र ( छाछ ) के साथ पीसकर बनायें कल्क का गले की गाँठों पर लेप करने से लाभ होता है।

# - मात्रा - तीसी या अलसी का चूर्ण- 2-5 ग्राम



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Friday, 18 June 2021

रामबाण योग :- 115 -:


रामबाण योग :- 115 -:

अकरकरा-    

अकरकरा का नाम बहुत कम लोगों को पता होगा। आप ये जानकर आश्चर्य में पड़ जायेंगे कि अकरकरा के
औषधीय और आयुर्वेदिक गुण अनगिनत हैं। आयुर्वेद में अकरकरा पाउडर और चूर्ण का उपयोग दवा के रूप में किया जाता है। अकरकरा को सिर दर्द, दांत दर्द, मुँह के बदबू, दांत संबंधी समस्या, हिचकी जैसे बीमारियों के लिए जादू जैसा काम करता है। आयुर्वेद में अकरकरा का प्रयोग लगभग 400 वर्षों से किया जा रहा है।यद्यपि चरक, सुश्रुत आदि प्राचीन ग्रन्थों में इसका उल्लेख प्राप्त नहीं होता है, तथापि यह नहीं माना जा सकता कि यह बूटी भारतवर्ष में पहले नहीं होती थी।
भारतवर्ष में पायी जाने वाली यह औषधि प्राय: तीन प्रकार की होती है

1.     Anacyclus pyrethrum (L.) Lag. (आकारकरभ)

2.     Spilanthes acmella var. oleracea C.B. Clarke, Syn-Acmellaoleracea (L.) R.K. Jansen (भारतीय अकरकरा)

3.     Spilanthes acmella var. calva (DC.) C.B. Clarke, Syn Acmellapaniculata (Wall. ex DC.) R.K. Jansen (दीर्घवृन्त अकरकरा)

मुख्यतया आयुर्वेदीय औषधि में Anacyclus pyrethrum (L.) Lagasca का प्रयोग किया जाता है परन्तु इसके अतिरिक्त अकरकरा की दो अन्य प्रजातियाँ प्राप्त होती हैं। जिनका प्रयोग चिकित्सा के लिए किया जाता है, अकरकरा (akarkara plant)में उत्तेजक गुण प्रमाणित में होने से आयुर्वेद में इसे कामोत्तेजक औषधियों में
प्रधानता दी गई है। इसे समान गुण वाली अन्य औषधियों के साथ मिलाकर प्रयोग करने से यह वीर्यवर्धक (सीमन बढ़ाने वाला), और सेक्स की इच्छा बढ़ाने में मदद करता है। कफ तथा शीत प्रकृति वाले व्यक्तियों को अकरकरा
के प्रयोग से विशेष लाभ होता है।

अकरकरा – यह शक्ति बढ़ाने वाला, कड़वा, लालास्रावजनक (Sialarrhea), नाड़ी को बल देने वाला, काम को उत्तेजित करने वाला, वेदना कम करने वाला तथा प्रतिश्याय (Coryza) और शोथ या सूजन को नष्ट करता है। इसकी जड़ हृदय को उत्तेजित करने में सहायक होती है। यह सूक्ष्मजीवाणुरोधी (Antimicrobial) कीटनाशक, दंतकृमि, दांत का दर्द, ग्रसनी का सूजन, तुण्डीकेरी शोथ (Tonsillitis), पक्षाघात या लकवा, अर्धांगघात, जीर्ण
नेत्ररोग, सिरदर्द, अपस्मार या मिर्गी, विसूचिका (Cholera),आमवात तथा टाइफस (Typhus) बुखार को कम करने वाला होता है।

भारतीय अकरकरा - यह रस में कड़वा; गर्म; रूखा, वात पित्त को कम करने वाला, लालास्राववर्धक, उत्तेजक, कफ कम करने वाला, पाचक, पेट दर्द तथा ज्वरनाशक होती है। इसका फूल कड़वा, शरीर की गर्मी कम करने में सहायक और वेदना हरने वाला होता है।
अकरकरा का वानास्पतिक नाम Anacyclus pyrethrum (L.) Lag. (ऐनासाइक्लस पाइरेथम) Syn-Anacyclus officinarum Hayne होता है। अकरकरा Asteraceae (ऐस्टरेसी) कुल का होता है।अकरकरा को अंग्रेजी में Pellitory Root (पेल्लीटोरी रूट) कहते हैं। लेकिन भारत के भिन्न भिन्न प्रांतों में अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है, जैसे- Sanskrit-आकारकरभ, आकल्लक; Hindi-अकरकरा;कहतेहै|

#- सिरदर्द – अगर आपको काम के तनाव और भागदौड़ भरी जिंदगी के वजह से सिरदर्द की शिकायत रहती है तो अकरकरा का घरेलू उपाय बहुत लाभकारी (akarkara benefits in hindi) सिद्ध होगा। अकरकरा के फायदे सिरदर्द से राहत दिलाने में बहुत मदद करता है।

#- सिरदर्द - अकरकरा की जड़ या फूल को पीसकर, हल्का गर्म करके ललाट (मस्तक) पर लेप करने से
मस्तक का दर्द कम होता है। इसके अलावा  इसके प्रयोग से मुख की दुर्गंध भी दूर हो जाती है, एक बार के प्रयोग के लिए एक फूल या थोड़ा कम पर्याप्त होता है।

#- सर्दी-खांसी,दांतदर्द सूजन  - अकरकरा के फूल को चबाने से जुकाम के कारण होने वाला सिर-दर्द तथा मस़ूड़ों की सूजन तथा दांत का दर्द कम होता है।

#- दांत दर्द - अगर दांत दर्द से परेशान हैं तो अकरकरा का इस तरह से सेवन करने पर जल्दी आराम मिलता है। 10 ग्राम अकरकरा की जड़ या पुष्प में 2 ग्राम कपूर तथा 1 ग्राम सेंधानमक मिलाकर, पीसकर चूर्ण बना लें। इस चूर्ण का मंजन करने से सब प्रकार के दंत दर्द से राहत मिलती है।

#- मुँह के बदबू - अकरकरा, माजुफल, नागरमोथा, भुनी हुई फिटकरी, कालीमिर्च तथा सेंधानमक सबको बराबर मिलाकर बारीक पीस लें। इस मिश्रण से प्रतिदिन मंजन करने से दांत और मसूड़ों के सभी रोग ठीक हो जाते हैं तथा मुख की दुर्गन्ध मिट जाती है। इसके अलावा अकरकरा का जड़ा या पुष्प, हल्दी तथा सेंधानमक को बराबर मिलाकर बारीक पीस लें। इस मिश्रण में थोड़ा सरसों का तेल मिलाकर दाँतों पर मलने से दांत का दर्द कम होता है; साथ ही मुख-दुर्गन्ध व मसूढ़ों की समस्या भी दूर होती है। यह एक चमत्कारिक प्रयोग है।

#- दांत की बीमारी - अकरकरा की मूल को चबाने से अथवा मूल का काढ़ा बनाकर कुल्ला करने से कवल एवं गण्डूष धारण करने से दंतकृमि (दांत में कीड़ा लगना), दांत दर्द आदि दंत रोगों वातजन्य मुख-रोगों, तालु और गले के रोगों में बहुत लाभ होता है।

#- कंठ को मधुर बनाये अकरकरा - अकरकरा-चूर्ण  को 250-500 मिग्रा की मात्रा में सेवन करने से बच्चों का कंठ स्वर सुरीला हो जाता है। अकरकरा मूल या अकरकरा-फूल को मुंह में रखकर चूस भी सकते हैं यह कण्ठ के लिए बहुत लाभकारी है।

#- हिचकी - हिचकी आने पर आधा से एक ग्राम अकरकरा-मूल-चूर्ण को शहद के साथ चटाएं। हिचकी पर यह चमत्कारिक असर दिखाता है।

#- सांस संबंधी रोग - सांस संबंधी समस्याओं में अकरकरा
का औषधीय गुण  काम आता है। अकरकरा के कपड़छन चूर्ण (कपड़े से छाना हुआ) को सूंघने से श्वास में लाभ होता है।

#- सूखी खांसी - अगर मौसम के बदलाव के कारण सूखी खांसी से परेशान है और कम होने का नाम ही नहीं ले रहा है तो अकरकरा से इसका इलाज किया जा सकता है। 2 ग्राम अकरकरा एवं 1 ग्राम सोंठ का काढ़ा बनाकर 10-20 मिली मात्रा में सुबह-शाम पीने से पुरानी खांसी मिटती है तथा अकरकरा चूर्ण को 1-2 ग्राम की मात्रा में सेवन करने से कफज विकारों में लाभ होता है। इसके अलावा दो भाग अर्जुन की छाल और एक भाग अकरकरा-मूल-चूर्ण, दोनों को मिलाकर, पीसकर दिन में दो बार आधा-आधा चम्मच की मात्रा में खाने से घबराहट, पीड़ा, कम्पन और कमजोरी आदि हृद्-विकारों में लाभ होता है।

#- पेट दर्द - अक्सर मसालेदार खाना खाने या असमय खाना खाने से पेट में गैस हो जाने पर पेट दर्द की समस्या होने लगती है। अकरकरा के जड़ का -चूर्ण  और छोटी पिप्पली-चूर्ण को समान मात्रा में लेकर उसमें थोड़ी भुनी हुई सौंफ मिलाकर, आधा चम्मच सुबह शाम भोजनोपरांत (खाना खाने के बाद) खाने से पेट संबंधी समस्या में लाभ होता है

#- हृदय रोग - दो भाग अर्जुन की छाल और एक भाग अकरकरा की जड़ का चूर्ण, दोनों को मिलाकर, पीसकर दिन में दो बार आधा-आधा चम्मच की मात्रा में खाने से घबराहट, दर्द, कम्पन और कमजोरी आदि हृदय संबंधी रोगों में लाभ होता है।

#- ह्रदय रोग - कुंजन, सोंठ और अकरकरा की 2-5 ग्राम मात्रा को 100 मिली पानी में उबालें, जब चतुर्थांश (1/4 भाग) काढ़ा शेष रह जाए तो इस काढ़े को नियमित रूप से पिलाने से घबराहट, नाड़ीक्षीणता, हृदय की
कार्य शिथिलता आदि हृदय संबंधी रोगों में फायदेमंद होता है।

#- उदररोग -  पेट संबंधी विभिन्न बीमारियों जैसे पेट दर्द,पेट फूलना,अपच, बदहजमी जैसे बीमारियों में अकरकरा का सेवन फायदेमंद होता है।अकरकरा मूल-चूर्ण (akarkara patanjali) और छोटी पिप्पली-चूर्ण को समान मात्रा में लेकर उसमें थोड़ी भुनी हुई सौंफ मिलाकर, आधा चम्मच सुबह शाम भोजनोपरांत (खाना खाने के बाद) खाने से उदररोगों या पेटदर्द में लाभ होता है।

#- बदहजमी - अगर आपके व्यस्त जीवनशैली के कारण बदहजमी की समस्या हो गई है तो शुंठी-चूर्ण और अकरकरा दोनों को 1-1 ग्राम की मात्रा में लेकर सेवन करने से मंदाग्नि (Indigestion) और अफारा (Flatulence) में मदद मिलती है।

#- मासिक धर्म - मासिक धर्म या पीरियड्स होने के दौरान बहुत तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है, जैसे-मासिक धर्म होने के दौरान दर्द होना, अनियमित मासिक धर्मचक्र, मासिक धर्म के दौरान रक्तस्राव या ब्लीडिंग कम होना या ज्यादा होना आदि। इन सब में अकरकरा का घरेलू उपाय बहुत ही लाभकारी होता
है। अकरकरा-मूल का काढ़ा बनायें। 10 मिली काढ़े में चुटकी भर हींग डालकर कुछ माह सुबह-शाम पीने से मासिकधर्म ठीक होता है। इससे मासिकधर्म के दिनों में होने वाली दर्द से भी छुटकारा मिलती है।

#- सेक्चुअल स्टैमिना बढ़ाये - 20 ग्राम अकरकरा-मूल को लेकर उसका चतुर्थांश क्वाथ बना लें, अब इस
क्वाथ के साथ 10 ग्राम अकरकरा (akarkarain hindi)मूल को पीसकर पुरुष जननेन्द्रिय (शिश्न) पर लेप करने से, इन्द्रिय शैथिल्यता का शमन होता है। लेप कुछ घण्टों तक लगा रहने दें, लेप लगाते समय शिश्न के ऊपरी भाग (मणी) को छोड़कर लगाएं।

#- साइटिका का दर्द - अगर दिन भर बैठकर काम करने के कारण कमर दर्द से परेशान हैं तो अकरकरा  के जड़ के चूर्ण को अखरोट के तेल में मिलाकर मालिश करने से गृध्रसी या साइटिका में लाभ होता है।

#- अर्थराइटिस - अकरकरा की जड़ का पेस्ट या कल्क तथा काढ़े का लेप लगाने के बाद सिंकाई करने से या उससे धोने से आमवात (एक प्रकार का गठिया), लकवा तथा नसों की कमजोरी में लाभ होता है।

#- खुजली -   भारतीय अकरकरा के 5 से 7 ग्राम पञ्चाङ्ग का काढ़ा बनाकर प्रभावित स्थान को धोने से खुजली तथा छाजन में लाभ होता है।

#- अल्सर - अकरकरा के मूलार्क को घावों में या मूल को पाउडर कर घाव के ऊपर लगाने से घाव जल्दी भरता है व संक्रमण होने की सम्भावना भी नहीं रहती है। इसके अतिरिक्त अकरकरा के ताजे पत्ते व फूल को पीसकर
लगाने से दाद, खाज तथा खुजली ठीक हो जाती है।

#- मिर्गी - अकरकरा के फूल या जड़ को सिरके में पीसकर मधु मिलाकर 5-10 मिली की मात्रा में चाटने से या ब्राह्मी के साथ अकरकरा की जड़ का काढ़ा बनाकर पिलाने से मिर्गी का वेग रुकता है।

#- हकलाना - 2 भाग अकरकरा-मूल-चूर्ण, 1 भाग काली मिर्च व 3 भाग बहेड़ा छिलका लेकर पीसकर रखें, उसे 1-2 ग्राम की मात्रा में दिन में दो से तीन बार शहद के साथ बच्चों को चटाने से टॉन्सिल में लाभ होता है। जिह्वा पर मलने से जीभ का सूखापन और जड़ता दूर होकर हकलाना या तोतलापन कम होता है। 4-6 हफ्ते या कुछ माह तक प्रयोग करें।

#- लकवा - अकरकरा-मूल को बारीक पीसकर महुए के तेल या तिल के तैल में मिलाकर प्रतिदिन मालिश करने से अथवा अकरकरा की जड़ के चूर्ण (500 मिग्रा-1 ग्राम) को मधु के साथ सुबह शाम चटाने से पक्षाघात (लकवा) में लाभ होता है।

#- चेहरे के पक्षाघात (लकवा ) - उशवे के साथ अकरकरा का 10-20 मिली काढ़ा बनाकर पिलाने से अर्दित (मुंह का लकवा) में लाभ होता है। अकरकरा के प्रयोग पक्षाघात में बहुत ही लाभप्रद होता है।

#- बुखार - अगर मौसम के बदलने के वजह से या किसी संक्रमण के कारण बुखार हुआ है तो उसके लक्षणों से राहत दिलाने में अकरकरा (akarkara in hindi)  बहुत मदद करता है।

# - बुखार - अकरकरा के 500 मिग्रा चूर्ण में 4-6 बूंद चिरायता अर्क मिलाकर सेवन करने से बुखार
में अत्यन्त लाभ होता है।

# - बुखार - 1 ग्राम अकरकरा-मूल, 5 ग्राम गिलोय तथा 3-5 पत्र तुलसी को मिलाकर काढ़ा बनाकर दिन में 2-3 बार देने से जीर्ण ज्वर, बार-बार होने वाले बुखार व सर्दी लगकर आने वाले बुखार का शमन होता है।

# - स्पर्म काउन्ट बढ़ाये - आजकल की जीवनशैली और आहार का बुरा असर सेक्स लाइफ पर पड़ रहा है जिसके कारण सेक्स संबंधी समस्याएं होने लगी हैं। 1 ग्राम आकारकरभादि चूर्ण में मधु मिलाकर सेवन करने से स्पर्म का काउन्ट बढ़ता  है|

# - बुद्धि विकास - एक रिसर्च के अनुसार अकरकरा में ब्रेन टॉनिक है साथ हि आयुर्वेद में इसको बुद्धिवर्धक भी
बताया गया है  जिसके कारण यह बुद्धि बढ़ने के सहायक है। 

# - शरीर की शुन्यता और आलस्य - अकरकरा को ब्रेन टॉनिक के रूप में जाना जाता है साथी आयुर्वेद के अनुसार भी शरीर के अंदुरुनी शक्ति बढ़ाने में सहायक है इन्हीं गुणों के कारण अकरकरा शरीर से आलस्य को दूर करने में सहायक है। 







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रामबाण योग :- 114 -:

रामबाण योग :- 114 -:

अगरू -


प्राचीन काल से ही लोग भारत में अगरु का उपयोग कर रहे हैं। अगरु (agaru)को अगर भी कहा जाता है। इसकी लकड़ी से राल यानी गोंद की तरह का कोमल सुगन्धित पदार्थ निकलता है, जो अगरबत्ती बनाने सुगंधित उबटन की तरह शरीर पर मलने के काम आता है।
अगरु , कड़वा और तीखा, पचने में हल्का और चिकना होता है। यह कफ तथा वात को शान्त करने वाला और पित्त को बढ़ाने वाला होता है। अगरु (agarwood)सुगंधित, लेप लगाने पर शीतल, हृदय के लिए लाभकारी, भोजन के प्रति रुचि बढ़ाने वाला और मोटापा कम करता है। यह त्वचा के रंग को निखारता है। आंख तथा कान के रोगों, कुष्ठ, हिचकी, उल्टी, श्वास फूलना, गुप्त रोगों, पीलिया, खुजली, फुन्सियाँ तथा विष-विकारों की चिकित्सा में इसका औषधीय प्रयोग किया जाता है। अगुरु के सार का तेल भी समान गुणों वाला ही होता तथा पुराने घावों को ठीक करता है।  पेट के कीड़े और कुष्ठ रोग को ठीक करता है।
 अगरु वृक्ष (agaru tree) विशाल तथा सदा हरा-भरा रहने वाला होता है। कृष्णागुरु को पानी में डालने पर (लकड़ी भारी होने के कारण) डूब जाता है। अगरु की अनेक जातियां होती हैं। (1) कृष्णागुरु (2) काष्ठागुरु
(3) दाहागुरु (4) मंगल्यागुरु, सभी प्रजातियों में कृष्णागुरु सबसे अच्छा माना जाता है। रोगों की चिकित्सा में इसका प्रयोग किया जाता है।
अगुरु की लकड़ी अंदर से एस्कोमाईसीटस मोल्ड (Ascomycetous mold), फेओएक्रीमोनीयम पेरासाईटीका (Phaeoacremonium parasitica) नामक डीमेशीएशस (गहरे वर्ण के कोशिकायुक्त-dark walled) कवक यानी सूक्ष्मजीवों से संक्रमित होती है। इन कवकों से बचाव के लिए अगरु के वृक्ष से एक विशेष प्रकार का द्रव्य निकलता है। अगरु (agaru) की त्वग्स्थूलता (Tylosis) रोग से असंक्रमित लकड़ी हल्के रंग की और संक्रमित लकड़ी इस द्रव्य के कारण गहरे-भूरे अथवा काले रंग की होती है।
 
प्राचीन समय में यहूदी धर्म-ग्रन्थों में यह अलहोट नाम से प्रसिद्ध है। इसके अतिरिक्त ग्रीक रोमन में इसे अगेलोकन तथा प्राचीन अरब में अधलूखी एवं ऊद हिन्दी नाम से इनका उल्लेख मिलता है। अगरु (aquilaria agallocha) का वानस्पतिक नाम ऐक्वीलेरिया मैलाकैन्सिस (Latin – Aquilaria malaccensis Lam., Syn – Aquilaria agallocha Roxb. Ex DC.) है। यह थाइमीलिएसी (Thymelaeaceae) कुल का पौधा है। Hindi (agarwood in hindi) – अगर, ऊद, English – Eagle wood (ईगल वुड), अगर वुड (Agar wood), एलो वुड (Aloe wood), कहते है।

#- श्रेष्ठ अगरू के गुण - श्रेष्ठ अगरू जल में डूब जाता है।

#- अगरूकाष्ठ की धूम ( धूआँ ) सुगन्धित एवं वातशामक होता है।

#- सिरदर्द - अगुरु की लकड़ी को चन्दन की तरह घिसकर उसमें थोड़ा कपूर मिलाकर मस्तिष्क पर लेप करने से सिर दर्द ठीक होता है।


#- कफज कास ( बलगम वाली खाँसी )- 1-3 ग्राम अगुरु (agar agar powder) के चूर्ण में थोड़ा-सा सोंठ मिलाकर मधु के साथ सेवन करने से कफ के कारण होने वाली खाँसी ठीक होती है।

#- श्वसननली शोथ - अगुरु के चूर्ण  तथा कपूर को पीसकर वक्ष स्थल पर लेप करने से श्वसनतंत्र-नलिका की सूजन ठीक होती है।

#- साँस फुलना - पान के पत्ते में दो बूँद अगुरु (aquilaria agallocha) के तेल को डालकर सेवन करने से सांस फूलने के रोग में शीघ्र लाभ होता है। यह गाढ़े बलगम को पतला करने में भी मदद करता है, जिससे फेफड़ों को साफ़ होने में मदद मिलती है।

#- अर्बुद - अंगूर काष्ठ को लगभग 10 ग्राम लेकर उसका क्वाथ बनाकर 20-40 मिलीग्राम मात्रा में नियमित सेवन करने से उदरगत अर्बुद में लाभ होता है।

#- लीवर रोग - सेंधा नमक के साथ अगरु चूर्ण का सेवन करने से पेट और लीवर सक्रिय होते हैं और भूख बढ़ती है। यह लीवर को ताकत देता है और चयापचय प्रक्रिया को बढ़ाता करता है।

#- पेट का कैंसर - अगुरु की लकड़ी को लगभग 10 ग्राम लेकर उसका काढ़ा बना लें। इसे 20-40 मिली मात्रा में नियमित सेवन करने से पेट के कैंसर में लाभ होता है।


#- अपच, वमन - 1-2 ग्राम अगुरु की लकड़ी के चूर्ण में शहद मिलाकर सेवन करने से उल्टी, अपच की समस्या एवं भूख की कमी ठीक होती हैं।


#- ख़ूनी बवासीर - 1-3 ग्राम अगरु चूर्ण में तीन गुणा मिश्री तथा प्रचुर मात्रा में गाय का घी िलाकर , पकाकर शीतल कर लें। इसके सेवन करने से खूनी बवासीर में लाभ होता है।


#- मधुमेह, लवणमेह - पाठा का पञ्चाङ्ग, अगुरु की लकड़ी तथा हल्दी को समान भाग में लेकर इनका काढ़ा बना लें। इस काढ़े को 10-20मिली मात्रा में सेवन करने से डायबिटीज में लाभ होता है।


#- सूतिका रोग - प्रसव के पहले और बाद में अगुरु की लकड़ी का काढ़ा बनाकर 20-30 मिली की मात्रा में प्रयोग करें। इससे प्रसव होने के बाद के प्रसूति स्त्री के रोगों में लाभ होता है। इसमें अजवायन तथा सोंठ मिलाने से और जल्दी लाभ प्राप्त होता है।
 
#- सूजन ,वात विकार - अगरु, वात विकार को कम करता है। अगुरु की लकड़ी या पत्तों को पीसकर लेप करें। इससे गठिया, आमवात, जोड़ों की सूजन, लकवा आदि रोगों में लाभ होता है।


#- कुष्ठ , खुजली - मंगल्यागुरु अगरू शीत , गुरू, योगवाही तथा कुष्ठ निवारण में प्रशस्त है । अगरु की छाल के चूर्ण (2 ग्राम) को पांच ग्राम गाय के घी के साथ लेने से कुष्ठ, खुजली आदि चर्म विकारों में लाभ होता है। यह पित्ती से जुड़े खुजली वाले फोड़े और खुजली को भी कम कर देता है।


#- कफज शोथ - चोरक तथा अगुरु को पीसकर लेप करने से कफ के कारण होने वाली सूजन ठीक होती है।


#- बुखार - अगरु ठण्ड थकान को कम करता हैं। यह बुखार को कम करने में मददगार हैं और शरीर को ताकत देता है। बुखार में इसका काढ़ा पीना लाभदायक होता हैं। अगुरु की लकड़ी डाल कर रखे जल का सेवन करने से बुखार में लगने वाली प्यास शान्त होती है। अगरु को गिलोय, अश्वगंधा और शतावरी के साथ लें। इससे बुखार के बाद होने वाली थकान और शारीरिक कमजोरी में फायदा होता है।


#- रसायन प्रयोग, बुढ़ापा मुक्ति - 2-5 ग्राम अगुरु के काढ़े को एक लोहे के बर्तन के भीतर लेप कर, रात भर छोड़ दें। सुबह 375 मिली जल में इस अगुरु लेप को घोल कर पीना चाहिए। ऐसे ही रोज एक वर्ष तक नियमित सेवन करने से बुढ़ापे के कारण होने वाली बीमारियों से मुक्ति मिलती है तथा लंबी तथा स्वस्थ आयु की प्राप्ति होती है।

#- आयुष रसायन - 2-5 ग्राम अगुरु के चूर्ण को गाय के दूध के साथ रोज एक साल तक पीने से बल, आयुष्य आदि रसायन गुणों की प्राप्ति होती है।

#- - पान केनपत्ते में 1-2 बूँद अगुरु तेल डालकर मुख में नियमित धारण करने से बल की वृद्धि होती है।


#- वाजीकरण,कामशक्तिवर्धन - पान के पत्ते में 1-2 बूंद पुराने अगुरु तेल (Agaru Oil) को डालकर मुंह में रखने से ( कामोत्तेजना व वाजीकरण में वृद्धि होती है। ) सेक्सुअल पॉवर या सेक्स की ताकत बढ़ती है।

#- हिक्का रोग - अगरु चूर्ण 4 ग्राम में मधु मिलाकर सेवन करें , हिचकी आने का मुख्य कारण होता है वात दोष का असंतुलित हो जाना। अगरु में वात शामक गुण पाए जाते है इसलिए यह इस रोग को रोकने में मदद कर सकता है।  


#शरीर का कोई अंग सुन्न पड़ना - अगरु चूर्ण 5 ग्राम को मधु मिलाकर सेवन करे , शरीर के सुन्न पड़ जाने का मुख्य कारण वात दोष का बढ़ जाना होता है। ऐसे में अगरु के वात शामक गुण शरीर के सुन्नपन को दूर करने में मदद करता है।


#- त्वचारोग - अगरू काण्ड को पीसकर या घिसकर लेप बनाकर लगाने से त्वक विकारो मे लाभ होता है । अगरु में त्वगदोषहर गुण होने के कारण यह चेहरे के दाग धब्बों को कम करने में भी मदद करते हैं।  



#- जंघा सुन्न होना - अगरु काण्ड को घिसकर लेप बनाकर लगाने से लाभ होता है , जाँघ का सुन्न होना जाना एक ऐसी अवस्था है जो  वात दोष के असंतुलित होने के कारण होती है अगरु में वात शामक गुण होने के कारण यह इस अवस्था से राहत दिलाने में उपयोगी हो सकती है।  


#-कृमि रोग - अगरू सार का स्नेह 3-5 ग्राम चूरण में मधु मिलाकर सेवन करने से उदरकृमियों का नाश होता है।

#- व्रण - अगरू काण्ड को घिसकर लेप बनाकर या अगरू तैल लगाने से दुष्ट व्रण का भी शोधन कर रोपण करता है।

#- जांगमविष , विषदंश - अगुरु की लकड़ी को पीसकर लेप करें। इससे सांप, बिच्छु आदि विषैले जीवों द्वारा काटे जाने पर चढ़ने वाले विष उतर जाता है। इससे दर्द आदि विषाक्त प्रभाव खत्म होतेा है।




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