Tuesday, 13 January 2015

( ३० ) - गौ - चिकित्सा.अण्डकोषरोग।

( ३० ) - गौ - चिकित्सा.अण्डकोषरोग।

१ - नंदी, साँड़ के अण्डकोष ( पोतो ) में सूजन
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कारण व लक्षण - साँड़ के अण्डकोषो में अचानक चोट लगने पर या वायुविकार ( बादी ) होने पर पोतों में सूजन आती है । तथा साँड़ को बेचैनी रहती है । वह पिछलेवाले दोनों पैर फैलाकर खड़ा रहता है और अक्सर उसको बुखार भी बना रहता है ।

१ - औषधि - नीम की पत्तियों तथा नमक का उबला हुआ पानी से गुनगुना होने पर दोनों समय झराई ( सेंकना)
चाहिए, फिर रूई द्वारा पानी को पोंछकर आग वर्णित दवाई लगानी चाहिए । विधारा की पत्ती ६० ग्राम , नारियल तैल ६० ग्राम , विधारा की पत्तियों को बारिक पीसकर कपडेद्वारा रस निकालकर उसे तैल में मिलाकर , गुनगुना करके रोगी के पोतों पर दोनों समय आराम होने तक मालिश करे ।

२ - औषधि - मालती बेल का पञ्चांग २४ ग्राम , नारियलतैल ४८ ग्राम , मालतीबेल को महीन पीसकर तैल में मिलाकर साँड़ के पोतों पर आराम होने तक मालिश करें ।

३ - औषधि - पलाश ( ढाक ) के फूल ९६० ग्राम , पानी १० लीटर , फूलों को पानी में उबालकर गुनगुना होने पर पानी से फूल निकालकर एक कपड़े में रखकर साँड़ के पोतों पर बाँध देना चाहिए । और उसी गरम पानी से पहले पोतों को सेंकना चाहिए । यह क्रिया आराम आने तक करनी चाहिए ।

४ - औषधि - सूर्यमुखी के फूल ९६० ग्राम , पानी १० लीटर , फूलों को पानी में डालकर उबालना चाहिए फिर गुनगुने पानी से पोतों की दोनों समय ,आराम आने तक सिकाई करनी चाहिए ।

५ - औषधि - सूर्यमुखी के बीज ६० ग्राम , नारियल तैल १२० ग्राम , बीजों को महीन पीसछानकर तैल में मिलाकर गरम करना चाहिए और गुनगुना होने पर रूई को फैलाकर यह पेस्टउसके ऊपर फैलाकर पोतों पर रखकर पट्टी बाँध दें यह क्रिया आराम होने तक दोनों समय करनी चाहिए ।

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२ - नंदी का स्खलित होना
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१ - बैल ( साण्ड ) व भैंसा या अगली टाँगों में ही वीर्य निकालने ( स्खलित ) लगता है ,झूरने लगता है --ऐसी स्थिति में गेरू १ किलो , गेहूँ का आटा १ किलो, गेरू कूटछानकर आटे में मिलाकर १००-१०० ग्राम , की खुराक बनालें । एक खुराक को एक किलो पानी में भिगोकर रख दें ।तथा प्रात: उठकर नाल से दवा पिला दें ।सभी खुराक प्रतिदिन प्रात: ही देवें ।



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( ३२ ) - गौ- चिकित्सा - अँजीर रोग ।

( ३२ ) - गौ- चिकित्सा - अँजीर रोग ।

अँजीर रोग
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४ - अंजीर बेलरोग -( गले में बड़ी -बड़ी गाँठें बन जाना और पककर फूटना ) --:- तूतीया ( नीला थोथा ) -३० ग्राम , मूर्दा सिंह-२० ग्राम , सफ़ेद तैल - १०० ग्राम , पीस छानकर तीनों को आपस में मिलाकर मरहम बना ले ।
गाँठों पर प्रतिदिन मरहम लगाये पर ध्यान रहें कि हम हाथ से न लगावें क्योंकि लगाने वाले को नुक़सान हो सकता है ।

५ - अंजीर बेल -- तूतीया -३० ग्राम , मूर्दा सिंह - १० ग्राम , बबना का तैल - १०० ग्राम , तारपीन का तैल ५० ग्राम , पीस छानकर चारों को आपस में मिलाकर मरहम बना लेवें । प्रतिदिन गाँठों पर लगाये लाभ अवश्य होगा। इसे भी हाथ से न लगायें ।



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(२) - गौ - चिकित्सा ,दूध बढ़ाने के लिए ।

(२) - गौ - चिकित्सा ,दूध बढ़ाने के लिए ।

रोग - दूधारू गाय व भैंस का दूध बढ़ाने के उपाय ।

औषधि - २०० से ३०० ग्राम सरसों का तेल , २५० ग्राम गेहूँ का आटा लेकर दोनों को आपस में मिलाकर सायं के समय पशु को चारा व पानी खाने के बाद खिलायें इसके बाद पानी नहीं देना है ओर यह दवाई भी पानी के साथ नहीं देनी है। अन्यथा पशु को खाँसी हो सकती है । पशु को हरा चारा व बिनौला आदि जो खुराक देते है वह देते रहना चाहिए ।७-८ दिनों तक खिलाए फिर दवा बन्द कर देनी चाहिए ।


( १ ) - गौ - चिकित्सा .थनरोग।

( १ ) - गौ - चिकित्सा .थनरोग।

थनरोग
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१ - थन फटना
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कारण व लक्षण - कभी - कभी जब अधिक ठण्ड पड़ती हैं और हवा भी अत्यन्त ठंडी चलती हैं तब अक्सर मादा पशु के थन फट जाते हैं । कभी - कभी दूध पीते बच्चे भी थन काट लेते हैं । भैंसों के कीचड़ में बैठने के कारण थन फट जाते है । तार लग जाने पर भी थन फट जाते हैं । गौशाला में गन्दगी और गढ़नेवाली जगह में बैठने के कारण भी थन फट जाते हैं ।

१ - औषधि - कोष्टा ४ नग , गाय के मक्खन या घी २४ ग्राम , कोष्टे को जलाकर , घी या मक्खन में मिलाकर , मरहम बनना चाहिए । फिर रोगी पशु के कटे हुए थन में दोनों समय, आराम होने तक , लगाना चाहिए । अगर दूधारू पशु हो , तो निकालने के पहले और बाद में , दोनों समय आराम होने तक यह मरहम लगाया जाय। इससे अवश्य आराम आयेगा ।

२ - औषधि - मधुमक्खियों के छत्ते का मोमदेशी १२ ग्राम , गाय का मक्खन या घी १२ ग्राम , दोनों को मिलाकर , गरम करके , मरहम बना लें । फिर रोगी के फटे हुऐ थन को दोनों समय , आराम होने तक , लगाया जाय ।

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२ - थन की सूजन


कारण व लक्षण - दूधारू पशुओं का दूध निकालते समय मनुष्य को वायु सरता है तो यह रोग उत्पन्न हो जाता है । दूध निकालते समय जब वायु सरता हो तो उस समय थोड़ी देर हाथ से थन को छोड़ देना चाहिए । भैंसों को कीचड़ आदि में फुंसियाँ हो जाती हैं । दूधारू पशुओं के थनों में फुन्सियाँ हो जाती हैं । कभी - कभी वे पक भी जाती हैं और उनसे रक्त या पीप बहता रहता है । दूध निकालते समय मादा पशु के थनो में दर्द होता है ।

१ - औषधि - हल्दी १२ ग्राम , सेंधानमक ९ ग्राम , गाय का घी ३६ ग्राम , सबको महीन पीसकर , घी में मिलाकर , रोगी पशु को दोनों समय, दूध निकालने के पहले और दूध निकालने के बाद , अच्छा होने तक ,लगायें ।

२ -औषधि - रोगी मादा पशु के थनो में नीम के उबले हुए गुनगुने पानी सें सेंकना चाहिए । सेंककर दवा लगा दी जाय ।

३ - औषधि - तिनच ( काला ढाक ) की अन्तरछाल को छाँव में सुखाकर, बारीक कूटकर, पीसकर तथा कपडें में छानकर १ ० ग्राम , पाउडर और १२ ग्राम गाय का घी , में मरहम बनाकर , रोगी पशु को , दोनों समय , अच्छा होने तक लगाना चाहिए ।
टोटका -:-
आलोक -:- कभी - कभी थनों में से ख़ून निकलने लगता है। ऐसी दशा में नीचे लिखा उपाय करना चाहिए ।

१ - औंधी जूती पर दूध की धार मारनी चाहिए और थन को दूध से पूरा- पूरा ख़ाली करना चाहिए ।

२- थन को रोज़ाना दोनों समय पत्थरचटा की धूनी देनी चाहिए।

३ - कोष्टा १० नग, गाय का घी २४ ग्राम , कोष्टे को जलाकर , महीन पीसकर , कपड़े से छानकर , घी में मिलाकर , दूध निकालने के पहले और दूध निकालने के बाद , दोनों समय लगाना चाहिए ।

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३ -
थन में दाह
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कारण व लक्षण - यह रोग दूधारू पशु को अधिक होता हैं । मादा पशु जब बच्चा जनता है , तो कमज़ोर हो जाता हैं । उसके दूग्धकोष में दूग्धउत्पादन की क्रिया ज़ोरों से होने लगती है । ऐसी हालत में कमज़ोर मादा पशु के स्वास्थ्य पर बहुत बुरा असर पड़ता हैं । मादा पशु गंदी जगह में बैठनें , उठनें , ख़राब हवा लगने और असमय में दूध दुहने से तथा दूग्ध- कोष में अचानक मार लगने से , यह रोग उत्पन्न होता है ।
लक्षण - मादा पशु का दूग्ध सूजकर लाल हो जाता है । पहले तो थनो में से दूध कम निकलता है , कुछ समय बाद थनों से सड़ी और गन्दी दुर्गन्ध आती है । छिबरेदार दूध निकलता है । कभी - कभी पीव और रक्त के गठिये भी निकलते हैं ।रोगी पशु अपने पिछले पाँव फैलाकर खड़ा रहता है । वह अधिक समय बैठ नहीं सकता । पशु को बुखार भी अधिक रहता है ।

१ - औषधि - दूध निकालते समय पूरा - पूरा दूध निकाला जाय और फिर बाद में थनो पर गाय का घी मला जाय ।

२ - औषधि - नीम के उबले हुऐ गुनगुने पानी से रोगी पशु के दूग्धकोष को दोनों समय , आराम होने तक , सेंका जाय और फिर नीचे लिखें लेप किये जायें । आँबाहल्दी २४ ग्राम , फिटकरी १२ ग्राम , गाय का घी ४८ ग्राम , दोनों को महीन पीसकर , छानकर , घी में मिलाकर , रोगी पशु के आवडे मे , दोनों समय आराम होने तक लेप करें
३-औषधि - नयीकन्द ( कटूनाई ) ६० ग्राम , गाय का घी ६० ग्राम , नयी कन्द को महीन पीसकर , छानकर , घी में मिलाकर , रोगी पशु को , दोनों समय , आराम होने तक ,लेप किया जाय ।

आलोक -:- रोगी पशु को बाँधने के स्थान पर नर्म घास या रेत बिछायी जायँ ।

४ - थनेला रोग
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१ - औषधि - गाय के थन में गाँठ पड़ जाना व थन मर जाना एेसे मे । अमृतधारा १०-१२ बूँद , एक किलो पानी में मिलाकर ,थनो को दिन मे ३-४ बार धोयें यह क्रिया ५ दिन तक करे । और गाय को एक मुट्ठी बायबिड्ंग व चार चम्मच हल्दी प्रतिदिन देने से लाभ होगा ।एक मसरी की दाल के दाने के बराबर देशी कपूर भी खिलाऐ ।

२ - औषधि - थनेला- सीशम के मुलायम पत्ते लेकर बारीक पीसकर सायं के समय थनो पर लेप करें और प्रात: २५० ग्राम नीम की पत्तियाँ १ किलो पानी में पकाकर जब २५० ग्राम रह जाये तो पानी को सीरींज़ में भरकर थन में चढ़ा दें ।और थन को भींचकर व दूध निकालने के तरीक़े से थन को खींचें तो अन्दर का विग्रहों बाहर आयेगा। ऐसी क्रिया को प्रात: व सायं १००-१०० ग्राम पानी बाहर -भीतर होना चाहिए ।

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५ - थन का फटना व कटने पर ।
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१ - औषधि - भाभड़ का पूराने से पूराना बाण ( रस्सी ) को जलाकर भस्म कर लें, और नौनी घी ( ताज़ा मक्कखन ) में भस्म को मिलाकर मरहम तैयार हो गया है , अब दूध निकालकर थन धोकर मरहम को लगाये , नित्य प्रति लगाने से जल्दी ही ठीक होगा ।

२ - थन फटना ( थानों में दरारें पड़ना ) रूमीमस्तगीं असली - ३ ग्राम , शुद्ध सरसों तैल -२० ग्राम , जस्त - १० ग्राम , काशतकारी सफेदा -२० ग्राम , सिंहराज पत्थर - १० ग्राम , पपड़ियाँ कत्था -५ ग्राम ।
रूमीमस्तगीं को सरसों के के तैल में पकाने लेवें । और बाक़ी सभी चीज़ों को कूट पीसकर कपडछान कर लें फिर पके हूए सरसों के तैल में मिलाकर मरहम बना लें ।
दूध निकालने के बाद थनो को धोकर यह

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६ - गाय की बीसी उतरना
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१ - कारण व लक्षण -- गाय के जड़ ,बाॅख पर व उससे ऊपर के हिस्से में सूजन आकर लाल हो जाता है यह बिमारी गर्भावस्था में अधिक होती है । बाॅख के ऊपर का हिस्सा पत्थर जैसा हो जाता है । और दुखता भी है , और बाॅख बड़ा दिखाई देता है ।
गर्म पानी में आवश्यकतानुसार नमक डालकर घोले और कपड़े से भिगोकर सिकाई करें और पानी के छबके मार दें । सिकाई करके ही ठीक होगा , सिकाई के बाद सरसों का तैल लगा कर छोड़ देवें । यदि गाय दूधारू है तो दूध निकालने के बाद सिकाई तैल लगायें ।

२ - एक ईंट को तेज़ गरम करके ऊपर को उठाकर थन से तेज़ धार मारे, ईंट पर दूध पड़ते ही जो भाप निकलेगी उससे ही बीसी ठीक होगी और गाय को मिठा न दें

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७ - दूध में ख़ून का आना ।
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१ - दूध में ख़ून आना,बिना सूजन के -- सफ़ेद फिटकरी फूला २५० ग्राम , अनारदाना १०० ग्राम , पपड़ियाँ कत्था ५० ग्राम , कद्दू मगज़ ( कद्दूके छीले बीज ) ५० ग्राम ,फैड्डल ५० ग्राम ,
सभी को कूटपीसकर कपडछान कर लें । ५०-५० ग्राम की खुराक बनाकर सुबह-सायं देने से ख़ून आना बंद हो जाता है ।
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८ - डौकलियों दूध उतरना ।
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१ - डौकलियों दूध उतरना ( थोड़ी -थोड़ी देर बाद पवसना,( दूध उतरना ) एक बार में पुरा दूध नहीं आता ) रसकपूर -१० ग्राम , टाटरी नींबू - ३० ग्राम , जवाॅखार -३० ग्राम , फरफेन्दूवाँ - ५० ग्राम , कूटपीसकर कपडछान करके १०-१० ग्राम की खुराक बना लेवें । १० ग्राम दवा केले में मिलाकर रोज खिलाए ।

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९ - निकासा ।
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कारण व लक्षण - निकासा में थनो व ( ऐन - जड ) बाँक में सूजन आ जाती हैं ।

१ - सतावर -१०० ग्राम ,फरफेन्दूवाँ -१०० ग्राम , कासनी-१०० ग्राम ,खतमी- ५० ग्राम , काली जीरी -५० ग्राम , कलौंजी -३० ग्राम , टाटरी -३० ग्राम कूटपीसकर छान लेवें ।
इसकी दस खुराक बना लेवें । और एक किलो ताज़े पानी में मिलाकर नित्य देवें ।

२ - औषधि - निकासा- निकासा मे कददू को छोटे - छोटे टुकड़ों में काटकर गाय- भैंस को खिलाने से भी बहुत आराम आता है ।


३ - गाय- भैंस व अन्य पशु का बुखार न टूटने पर -- ऐसे मे खूबकला २०० ग्राम , अजवायन २०० ग्राम , गिलोय २०० ग्राम , कालीमिर्च २० दानें , बड़ी इलायची ५० दाने , कालानमक ५० ग्राम , सभी दवाईयों को कूटकर ढाई किलो पानी में पकाकर जब १ किलो पानी शेष रहने पर छानकर २००-२००ग्राम की पाँच खुराक बना लें । और सुबह -सायं एक-एक खुराक देवें , केवल पाँच खुराक ही देवें ।

४ - गाय -भैंस के थनो में सूजन व रक्त आना ( निकासा )--- ऐसे में गाय थन को हाथ नहीं लगाने देती , और दूध सूख जाता है । एैसे में आक़ ( मदार ) के ढाई पत्ते तोड़कर उनका चूरा करके गुड़ में मिला लें और एक खुराक बना लें , पशु को खिला दें , यदि आवश्यकता पड़ें तो दूसरी खुराक दें ।

५ -गाय-भैंस का थन के छोटा होजाना-- १किलो नींबू का रस , १किलो सरसों का तैल , आधा किलो चीनी , इन सब दवाईयों को मिलाकर छ: हिस्से करलें । नींबू रस व तैल व चीनी मिलाकर खुराक एक दिन में एक या दो बार आवश्यकतानुसार देवें ।

६ - निकासा-- में कालीजीरी १०० ग्राम पीसकर , २ टी स्पुन गुड़ में मिलाकर तीन चार दिन एक समय देने से ठीक होगा।

८ - थन छोटा होने पर-- रसकपूर १००मिलीग्राम ( रसकपूर एक ज़हर है ) इसिलिए मात्रा ठीक देनी चाहिए । एक खुराक में चावल के दाने के आधे हिस्से के बराबर खुराक बनानी चाहिए , एक केला लेकर उसे चीरकर उसमें रसकपूर रखकर पशु को खिलायें , यह दवा एक समय ५-६ दिन तक देवें ,इस औषधि को सभी प्रकार के इलाज़ के बाद अपनाये क्योंकि इस दवा के प्रयोग के बाद अन्य दवा काम नही करेगी इस दवाई का प्रयोग अति होने पर दी जाती हैं ।




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( ४ ) - गौ - चिकित्सा.योनिभ्रंश ।

( ४ ) - गौ - चिकित्सा.योनिभ्रंश ।

...................गौ - चिकित्सा-योनिभ्रशं रोग.- बच्चेदानी का बाहर निकल आना ............
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१ - योनिभ्रशं रोग ( गाय के बैठने के बाद योनि से शरीर बाहर आना ) - यह बिमारी गाय- भैंसों में होती है ।बच्चेदानी का बाहर निकल आना , मुख्यत: यह रोग दो कारणों से ज़्यादा होता है ।
१- पशु के शरीर में कैल्शियम की कमी के कारण ज़्यादा होता है ।
२- गाय- भैंस गाभिन अवस्था में जिस स्थान पर बाँधी जाती है उस स्थान के फ़र्श में ढाल होने के कारण । क्योंकि गाय के शरीर में पीछे ही बच्चे का ज़ोर रहता है और पिछले पैरों मे ढाल हाे तो यह बिमारी अवश्य होती है ।।
३- यह रोग कमज़ोर व वृद्ध मादा पशुओं को अधिक होता है ,जिन मादा पशुओं को शीत, गर्मी की शिकायत होती है उन्हें भी यह रोग होता है ।
४ - लक्ष्ण- प्रसवअवस्था से पहले या बाद में रोगी पशु बच्चे काे या जेर को बाहर निकालने के लिए ज़ोर लगाता है ,तब बच्चेदानी अक्सर बाहर आ जाती है ।पशु की बच्चेदानी बाहर उलटकर निकल जाती है । पशु अत्यन्त बेचैन रहता है ।उसे ज्वर आ जाता है ।उसके होंठ सुख जाते है । वह कराहता है ।कभी-कभी कापँता है ।वह ऐंठता रहता है ।

२ - औषधि - कलमीशोरा २५० ग्राम , सत्यनाशी बीज २५० ग्राम , खाण्ड २५० ग्राम , सत्यनाशी बीजों को कूटकर लड्डू बना लें और खाण्ड में कलमीशोरा मिलाकर आधा लीटर पानी में घोलकर २-३ नाल बनाकर पशु को एकसाथ पिलाऐ , एकबार दवा देने से ही बिमारी ठीक हो जाती है ।
यदि किसी गाय-भैंस के बारे मे शसयं हो कि इसे योनिभ्रशं हो सकता है तो उसे बिमारी होने से पहले भी दवा दें सकते है ।

३ - औषधि - कलमीशोरा ५०० ग्राम , इश्बगोल ५०० ग्राम , माजूफल ४०० ग्राम , बच १०० ,तज १०० ग्राम , कुटकर चार खुराक बनालें । यह औषधि किसी भी विधि से पशु के पेट में जानी चाहिए , पशु अवश्य ठीक होगा ।

४ - औषधि- सत्यनाशी बीज २५० ग्राम , माई १५० ग्राम , सुपारी १५० ग्राम ,इश्बगोल भूसी ५० ग्राम ,इश्बगोल बीज २५० ग्राम , इश्बगोल को छोड़कर बाक़ी सभी दवाइयों को कूटकर इश्बगोल को मिलाकर ५०-५० ग्राम की खुराक बना लें ।एक खुराक को ५०० ग्राम पानी में डालकर रात्रि में रख दें प्रात: हाथ से मथकर पिला दें । १७ दिन तक देने से लाभ होगा ।

५ -औषधि - महाबला चूर्ण १०० ग्राम , सुपारी ५० ग्राम , चने का बेसन २५० ग्राम ,महाबला ( खरैटी ) के पत्तों का चूर्ण बनाकर पाँच खुराक बना लें और पानी मिलाकर नाल से ५ दिन तक देवें ।

६ -औषधि - तिलपत्री के पौधों को लेकर ताज़ा कुट्टी काटकर भी दें सकते है नहीं तो चूर्ण बनाकर घोलकर नाल से दे सकते है । या ताज़ा पौधों का रस निकालकर एक - एक नाल पाँच दिन तक देने से रोग ठीक होता है ।

७ - आलोक -:- ऐसे रोगी पशु को प्रसव के समय ,एक पाॅव शराब को आधा लीटर पानी में डालकर पिलाऐ ।इससे प्रसव आसान होगा, पशु को दर्द कम होगा ।
रोगी पशु के अगले दोनों पैर घुटने के बीच एक रस्सी द्वारा बाँधकर ज़मीन पर उसका अगला गोडा टीका देंना चाहिऐ । रोगी के पिछले पैरों को याने पिछले धड़ को किसी लकड़ी ,पाट,वृक्ष आदि के सहारे स्थिर किया जाये । फिर रोगी के रोग के स्थान को नीम के उबले हुऐ कुनकुने पानी से सावधानी के साथ धोया जाय । इससे अंग नर्म होगा और उसे बैठाने में आसानी होगी। इसके बाद इस अंग पर देशी शराब का छिड़काव देकर सावधानी के साथ उस भाग को धीरे-धीरे हाथ ऊपर से नीचे घुमाकर यथास्थान बैठाना चाहिऐ । फिर उसे पतली रस्सी का फन्दा बनाकर बाँध देना चाहिऐ, जिससे दुबारा बाहर न आ सकें ।

८ - औषधि - योनिभ्रशं रोग- सूर्यमुखी का फूल १६०तोला या १९२०ग्राम, पानी १० लीटर , फूल को बारीक कूटकर पानी में ख़ूब उबाला जाय ।फिर कुनकुने पानी को छानकर अंग को धोना चाहिऐ । उसके बाद माजूफल दो तोला ( २४ ग्राम ) महीन पीसकर अंग पर छिटक देना चाहिऐ ।फिर हाथ द्वारा सावधानी से अंग को ऊपर नीचे की ओर घुमाकर यथास्थान बैठाना चाहिऐ ।
अंग को बैठाने से पहले हाथ के नाख़ून काट लें ,छल्ला या अँगूठी उँगली में होतों उसे निकाल देना चाहिऐ । हाथ में घी या तैल जैसा चिकना पदार्थ लगाकर, अंग को सावधानी से धीरे-धीरे बैठाया जाऐ । रोगी के जीने मे १० तोला ( १२० ग्राम ) डाली जाये। तथा कालीमिर्च ३० ग्राम , घी २४० ग्राम ,मिर्च को पीसकर कुनकुने गरम घी में मिलाकर , रोगी को दोनों समय ४ दिन तक , नाल या बोतल द्वारा पिलाया जाये ।

९ -औषधि - योनिभ्रशं रोग - दही ४८० ग्राम ,घृतकुमारी का गुदा २४० ग्राम ,पानी २४० ग्राम ,गूदे को दही में मथकर ,उसमें पानी मिलाकर ,रोगी पशु को पिलाया जाय ।
१० -औषधि - मसूर की दाल ६० ग्राम , दही ९६० ग्राम , मसूर की दाल को तवे पर जलाकर ,पीसकर ,छानकर ,दही में मथकर पानी में मिलाया जाय । फिर रोगी पशु को दोनों समय पिलाया जाय ।
११ - औषधि - गाय का घी २४० ग्राम ,माजूफल २ नग , माजूफल को पीसकर ,कुनकुने घी में मिलाकर , रोगी पशु को ५ दिन तक पिलाया जाय। यह दवा दोनों समय देनी चाहिऐ ।

१० -औषधि - इस रोग की आशंका होतों पशु को कालीमिर्च और घी वाली दवाई देना लाभदायक होगा ।इससे प्रसव में कठिनाई नहीं होगी । इसके आलावा २ चिकनी सुपारियाँ को जला लें और उस राख को १२० ग्राम घी में मिलाकर इसी मात्रा में सुबह ,शाम और रात्रि में तीन बार पिलायें ।
टोटका -:-
११ -औषधि - योनिभ्रशं रोग- सत्यनाशी के तने का रस तथा पत्तियों का रस निकालकर कपड़े में छान लें और बारीक कपड़ा रस में भिगोकर बैठी हुई गाय के बाहर निकले गर्भाशय पर चिपकाकर ढक दें ,तुरन्त ही गर्भाशय अन्दर चला जाता है और अपने आप सैट हो जायेगा और फिर कभी बाहर नहीं आयेगा । और गाय ठीक हो जायेगी ।
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११ - औषधि - योनिभ्रशं रोग ,दतना, बेल बाहर आना,( गाभिन गाय की योनि से बैठते ही बच्चा बाहर की ओर निकलना ) - चूना - १ किलो , पाँच किलो पानी में उबालकर ,ठन्डा कर, बीच- बीच में हिलाते रहे तीन दिन तक । और तीसरे दिन पानी को निथार कर ५० M L पानी एक माह तक रगुलर देनें से लाभ होता हैं । यह रोग यदि कैल्शियम की से हुआ तो ठीक होगा । नहीं तो गाय जहाँ पर बँधती है कही वह फर्श ढालदार तो नहीं ,क्योंकि गाभिन गाय को समतल फ़र्श पर ही बाँधते है ।

१२ - औषधि - योनिभ्रशं रोग गाय- भैंस को-- छोटी दूद्धी ( हजारदाना ) को उखाड़ कर धोकर उसका रस निकाल लें,एक नाल भरकर प्रतिदिन सुबह सायं ३-४ दिन तक देवें , अधिक से अधिक ८ दिन दवाई दें, यदि रस्सीकी कैची बाँधने की स्थिति में भी दवाई अच्छा काम करती है ।



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(९)-२- गौ- चिकित्सा - पेटरोग-अजीर्ण रोग।

(९)-२- गौ- चिकित्सा - पेटरोग-अजीर्ण रोग।

१ - अजीर्ण - पेटरोग
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कारण व लक्षण - पित्त, जल , या कठोर भोजन करने से यह बिमारी उत्पन्न होती हैं , पेट में भंयकर दर्द भारीपन , गुडगुहाट , साँस लेने में कष्ट का अनुभव करता है तथा जूगाली नहीं कर पाता हैं , दाँत किटकिटाना इसका प्रमुख लक्षण हैं तथा गोबर पशु या तो करता नही हैं और यदि करता भी हैं तो अत्यन्त दुर्गन्धपूर्ण व कच्चापक्का करता हैं ।
इस रोग में पशु का पेट फुलाता नहीं हैं किन्तु बायीं ओर कुछ भारीपन मालूम होता हैं । पेट पर अंगुली मारने से ढब - ढब शब्द की आवाज़ नहीं आती हैं , ब्लकि पेट कठोर मालूम होता हैं । इस बिमारी में पशु गोबर करता ही नहीं हैं । और अगर करता भी हैं तो खायी हूई वस्तु का कच्चा अंश आने लगता हैं । पशु कभी - कभी नथुनों को ऊपर खिंचता हैं तथा ज़मीन पर दाढ़ी रखता हैं और गले से घों - घों शब्द की आवाज़ आती हैं । कभी - कभी पशु दाहिनी करवट से लेटना चाहता हैं ।

# - पेट फुलने और अजीर्ण में एक विशेष अन्तर हैं कि पेट फुलने पर रोगी पशु बेचैन रहता हैं । अजीर्ण रोग का रोगी पशु बेचैन नहीं रहता ब्लकि चुपचाप लेंटा रहता हैं ।

# - अजीर्ण में पशु को कुछ दिनों तक खाना नहीं देना चाहिए यदि आवश्यक हो तो हरा मुलायम घास व चावल का माण्ड देना चाहिए । इसके आलावा दलिया चोकर व जल्दी पचने वाला चारा ही देना चाहिए ,
क़ब्ज़ व दर्द व पेट सम्बन्धी दवाएँ देते रहना चाहिए तथा अजीर्ण में जूलाब देकर ही अन्य दवाएँ देना चाहिए व दवायें समयानुसार देना चाहिए ।

१ - औषधि - जूलाब , विरेचन विधी - अलसी का तेल ५० ग्राम , मुसब्बर १०० ग्राम , दोनों को पर्याप्त मात्रा में चूल्हे पर पका लें । जब जब वह भलीप्रकार घूल जायें तब उसमें २-३ जमाल घोटें की गीरी डाल दें और आवश्यकतानुसार गन्ने की शीरा मिला लें इसके बाद रोगी पशु की ताक़त के अनुसार देवें । इस दवा से उनका पर्याप्त मल ( गोबर ) बाहर आ जायेगा लेकिन ध्यान रहें की जमालघोटा की गीरी तीन से ज़्यादा नहीं होनी चाहिए वरना लेने के देने पड़ जायेंगे ।
उपचार- औषधियाँ :- कालीमिर्च १५ ग्राम , भांग पावडर १५ ग्राम , ज़ीरा पावडर ९० ग्राम , पुराना गुड़ १०० ग्राम , देशी शराब १२५ मिलीग्राम , गरमपानी १५०० ग्राम , में मिलाकर पशु को दिन में तीन - चार बार पिलायें ।
२ - औषधि :- बड़ी बच १० ग्राम , कालीमिर्च १० ग्राम , अजमोदा १० ग्राम , हींग १० ग्राम , सेंधानमक १० ग्राम , चने का आटा १०० ग्राम , सभी को मोटा - मोटा कुटकर चने के आटे में मिलाकर गोलियाँ बनाकर रखँ लेंवे , इन गोलियों को दिनभर में आवश्यकतानुसार देनें से लाभ होता है।

३ - औषधि :- सरसों या तिल का तेल ५०० ग्राम , तारपीन तेल २५ ग्राम , मिलाकर नाल द्वारा पिलानें से लाभ होता हैं ।

४ - औषधि :- सोंठ पावडर ५ ग्राम , अरण्डी का तेल ५०० ग्राम , मिलाकर नाल द्वारा पिलाने से लाभ होता हैं ।
५ - औषधि :- अजीर्णहारी चूर्ण २५-३० ग्राम , रोगी को देते रहने से वह स्वस्थ हो जाता है तथा अन्य रोगों का शिकार होने से बचा रहता है ।

अजीर्णहारी चूर्ण बनाने की विधी -- हल्दी , राईदानें , हींग , सफ़ेद ज़ीरा , काला ज़ीरा , त्रिफला , कालानमक , सेंधानमक , सहजन ( सोहजना ) छाल , त्रिकुटा , अजवायन , सुहागा खील ,फिटकरी खील , चीता , कचरी , बच , बायबिड्ंग , जवाॅखार , सज्जीखार , प्रत्येक वस्तु को समान मात्रा में लेकर कुटपीसकर छानकर रख लें आवश्यकता पड़ने पर पशुओं को देंने से लाभँ होता है ।

६ - औषधि - सेंधानमक , अजवायन , भाँग , नागोरी अश्वगन्धा प्रत्येक को २५०-२५० ग्राम , सोंचर नमक ५०० ग्राम , सांभर नमक सवाकिलो, खुरासानी अजवायन ( अजमेंदा ) ओर सज्जी २५०-२५० ग्राम , इन सबको कूटछानकर बराबर मात्रा में चने के आँचें में मिलाकर रखँ लें १० ग्राम की मात्रा में प्रात: काल पशु को दें इससे लाभँ होगा ।


२ - अपचन
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कारण व लक्षण - पशुओ में अपचन की बिमारी के कई कारण होते है -पशु कभी-कभी लालच वंश अधिक खा जाता है, जिससे उसे अपचन या बदहजमी हो जाती है । सडा- गला और गन्दा चारा, दाना खाने से भी अपचन का रोग हो जाता है । पशु कभी-कभी अधिक कमज़ोर हो जाने पर अधिक खा जाता है, परन्तु हज़म न कर पाने के कारण उसे अपचन रोग हो जाता है ।
जब पशु सुस्त एवं चिन्तित मालूम होता है । दिन प्रतिदिन वह अधिकाधिक कमज़ोर होकर सूखता चला जाता है । दूधारू पशु के दूध देने की मात्रा दिनोंदिन घटती जाती है । जूगाली करने में अनियमितता होती है। वह पानी अधिक पीता है । वह मोटा, पर्तदार , सूखापन लिये हुए लेंड़ी की तरह गोबर करता है गोबर करते समय कभी - कभी वह कराहता है। कभी - कभी वह बदबूदार पतला गोबर करता है, उसके मुँह से दुर्गन्ध आती है।

१ - औषधि - मीठा तैल ३६० ग्राम , हींग १२ ग्राम , पानी ४८० ग्राम , काला नमक ६० ग्राम , सबसे पहले पानी को गरम करें । फिर काला नमक महीन पीसकर खौलते पानी में डाल दें और उसे कुछ देर तक उसी में पड़ा रहने दें । जब पानी लगभग ३५० ग्राम , रह जायें तो उसे उतार लें । और उसमें तैल डाल दें । फिर इस घोल को दो बर्तनों के द्वारा ख़ूब फेंट लें । इस तरह घोल कुछ गाढ़ा हो जायेगा । गुनगुने होने पर उसे रोगी को सुबह - सायं रोज़ाना ठीक होने तक पिलाते रहें ।

२ - औषधि - इन्द्रायण २४ ग्राम , गुड़ २४० ग्राम , आँबाहल्दी ६० ग्राम , कंटकरंज ३० ग्राम , फिटकरी २४ ग्राम , पानी ९६० ग्राम , सेंधानमक ६० ग्राम , सबको महीन पीसकर पानी में उबाल दें , फिर दवा ६०० ग्राम , रहने पर रोगी पशु को गुनगुना रहने पर बिना छाने बोतल द्वारा पिला दें । यह दवा रोज़ाना सुबह- सायं ठीक होने तक पिलाते रहें ।

३ - औषधि - बत्तीसा चूर्ण १८० ग्राम , पानी ७२० ग्राम , पानी को नमक डालकर गरम करना चाहिए । फिर नीचे उतारकर घुड़बच को महीन पीसकर उसमें मिला दें । गुनगुना रहने पर रोगी पशु को रोज़ाना सुबह- सायं ठीक होने तक पिलाते रहें ।

४ - औषधि - घुड़बच १२० ग्राम , नमक ९६ ग्राम , पानी ७२० ग्राम , पानी को नमक डालकर गरम करना चाहिए, फिर नीचे उतारकर घुड़बच को महीन पीसकर उसमें मिला दें, गुनगुना रहने पर रोगी पशु को पिला दें ।सुबह - सायं रोज़ाना ठीक होने तक पिलाते रहें।

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३ - दस्त लगना
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अजीर्ण एवं अपन के कारण पशु को कभी - कभी दस्त लग जाते हैं । पशु इस रोग में बार- बार पतला गोबर करता है । पशु कमज़ोर हो जाता है । वह बार- बार थोड़ा - थोड़ा पानी पीता हैं।

१ - औषधि - रोगी पशु को हल्का जूलाब देकर उसका पेट साफ़ करना चाहिए ।रेण्डी का तैल १८० ग्राम , पीसा सेन्धा नमक ६० ग्राम , दोनों को मिलाकर गुनगुना करके रोगी पशु को पिलाया जाय ।

२ - औषधि - गाय के दूध की दही १९२० ग्राम , भंग ( भांग विजया ) १२ ग्राम , पानी ४८० ग्राम , भंग को महीन पीसकर सबको मथें और रोगी पशु को दोनों समय आराम होने तक पिलाया जाय ।

३ - औषधि - विधारा ६० ग्राम , जली ज्वार ६० ग्राम , गाय के दूध से बनी छाछ१४४० ग्राम , ज्वार को जलाकर और पीसकर छाछ में मिलाकर , रोगी पशु को दोनों समय , आराम होने तक , पिलाया जाय ।

४ - औषधि - शीशम की हरी पत्ति २४० ग्राम , पानी ९६० ग्राम , पत्तियों को महीन पीसकर , पानी में घोलकर , रोगी पशु को दोनों समय , आराम होने तक , पिलायें ।

५ - औषधि - विधारा का पेड़ ६० ग्राम , गाय की छाछ ९६० ग्राम , विधारा को महीन कूटपीसकर ,छाछ में मिलाकर , बिना छाने , रोगी पशु को दोनों समय , आराम होने तक , पिलाया जाय ।

६ - औषधि - मेहंदी १२ ग्राम , धनिया २४० ग्राम , पानी ४८० ग्राम , दोनों को बारीक पीसकर , पानी में मिलाकर , एक नयी मटकी में भरकर रख दिया जाय । दूसरे दिन सुबह उसे हिलाकर ९६०ग्राम दवा दोनों समय दें । तीसरे दिन ४८० ग्राम , के हिसाब से ,दोनों समय आराम आने तक यह दवा पिलाते रहे ।

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४ - पटामी रोग ( दस्त रोग )
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गर्मी के दिनों में यह रोग अक्सर होता है । सूर्य की तेज़ गर्मी के कारण यह रोग उत्पन्न होता है । रोगी को पतले दस्त लगते हैं । उसका गोबर बहुत ही दुर्गन्धपूर्ण और चिकना होता है । गोबर के साथ ख़ून और आँते गिरती हैं । रोगी पशु सुस्त और बहुत कमज़ोर हो जाता है । वह खाना - पीना , जूगाली करना बन्द कर देता है । उसके ओढ़ सूख जाते हैं ।

१ - औषंधि - नीम की हरी पत्ती २४० ग्राम , गाय का घी ३६० ग्राम , पत्तियों को पीसकर उनका गोला बना लें और रोगी पशु को हाथ से खिलाना चाहिए । उसके बाद घी को गुनगुना गरम करके पिलाया जाय । अगर पत्तियों को हाथ से न खाये तो उसको पानी में घोलकर बोतल द्वारा पिला देना चाहिए ।दवा दोनो समय ठीक होने तक पिलाना चाहिए ।

२ - औषधि - अरणी की पत्ती १८० ग्राम , ठन्डा पानी ९६० ग्राम , पत्तियों को महीन पीसकर , पानी में मिलाकर , बिना छाने , रोगी पशु को दोनों समय , आराम होने तक , पिलाया जाय ।

३ - औषधि - विधारा के पेड़ १२० ग्राम , गाय के दूध से बनी दही १४४० ग्राम , पानी ९६० ग्राम , बेल को महीन पीसकर , छलनी द्वारा छानकर , दही और पानी में मथकर रोगी पशु को दोनों समय ,आराम होने तक पिलाना चाहिए ।
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५ - पेचिश
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कारण व लक्षण - बदहजमी के कारण अक्सर यह रोग हो जाता है । पशु को ज़्यादा दौड़ाने से भी यह रोग हो जाता है । रोगी पशु बार- बार गोबर करने की इच्छा करता है और वह थोड़ा - थोड़ा रक्तमिश्रित पतला गोबर करता है। और गोबर के साथ उसकी आँते भी कट-कटकर गिरती है ।

१ - औषधि - मरोडफली १२० ग्राम , सफ़ेद ज़ीरा १२० ग्राम , गाय के दूध से बनी छाछ ९६० ग्राम , उपर्युक्त दोनों चीज़ों को बारीक पीसकर ,छाछ में मिलाकर ,दोनों समय आराम होने तक ,पिलाया जाय ।

२ - औषधि - कत्था १२ ग्राम , भांग,विजया १२ ग्राम , बिल्वफल , बेल के फल का गूद्दा १२० ग्राम , गाय के दूध से बनी दही ९६० ग्राम , पानी ४८० ग्राम , कत्था और भांग को बारीक पीसकर , बेल का गूद्दे को पानी में आधे घन्टे पहले गलाकर , उसे मथकर , छान लिया जाय , फिर दही और सबको मिलाकर मथ लिया जाय। रोगी पशु को दोनों समय , आराम होने तक पिलाया जाय ।

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६ - पेट का फूलना
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कारण व लक्षण - सडागला चारा - दाना खा लेने से अक्सर पशु का पेट फूल जाता है । वर्षा - ऋतु के शुरू में लालचवश हरा चारा खा लेने से भी पेट फूल जाता है । समय- समय पर पानी न मिलने पर या खाने के बाद एकदम अधिक श्रम करने पर भी पशु का पेट फूल जाता है । कभी- कभी दाने में चूहे की लेंडी ( चूहे की मिगंन ) खा लेने से भी पेट फूल जाता है ।
पशु बेचैन रहता है । वह अपनी बायीं कोख की ओर देखता रहता है । उसका पेट फूल जाता है । फूली हुई कोख को दबाने से पीली - पीली ढोल की भाँति आवाज़ आती है । पेट में गैस भर जाती है । पशु बार- बार उठता - बैठता है ।

१ - औषधि - अम्बर बेल ( विटीश करनोसा ) ६० ग्राम , नमक ६० ग्राम , गाय के दूध से बनी छाछ १४४० ग्राम , बेल को महीन कुटकर , छाछ में नमक मिलाकर , गला देना चाहिए । २५ मिनट बाद उसे छानकर , रोगी पशु को सायं - सुबह , पिलाते रहना चाहिए ।

२ - औषधि - इन्द्रायण , कडवी कचरी १ नग ,काला नमक ६० ग्राम , अलसी का तैल ४८० ग्राम , हींग ६ ग्राम , सबको बारीक कूटकर , तैल में मिलाकर , गरम करके , गुनगुना रहने पर , बिना छाने ही दें । एक बार में आराम न हो तो दूसरी बार इसी मात्रा में पिलाया जाय । आराम अवश्य होगा ।

३ - औषधि - अरण्डी का तैल २४० ग्राम , काला नमक पीसकर ६० ग्राम , दोनों को मिलाकर गरम करके , गुनगुना होने पर , रोगी पशु को , बोतल द्वारा , पिलाया जाय ।

४ - औषधि - इन्द्रायण, कडवी कचरी १ नग , कालानमक ३० ग्राम , बकरी का पेशाब ९६० ग्राम , कडवी कचरी को महीन कूटकर , नमक और तैल मिलाकर , उसे गरम करना चाहिए । फिर गुनगुना होने पर रोगी पशु को सुबह - सायं िपलाना चाहिए ।

५ - औषधि - मेंढासिगीं ६० ग्राम , सेंधानमक ६० ग्राम , अजवायन ३० ग्राम , पानी ७२० ग्राम , सबको महीन पीसकर , पानी में मिलाकर , गरम करके गुनगुना ही रोगी पशु को बिना छाने , पिलाना चाहिए । पुराना रोग होने पर यही दवा एक बार अच्छे होने तक रोज़ पिलायी जाय ।

६ - औषधि - नमक ६० ग्राम , गोमूत्र १४४० ग्राम , दोनों को मिलाकर , गुनगुना करके , पशु को सुबह - सायं , आराम होने तक , पिलाया जाय ।

७- औषधि - नमक १८० ग्राम , पानी १४४० ग्राम , दोनों को मिलाकर , गुनगुना करके , रोगी पशु को सुबह - सायं आराम होने तक , पिलाया जाय ।

आलोक -:- जिस पशु को यह बिमारी हो उसे २४ घन्टे तक चारा नहीं देना चाहिए । उसे केवल पानी पिलाना चाहिए । बाद में हल्की पतली खुराक देनी चाहिए । और अधिक पेट फूलने पर कभी - कभी पशु की बायीं कोख में बड़े इन्जैकशन की सुई लगाने से पेट की गैस निकलेगी ।

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७ - बछड़ों को दूध के दस्त होना
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कारण व लक्षण - अपचन और अधिक दूध पीने से , अचानक चोट लगने से ,यह बिमारी हो जाती है । छोटे बछड़ों को जब तक वे घास न खायें , तब तक उन्हें पानी नही ं पिलाना चाहिए । नहीं तो उन्हें दस्त लग जाते है । रोगी बछड़े बार - बार सफ़ेद रंग के पतले दस्त करते रहते हैं । दस्त से दुर्गन्ध आती है । बछड़े सुस्त रहते हैं । उन्हें बुखार भी रहता हैं ।

१ - औषधि - हटानी लोध्र ( महारूख , महावृक्ष की अन्तरछाल ६० ग्राम , गाय का दूध २४० ग्राम , छाल को बारीक कूटकर , दूध में मिलाकर , आधा घन्टे तक पड़ी रहने दें । फिर उसे निचोड़कर , छानकर ,रोगी बच्चे को दोनों समय ,आराम होने तक पिलायें ।

२ - औषधि - कालीमिर्च १२ ग्राम , गाय के दूध से बनी छाछ १२० ग्राम , कालीमिर्च को बारीक पीसकर , छाछ में मिलाकर , बिना छाने , दोनों समय रोगी को अच्छा होने तक पिलाया जाय।

३ - औषधि - मुद्रपर्णी ( खाखर बेली ) का पुरा पौधा ३६ ग्राम , गाय के दूध से बनी छाछ १२० ग्राम ,बेली को बारीक पीसकर , छाछ में मिलाकर , रोगी पशु बच्चे को , दोनों समय , बिना छाने आराम होने तक , पिलायें ।

४ - विधारा के पेड़ ३६ ग्राम , गाय के दूध से बनी छाछ १२० ग्राम , विधारा को पीसकर , छाछ में मिलाकर , रोगी बच्चे को , दोनों समय बिना छाने दें ,आराम आने तक देवें ।

५ - औषधि - ज्वार का आटा १२० ग्राम , गाय के दूध से बनी छाछ ३६० ग्राम , ज्वार के आटे का छाछ में मिलाकर , दोनों समय , ऊपर लिखी मात्रा में रोगी बच्चों को , आराम आने तक पिलायें ।

६ - औषधि - रोगी बच्चा जब माता का दूध पीता हो तभी पीछे से उसकी पूँछ खींचकर मूँह से थन छुड़ा देना चाहिए । ऐसा ४-५ बार लगातार , दोनों समय , आराम होने तक , करना चाहिए ।

# - रोगी पशु की पूँछ में झटका न मारें और नहीं खींचें वर्ना उखड़ जाने का भय रहता है जिससे रोगी बच्चे को और अधिक पीड़ा होगी ।

७ - औषधि - रोगी बच्चे की पूँछ की जड़ पर चार तहवाला कपड़ा लपेटकर , ऊपर से सुती से या पतली डोरी से कसकर बाँध देना चाहिए ,जिससे उससे दस्त बन्द हो जायँ । दस्त बन्द होने के बाद उस डोरी को खोल देना चाहिए ।

८ - औषधि - यदि रोगी मादा बच्चा हो उसके मूत्राशय के नीचे और रोगी नर बच्चा हो तो उसके मलद्वार के नीचे एक पतला ३ इंच लम्बा आड़ा दाग दागनी द्वारा लगाना चाहिए ।

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(९)-३-गौ- चिकित्सा - पेटरोग ।

(९)-३-गौ- चिकित्सा - पेटरोग ।



१ - पशु का जुगाली न करना
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यह रोग प्राय: मोटे व ख़राब चारे का खिलायें जाना , चारा खिलाकर तुरन्त काम में जोत देना जूगाली करने का समय न मिलना तथा बदहजमी आदि हो जाना ।
इस रोग में भी पशु को हल्का जूलाब देना चाहिए , ताकि पशु का बिना पचा चारा आदि बाहर निकलकर बदहजमी दूर हो जाय । जूलाब हेतु नीचे फ़ार्मुला है--
१ - औषधि :- अप्समसाल्ट ५०० ग्राम , नमक २५० ग्राम , सोंठ १ छटांक , कलमीशोरा ५०० ग्राम , सभी को आपस में मिलाकर १ लीटर पानी में मिलाकर पशु को पिला दें । उसके बाद पशु पीने के लिए गरमपानी दें तथा खाने वाला सोडा और सौँफ २-२ तौला , चिरायता १ तौला , ईसबगोल ५०० ग्राम , आवश्यकतानुसार गन्ने के शीरे में मिलाकर देना चाहिए , इस प्रकार कुछँ दिनों तक इलाज करने पर पशु स्वस्थ होकर जुगाली करने लगता है और उसका हाज़मा ठीक हो जाता है ।

२ - पशु के मेदे में चारा अटक जाना
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कारण- लक्षण :- जब पशु मुलायम हरा चारा खाते- खाते अचानक सुखा और कड़ा चारा खाने लगता है तो उसे ठीक प्रकार से पचा नहीं पाता और वह उसके मेदे में अड़ जाता है । इसी प्रकार यदि पशु कई दिन का भूखा हो , उस तेज़ भूख में ही उसे सुखा तथा कड़ा चारा खाने को दें दें तो वह चारा पेट में पहुँचने पर मेदे की दीवारें उसके बोझ से फैल जाती है , नसें दब जाती हैं । उनसे निकलने वाला पाचक रस पर्याप्त मात्रा में नहीं निकल पाता है ।परिणामत: मेदा धीरे- धीरे काम करता हैं तथा भोजन को ठीक से हज़म नहीं कर पाता है । जिसके कारण पशु दुर्बल व बिमार हो जाता हैं ।
इस रोग के लक्षण कुछ अफारा से मिलते जुलते हैं। अन्तर केवल यह होता हैं , कि अफारा में लक्षण तेज़ी से दिखाई देते हैं किन्तु इस रोग में लक्षण धीरे- धीरे दिखाई देते है । अफारा में पशु कुछ दिनों या कुछ घन्टों में मर जाता है , किन्तु इस रोग में पशु ४-५ दिन तक संघर्ष करता रहता हैं तथा अन्य प्रमुख लक्षणों में -- जुगाली बन्द कर देता है , सुस्त रहता है और बाँयी ओर की कोख धीरे- धीरे फूलने लगना , पेट पर अंगुली से ठोकने पर ढोल जैसी आवाज़ आना तथा कोख को दबाने पर गुँथें हुए आटे की भाँति गड्डा पड़ जाता हैं , रोग के प्रारम्भ में ही पशु को क़ब्ज़ हो जाता हैं । तथा कुछ घन्टो के बाद ही रोग बढने लगता हैं सांसें तेज़ चलने लगती हैं । पशु साँस लेने में कराहता हैं प्राय: दांयी करवट बैठता हैं और बैठकर फिर जल्दी उठ जाता हैं , क्योंकि बैठकर साँस लेने में उसे कठिनाई मैहसुस होने लगती हैं । पशु गोबर कड़ा व थोड़ा-थोड़ा करता हैं और यदि चारा पेट में सड़ने लगता है तो पेट फूल जाता हैं । और बुखार चढ़ जाता है , नाड़ी हल्की व कमज़ोर होकर चलने लगती है उचित चिकित्सा न मिलने पर बेचैनी व घोर कष्ट को सहन करते- करते पशु असहाय होकर गिर पड़ता हैं और दम घुटकर उस रोगी पशु की मृत्यु हो जाती हैं ।

औषधियाँ -- सबसे पहले ऐसे रोगी को ऐसी दवाओं का प्रयोग कराना चाहिए जो जो मेदे को शक्ति प्रदान करने वाला हो ताकि चारा हज़म होकर अपने आप ही आगे बढ़ता जायें , साथ- साथ दस्तावर दवा देकर क़ब्ज़ को भी होने रोकना चाहिए और पशु का पेट साफ़ कर देना चाहिए ।

१ - औषधि :- नमक ५ तौला, गरमपानी २ किलो लेकर उसमें नमक मिलाकर पिलाये , इससे दस्त खुलकर आते है , रोगी पशु को आराम आने लगता हैं ।

२ - औषधि :- अरण्डी तेल ८ छटांक , गन्धकपावडर २ छटांक , जमालघोटा की गिरी ५ नग का पावडर , देशीशराब १२५ मिलीग्राम , लेकर सभी को आपस में मिलाकर रोगी पशु को नाल द्वारा पिलाने से लाभ होता हैं ।यह कल्याणकारी योग है ।

३ - औषधि :- पशु के पेट पर विशेषकर बाँयी कोख पर मालिश करना व सेंक करना भी लाभदायक हैं , इसके लिए तारपीन का तेल पानी में डालकर उससे सेंक करें तथा तारपीन का तेल १० ग्राम , तिल का तेल ५० ग्राम , मिलाकर उससे मालिश करना चाहिए । उसके बाद गरम कपड़े से सेंक करें , यह लाभकारी रहेगा ।

४ :- औषधि :- यदि पशु बेहोश होने लगे तो अजवायन पावडर २ तौला , सोंठपावडर १ तौला , नोंसादरपावडर १ तौला , पानी ५०० ग्राम , सभी को आपस में मिलाकर पशु को पिलायें फिर उसके बाद चावलों का माण्ड ५०० ग्राम मे १ छटांक नमक , मिलाकर पशु को मिलाकर दें ।

# - यदि आराम नहीं हो रहा है तो आपरेशन कराना ज़रूरी होगा ।


३ - पशु के पेट में बन्द लगना ( गोबर न करना )
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कारण- लक्षण :- यह रोग अधिकतर चारे की कमी , अकाल , तेज़ गर्मी , आदि कारणों से पशुओं को हो जाता हैं । जब पशुओं को हरा चारा पर्याप्त मात्रा में नहीं मिलता और उन्हें रूखे - सूखे चारे पर ही निर्भर रहना पड़ता हैं । ऐसी स्थिति में पशु सरकण्डे तथा सूखी टहनियाँ आदि खाकर पेट भरते हैं और वह सूखी टहनियाँ पेट में जाकर तीसरे अमाशय में अटक जाती हैं और वहाँ पत्थर की तरह कड़ी होकर जम जाती हैं । इस रोग में - पशु जूगाली करना तथा चारा खाना बन्द कर देता हैं । उसकी भूख ख़त्म हो जाती हैं । क़ब्ज़ और पेटदर्द के कारण पशु कराहता हैं । कभी - कभी दस्त भी लग जाते हैं , पेट फूल जाता हैं पेशाब का रंग लाल हो जाता है । गोबर में चारे के काले- काले टुकड़े निकलते हैं । पेट में जलन बढ़ जाती हैं , पशु दाँत पीसता हैं और बेचैन रहता हैं । उसके कान और सींग ठन्डे पड़ जाते है । गोबर पतला , गाँठदार तथा दुर्गन्ध से भरा होता हैं , रोगी पशु धीरे- धीरे कमज़ोर होकर ५-७ दिन में मर जाता है ।

१ - औषधि - जबतक अटकी हूआ चारा न निकल जायें तबतक अलसी के दलिया के अतिरिक्त ओर कुछ खाने को न दें ।

२ - औषधि - तारपीन का तेल व अलसी का तेल मिलाकर पेट पर मालिश करना लाभदायक होता हैं ।

३ - औषधि - तारपीन का तेल मिलाकर गरम करकें उससे पेट पर सेंक करना गुणकारी होता हैं ।

४ - नमक ३५० ग्राम , एलुवा १ छटांक , सोंठ पावडर १२५ ग्राम , गन्ने की राब १२५ ग्राम , गरमपानी १ किलो , सभी को आपस में मिलाकर नाल द्वारा पिलाने से पशु को दस्त होकर पेट का रूका हुआ मल निकल जायेगा और वह ठीक हो जायेगा ।
दवा देने के ठीक बाद डेढ़ छटांक अलसी , डेढ़ छटांक देशी शराब , पानी ४ किलो , अलसी व पानी मिलाकर पतला- पतला दलिया बना लें और बन जाने पर शराब डालकर पशु पिलायें , यदि आठ पहर तक पशु को दस्त न आयें तो उपरोक्त दवा फिर से देवें लेकिन दूसरी बार में दवा की मात्रा आधी कर दें , और यह दलिया भी बारबार पिलाते रहने से आराम आ जायेगा ।


(१०)-गौ-चिकित्सा -सूई पेट में चले जाना।

(१०)-गौ-चिकित्सा -सूई पेट में चले जाना।

पशु के पेट में सुई चली जाना
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यदि किसी प्रकार चारा दाना खाने के साथ पशु के पेट में सुई चली जाये तो उसे महाकष्ट होता है । सुई उसकी आँतों मे चूभने लगती है , जिससे उसके पेट में कष्ट होने लगता है , पशु के पेट में दर्द आरम्भ होने लगता है , उसकी भूख प्यास जाती रहती है तथा उसे दिन रात सुस्ती रहती है । आँखों से पानी बहने लगता है और पशु - प्रतिदिन दूबला होता जाता है , शीघ्र चिकत्सा न मिलने के कारण पशु की मृत्यु हो जाती है ।
विषेश - पशु के पेट में सुई चुभने व अन्य प्रकार के दर्द में निम्न अन्तर है --
अन्य प्रकार के दर्द में पशु की आँख से पानी नहीं गिरता हैं , यदि पशु के पेट में सुई चुभने का दर्द होता हो तो - उसकी आँखों से लगातार पानी टपकता है । सुई चुभने के दर्द से पशु दाँत भी किटकिटाता है । इस रोग का तुरन्त निदान करना चाहिए ।

१ - औषधि :- गुलाबजल २५० ग्राम , चूम्बकपत्थर पावडर २० ग्राम , दोनों को आपस में मिलाकर नाल द्वारा पशु को पिलायें । दवाई पिलाने के तीन घन्टे बाद अरण्डी तेल ५०० ग्राम , डेढ़ किलो गाय के दूध में मिलाकर पशु को पिलाने से सुई गुदामार्ग से बाहर आ जायेगी ।

२ - औषधि :- मुनक्का २० ग्राम , पुराना गुड़ २५० ग्राम , अरण्डी का तेल ५०० ग्राम , सनाय पत्ते १२५ ग्राम , गाय का दूध २ किलो , और ताज़ा जल १ किलो , सभी को आपस में मिलाकर पकाते समय दूध का पानी जल जाने दूध को पर छान लें । चुम्बकपत्थर पावडर गुलाबजल में मिलाकर नाल द्वारा पिलानें के बाद इस औषधिनिर्मित दूध को नाल द्वारा ही पशु को पिला देना चाहिए । इस प्रयोग से सुई गुदामार्ग से बाहर आ जायेगी ।


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(११)- गौ - चिकित्सा - उल्टी( वमन) होना ।

(११)- गौ - चिकित्सा - उल्टी( वमन) होना ।

उल्टियाँ ( वमन ) होना
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कारण व लक्ष्ण - इस रोग में जुगाली किया हुआ चारा पेट की ख़राबी के कारण पशु निगल नहीं पाता हैं , जिसके कारण पशु सामने चारा होते हुए भी खाने में लाचार हो जाता है यह रोग ख़राब पेट व खराब चारा खाने से होता हैं ।

१ - औषधि :- गाय का दूध १ लीटर , गाय का घी २५० ग्राम , दोनों को आपस में मिलाकर गरम करके गुनगुना - गुनगुना पशु को नाल द्वारा पिलाने तुरन्त लाभकारी सिद्ध होता है यह अनुभूत फ़ार्मुला हैं ।

२ - औषधि - अरण्डी का तेल २५० ग्राम , गाय का दूध २५० ग्राम , या गरम पानी में मिलाकर नाल द्वारा पिलाने से लाभ होता है ।
इस राग से पिडित पशु को तीनदिन तक खाने को नहीं देना चाहिए , इसके बाद पशु को हरी - हरी मुलायम घास व हल्का चारा देना चाहिए ।


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गौ- चिकित्सा-पेट के कीड़े ।

(१३)-गौ- चिकित्सा-पेट के कीड़े ।

१ - पशुओं के पेट में कीड़े ( Worms )
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कारण- लक्षण :- दुर्गन्ध व दूषित आहार के कारण पेट में कीड़े पड़ जाते है । जो अन्दर ही अन्दर पशु का रक्त चूसकर अत्यन्त कमज़ोर कर देते है । इन सफ़ेद रंग के कीड़ों को पशु के गोबर में सहजता से देख सकते हैं । पेटदर्द व भूख की वृद्धि होने पर भी कमज़ोरी , खाँसी , आँखों से कम दिखना , ख़ून की कमी , त्वचा का स्वाभाविक रंग बदल जाने से इस रोग को सहज ही जाना जा सकता हैं ।
पशुओं को सड़ा - गला खानें या पोंखर- तालाब का गन्दा पानी पीने आदि कारणों से प्राय: हो पशुओं के पेट में कीड़े पड़ जाते है । यह रोग प्राय: छोटे पशुओं यानि बछड़ों को होता हैं , किन्तु कभी- कभी बड़े पशुओं को भी हो जाता हैं ।
इस रोग से ग्रस्त पशु चारा- दाना तो बराबर खाता- पिता रहता है , किन्तु उसका शरीर नहीं पनपता हैं । वह प्रतिदिन दूबला होता जाता हैं । ध्यान से देखने पर उसके गोबर में छोटे- छोटे कीड़े चलते हुए दिखाई देते है मुख्यतया यह कीड़े दो प्रकार के होते हैं -- १- लम्बे कीड़े , २- गोल कीड़े ।
छोटे बछड़े प्राय: मिट्टी खाने लगते हैं , जिससे उनके पेट में लम्बे कीड़े हो जाते हैं । इन्हीं कीड़ों के कारण उन्हें अक्सर क़ब्ज़ हो जाती हैं अथवा मैटमेले रंग के बदबूदार दस्त आने लगते है ।

१ - औषधि :- असली दूधिया हींग १ तौला , गन्धक पावडर ५ तौला , दोनों को आधाकिलो पानी में घोलकर पशु को नाल द्वारा पिलानी चाहिए ।

२ - रात को भिगोई हुई खेसारी की दाल का पानी सवेरे के समय पशु को पिलायें और कुछ समय के बाद दाल भी खिला दें ।

३ - सुबह - सायं थोड़ी - थोड़ी मात्रा में नीम का तेल लगातार ८-१० दिन तक पिलाना भी इस रोग में गुणकारी होता हैं ।

४- नमक व नींबू की पत्तियाँ हुक्के के बाँसी जल में मिलाकर बोतल में कुछ दिन बन्द करके रखने के बाद सेवन कराना लाभदायक रहता हैं ।

५ - अनार के पेड़ की छाल २५ ग्राम , को कुटपीसकर पानी में मिलाकर दना लाभकारी होता हैं ।
६ - कत्था ५ ग्राम , कपूर ३ माशा , खडिया मिट्टी १ तौला , इन सब को माण्ड , गाय के दूध से बनी छाछ तो अच्छा रहता हैं , वरना गरमपानी में मिलाकर देनें से लाभप्रद होता हैं ।

७ - पलाश पापड़ा व अनार के पेड़ की जड़ की छाल २-२ तौला , बायबिड्ंग व कबीला आधा- आधा छटांक लें सभी को बारीक पीसकर गाय के दूध से बनी दही या छाछ में मिलाकर पिलाने से दोनों ही प्रकार के कीड़े बाहर निकल जाते हैं ।

८ - भाँग मेहन्दी , सफ़ेद ज़ीरा , बेलगिरी सभी १-१ तौला , कपूर ६ माशा , सभी को कुटपीसकर आधाकिलो चावल का माण्ड या गाय के दूधँ से बनी छाछ में मिलाकर देने से लाभँ होता हैं ।

९ - बायबिड्ंग १ तौला , गन्धक १ तौला , हींग १ तौला , पलाश पापड़ा २ तौला , हराकसीस ६ माशा , सनायपत्ति १ छटांक , इन सबको तीन पाँव गरम पानी में घोलकर पिलाना चाहिए यह बड़ा गुणकारी हैं ।
नीलाथोथा ६ माशा , फिटकरी १ तौला , सबको पीसकर आधाकिलो पानी में घोलकर पिलाना हितकर रहता हैं यदि अन्य दवाओं से लाभ न हो तो तभी इस दवा का प्रयोग करें साथ ही यह भी ध्यान रहे की नीलेथोथे का प्रयोग अधिक न करें , क्योंकि यह तेज़ ज़हर हैं ।

१० - सरसों या अरण्डी का तेल आधा शेर , तारपीन का तेल २ तौला , दोनों को मिलाकर पशु को पिला दें , एक घन्टे के अन्दर पशु को खुलकर दस्त आ जायेगें और उसमें बहुत से कीड़े निकलते दिखाई देगें , इसके बाद ऊपर वाली दवा का उपयोग करने से कीड़ों के अण्डे व बचें हुए कीड़े भी मर जायेंगे ।

११ - बछड़ों के लिए इन दवाओं का प्रयोग करना हितकर होगा -- नीम की पत्ति सरसों का तेल २५-२५ ग्राम , नमक १ तौला , सभी कुटपीसकर गाय के दूध से बना खट्टा छाछ में मिलाकर पशु को पिलाने से लाभ होता हैं ।
१२ - कपूर १ माशा , हींग २ माशा , अलसी का तेल २ छटांक , तारपीन का तेल १ तौला , सभी को आपस में मिलाकर बछड़े को प्रात:काल ही ख़ाली पेट पिला देनें से कीड़े गोबर के साथ बाहर आकर निकल जायेगें ।

१३ - पेट के कीड़े -- एसे में दो टी स्पुन फिटकरीपावडर रोटी में रखकर गाय को खिलाये दिन मे एक बार , तीन चार दिन तक देने से पेट के कीड़े मर जाते है ।

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२ - पेट में कीड़े पड़ना


कारण व लक्षण - यह रोग छोटे बछड़ों को अक्सर होता है । सड़ा - गला , गंदा , चारा - दाना , मिट्टी आदि खाने से यह रोग हो जाता है । कभी - कभी कीड़ों वाला पानी पी जाने से भी पशु के पेट में कीड़े पड़ जाते हैं । कभी - कभी अधिक दूध पी लेने पर उसके हज़म न होने पर भी बछड़ों के पेट में कीड़े पड़ जाते हैं । और रोगी पशु भली प्रकार खाता - पीता तो रहता है । पर वह लगातार दूबला होता जाता है । छोटा बच्चा दूध और चारा खाना बन्द कर देता है । उसके गोबर में सफ़ेद रंग के कीड़े गिरते हैं । बच्चे को मटमैले रंग के दस्त होते हैं ।

१ - औषधि - ढाक ,पलाश ,के बीज ७ नग , नमक ३० ग्राम , पानी १२० ग्राम , सबको महीन पीसकर , छलनी से छानकर , पानी में मिलाकर ,रोगी बछड़ों को , दो समय तक , पिलाया जाय ।

२ - औषधि - नीम की पत्ती ३० ग्राम , नमक ३० ग्राम , पानी २४० ग्राम , पत्ती को पीसकर , उसका रस निकालकर , नमक मिलाकर , रोगी बच्चे को दो समय तक , पिलाया जाय । इससे अवश्य आराम होगा ।

आलोक -:- एनिमा देने पर गिडोले गोबर के साथ बाहर आ जायेंगे । यदि एनिमा न मिले तो मलद्वार में पिचकारी द्वारा पानी डालकर भी एनिमा का काम लिया जा सकता हैं।



(१४) - गौ - चिकित्सा .तिल्ली ।

(१४) - गौ - चिकित्सा .तिल्ली ।
तिल्ली की बिमारी
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कारण व लक्षण - तिल्ली ( तिल ) की बिमारी वह होती है, जिसमें रोगी पशु बराबर ख़ून फेंकता रहता है । ख़ून के ख़राब आने से फेंकना बन्द कर देता है पशु घास खाना बन्द कर देता है । उसके रोयें खड़े हो जाते है । वह ठण्डा हो जाता है । इलाज समय से न हुआ तो एक - दो दिन में पशु मर जाता है ।

१ - औषधि - कंथार ( गोविन्द फल ) लै० केपीरस केलेनिका -की छाल ४८० ग्राम ,गाय का दूध ९६० ग्राम , कन्थार की छाल को महीन पीसकर , एक घन्टा दूध में गला देना चाहिए । फिर उसे छानकर पशु को पिलाना चाहिए । सुबह - सायं दोनों समय पिलाना चाहिए । ऐसा करने से दो दिन में पशु अच्छा हो जायेगा । अगर पशु को एक दिन में आराम हो जायें तो दूसरे दिन यह दवा नहीं पिलानी चाहिए । गाय के गोबर के कण्डे को जलाकर पशु को सेंकना चाहिए । सुबह - सायं , दोनों समय और सेंक लगाना चाहिए और # प्रकार का दाग बाँयी तरफ़ लगाना चाहिए ।

२ - औषधि - अजवायन २४० ग्राम , मीठा तैल २४० ग्राम , दोनों को मिलाकर पशु को सुबह - शाम , आराम होने तक , पिलाना चाहिए ।

३ - औषधि - प्याज़ का रस ५०० ग्राम , सुबह - सायं , आराम होने तक देना चाहिए ।

४ - औषधि - इन्द्रायण ६० ग्राम , घुड़बच ६० ग्राम , काला नमक ६० ग्राम , पानी ९६० ग्राम , तीनों को महीन पीसकर , पानी में काढ़ा बनाकर , गरम करके आधा हो जाने पर , बिना छाने , पिला देना चाहिए ।

आलोक -:- ऊपर लिखी दवाईयों की मात्रा बड़ी गायों के लिए लिखी गयी है लेकिन छोटी गायों के लिए दवा की मात्रा कम कर लेनी चाहिए ।
इस बिमारी को फैलाने वाले कीटाणु को अंग्रेज़ी में " बैसिल्लस एन्सथे सिस " कहते है । ठीक वातावरण न मिलने पर , इस बीमारी के कीटाणु " स्पोर " बन जाते हैं । गर्मी , बुखार , गिल्टी -- यह एक छूत की बिमारी है , जो सभी पालतू पशुओं और मनुष्यों को हो जाती है । घरेलू पशुओं में सबसे अधिक यह घोड़ों , भेड़ - बकरियो हिरनों और ऊँटों को होती है । गिद्ध इस बिमारी से इनमुम रहते है। यह बीमारी हर मौसम में हर जगह होती है , परन्तु विशेषकर नीची तराई की जगहों में जहाँ पानी - निकास नहीं होता है । यह बीमारी एक जगह में बार- बार हर साल हुआ करती है । इस रोग के कीटाणु मिट्टी में वर्षों तक सुरक्षित रहते हैं ।
इन कीटाणुओं पर मामूली दवाएँ कोई असर नहीं करती है । इन "स्पोर" को आधे घन्टे पानी में उबाला जाय , तब भी वे नही मरते । स्पोर पशु के शरीर में नहीं मरते । जब पशु का ख़ून बाहर गिरता है , तो ये कीटाणु स्पोर बन जाते है । इसलिए यह ध्यान रखना चाहिए कि मरे हुए पशु का ख़ून भूमि पर न पड़े । अगर भूमि में गिर जाय तो उस स्थान को साफ़ कर दिया जाय ।
खाना खाने या पानी पीने से इस रोग के कीटाणु या स्पोर पेट में पहुँचते हैं । पेट में जो रस निकलते हैं । उनसे कुछ कीड़े तो मर जाते हैं । किन्तु स्पोर पर उनका असर नहीं होता । ठीक प्रकार की नमी हवा कम पाने से स्पोर बढ़ते है और ख़ून में मिल जाते हैं । कभी - कभी कुछ ऐसी मक्खियों के काटने पर यह रोग फैलता है , जो कि इस बिमारी से मरे हुए पशु का माँस खा लेती हैं या उस मरे पशु पर बैठी रहती हैं । मनुष्यों में साँस के द्वारा यह कीटाणु शरीर में प्रवेश करता हैं । अंग्रेज़ी में उसे " उलरटर डिसीजेज" कहते हैं । यह बिमारी चारा , दाना , पानी , गोबर - मूत्र ,ख़ून , बर्तनों और आदमियों के ज़रिये या किसी छोटे घाव के द्वारा फैलती है । इस बिमारी से पीड़ित पशु २४ घन्टे से लेकर ३ दिन के अन्दर ही मर जाता है । इस रोग को दो भागों में बाँटते हैं : १. अन्दरूनी या आन्तरिक बिमारी और २. बाहरी बिमारी ।

१ - अन्दरूनी या आन्तरिक बिमारी -:-इस बिमारी में पशु यकायक मर जाता हैं और कोई ख़ास लक्ष्ण नहीं प्रतीत होते । अगर पशु को बिमारी की हालत में देखा जाय तो उसके लक्षण होगें -- तेज़ बुखार , आँखों में बेचनी , पेट में दर्द, पेट फूलना, गोबर या लदी का ख़ून से सना होना , गन्दे रंग की पेशाब , कुछ काला होना , नाक से ख़ून मिला हुआ मवाद - सा निकलना । पशु लड़खड़ाकर ज़मीन पर गिर जाता है । ये ही इस बिमारी के लक्षण है।
कभी - कभी पशु जोश में आ जाता है । उसके पेट में दर्द मालूम होता है । वह पसीने से तर हो जाता है और १०-२४ घण्टे में उसकी मृत्यु हो जाती है ।

२- बाहरी बिमारी - :- इसमे पशु के शरीर के किसी भी हिस्से पर , ज़्यादातर गर्दन या पेट पर कड़ी उभरी हुई सूजन होती है , जिसमें शुरू में दर्द होता हैं । लेकिन बाद दर्द नहीं होता । पशु को बुखार आ जाता हैं । घोड़ों में सूजन गले से शुरू होती है और फिर गर्दन के नीचे हिस्से में होकर सीने तक पहुँचाती है । सिर और गर्दन की सूजन बहुत बढ़ जात है। यहाँ तक कि पशु को हिलते डुलते कठिनाई होती है । भेड़ों में अन्दरूनी या आन्तरिक बिमारी अधिक पायी जाती है और वे मरी हुई पायी जाती । पूँछ के पास उनमें दस्त , ख़ून लगा होता है । इस बिमारी से ८० से ९० प्रतिशत रोगी - पशु मर जाते है ।

लाश का परिक्षण -:- इस रोग के रोगी पशु की लाश का सड़ना शीघ्र आरम्भ हो जाता है । वह बहुत जल्दी फूल जाती है । उसका ख़ून बहुत गाढ़ा हो जाता है और कोलतार की की तरह गहरे काले रंग का - सा हो जाता है । ख़ून जमता नहीं और तमाम प्राकृतिक छिद्रों से -- नाक , मुँह , कान, मूत्रद्वार ,मलद्वार से निकलता है । तिल्ली ५-६ गुनी बढ़ती जाती है और कभी - कभी वह नर्म होकर फट जाती है । भेड़ में ऐसा नहीं होता । ये लक्षण केवल बाहरी बिमारी में पाये जाते हैं ।

कलेजा और गुदा -:- ये लाल रंग और सूजे रंग के हो जाते हैं । इसी प्रकार फेफड़े और मस्तिक लाल , गहरे रंग के हो जाते हैं । घोड़े की आँतों में सूजन पायी जाती हैं ।

आलोक -:- तिल्ली की बिमारी से मरे हुए पशुओं से विशेष सावधान रहना चाहिए । मरे हुए पशुओं को ठीक तरह से ठिकाने लगायाव जाय । उनकी खाल चोरी न जाय और नहीं उसका निरीक्षण किया जाय , जब तक कि उसके लिए ठीक- ठीक प्रबन्ध न कर लिया जाय । ऐसी लाश को जला देना चाहिए या गाड़ देना चाहिए । लाश को एक जगह से दूसरी लें जाना हो तो उसके सब प्राकृतिक छिद्रों को यानी मुँह , नाक , मूत्रद्वार आदि को किसी तेज़ दवा , रूई या कपड़े से दबाकर बन्द कर देना चाहिए , ताकि उनमें से शरीर का मवाद न निकले , क्योंकि, ऐसा होने पर और दवा लगने पर कीटाणु स्पोर में बदल जायेंगे , जो कि वर्षों तक भूमि में जीवित रहते हैं । यह भी ध्यान रखना चाहिए कि यह बिमारी मनुष्यों को हो जाती है । लाश को पानी वाले स्थान पर न गाड़ा जाय ।
इस बिमारी में ऊपर बतायी सभी बातें ध्यान में रखनी चाहिए । जिस जगह बिमारी का असर हो ख़ाली कर देना चाहिए । पानी पीने के स्थानों और चरागाहों को बदल देना चाहिए । चुस्त पशुओं को नये चरागाहों में लें जाना चाहिए ।
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(१५)- गौ - चिकित्सा - पीलिया,यकृतरोग ।

(१५)- गौ - चिकित्सा - पीलिया,यकृतरोग ।

१ - पीलिया ( पाण्डुरोग )( Jaundice )
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कारण- लक्षण :- इस रोग को कामला रोग के नाम से भी जाना जाता है । यह रोग अक्सर जिगर ( यकृत ) ( liver ) के ख़राब हो जानें से होता हैं इस रोग में पशु के मुँह तथा आँखों की झिल्लीयां पीली पड़ जाती हैं , शरीर का पित्त नली में सूजन आ जाने के कारण या पथरी , कीड़ों के जमा हो जाने आदि कारणों से जब आँतों में नहीं पहुँच पाता हैं और ख़ून में मिलकर सारे शरीर में फैल जाता हैं , शरीर की पतली खाल अथवा बारीक झिल्ली द्वारा पीलापन प्रकट होने लगता हैं
पशु इस रोग से पीड़ित होने पर मैटमैला रंग का गोबर करता हैं तथा पेशाब बहुत पीला आता हैं और पशु को क़ब्ज़ हो जाता हैं । भूख और प्यास अधिक लगती है , शरीर का तापमान घटता- बढ़ता रहता हैं तथा रोगी पशु दिन-प्रतिदिन कमज़ोर होता जाता हैं ।

१ - औषधि - सादा नमक पावडर २५० ग्राम , सोंठ पावडर ३५ ग्राम , चावल का माण्ड १ किलो , सभी को आपस में मिलाकर पिलाने से लाभ होता हैं ।

२ - औषधि - हरा कसीस २० ग्राम , चिरायता चूर्ण ३० ग्राम , सोंठ पावडर ३० ग्राम , चावल का माण्ड १ किलो , सभी को आपस में मिलाकर पशु को पिलाने से लाभ होता हैं ।

३ - औषधि - इस रोग में आँवला अवलेह देन २५० ग्राम , प्रतिदिन देना लाभकारी होता हैं ।

४ - औषधि - अमलतास का गूद्दा ३ तौला, इमली के फल का गूद्दा ३ तौला , आधा लीटर गुनगुना पानी में घोंटकर छानकर पशु को पिलाने से पशु को दस्त आकर पित्त बाहर निकल जाता है और रोग ठीक हो जायेगा ।
५ - औषधि - गन्धक पावडर २ तौला , सोंठ पावडर २ तौला , नमक ४ छटांक , एलुवा १ तौला , गन्ने का शीरा या गुड़ २५० ग्राम , गरमपानी १ किलो , सभी को गरम पानी में मिलाकर पिलाने से दस्तों द्वारा पित्त बाहर निकल कर पशु ठीक हो जायेगा ।

६ - औषधि - बन्दाल के फल ६ माशा , पानी ढाई तौला में रात को भिगोकर रख दें तथा सुबह छानकर थोड़ा-थोड़ा पशु के नाक के दोनो नथुनों में डालें । इससे नाक द्वारा पीला - पीला पानी बहकर सारा पित्त निकलकर पशु को आराम हो जायेगा ।

२ - यकृत ( लिवर , जिगर ) में ख़ून का जमा होना
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कारण-लक्षण :- पशुओ को अधिक पौष्टिक खुराक देनें और तद्नुकूल उससे परिश्रम न लेने से उसके यकृत ( जिगर ) में ख़ून जमा हो जाता है । कभी- कभी गर्मी- सर्दी के तेज़ प्रभाव तथा हृदय रोगों के कारण भी जिगर में ख़ून जमा हो जाता हैं ।
जिगर में ख़ून जमा हो जाने पर -- पशु सुस्त रहता हैं अत: वह चुस्ती- फुर्ती से चल-फिर नहीं सकता हैं , उसकी नब्ज़ कमज़ोर होकर धीमी पड़ जाती हैं तथा भूख कम हो जाती हैं और शरीर का तापमान घट जाता हैं , आँखों में पीलापन आ जाता हैं पशु बार-बार अपने दाहिने अंग को देखता रहता हैं तथा दांयी ओर का पेट दबाने पर उसे पीड़ा महसूस होती हैं ।

१ - औषधि - एलुवा १५ ग्राम , नौसादर १५ ग्राम , कलमीशोरा १५ ग्राम , चिरायता चूर्ण १५ ग्राम , जवाॅखार १५ ग्राम , मेग्नेशियम साल्ट १५ ग्राम , आधा लीटर गरमपानी सभी को आपस में मिलाकर पिलाने से ,यकृत में जमा हुआ ख़ून पिघलकर फैल जाता हैं । और पशु को आराम आने लगता हैं ।
इन सभी दवाइयों के उपयोग के साथ- साथ बाहृा उपचार भी किया जाना चाहिए जिससे पशु को जल्दी आराम हो । इसके लिए निम्नांकित योग का लेप बनाकर पशु के जिगर के ऊपर अर्थात दाहिनी ओर पसलियाें के नीचे मलने तथा लगाने से तत्काल लाभ पहुँचता हैं विधी इस प्रकार हैं - -

# - औषधि - उल्क १ छटांक , जरावन्द १ छटांक , मकोय पंचांग पावडर २ छटांक , अंजीर २ छटांक , हींग १ तौला , इन सब को गन्ने के सिरके में पकाकर लेप तैयार करके गुनगुना पशु के जिगर ( दाहिनी ओर की पसलियों के ऊपर )पर लगाने से लाभ पहुँचता हैं ।

# - औषधि - राई का पावडर २५० ग्राम , आवश्यकतानुसार गरमपानी में मिलाकर लेप तैयार करके पशु की दांयी पसलियों पर गाढ़ा -गाढ़ा लेप करने से शीघ्र लाभ पहुँचता हैं । आधा घन्टे बाद लेप छुड़ाकर तारपीन के तेल या तिल के तेल की मालिश करें तो ओर जल्दी आराम होगा ।

३ - यकृत शोथ ( जिगर, लीवर में सूजन का आ जाना )
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कारण- लक्षण :- पशुओं को भारी अथवा देर तक पचने वाले आहार देने, उनसे उचित परिश्रम के काम न लेने पर , सर्दी-गर्मी के प्रभाव या चोट आदि लग जाने से उनके जिगर पर सूजन आ जाती हैं । जिगर के स्थान पर ऊपर से दबाने से पशु को दर्द मैहसुस होता है तथा वह स्थान कुछ ऊपर को उठा हुआ सा दिखाई देता हैं । पशु चारा - दाना व जूगाली करना बन्द कर देता है , कभी- कभी खाँसता भी हैं । उसकी आँखें पीली अथवा सुर्ख़ सी पड़ जाती हैं । पेशाब गहरे पीले रंग का आने लगता हैं , क़ब्ज़ रहता है अथवा पशु के शरीर का तापमान बढ़ जाता है । इस रोग के लक्षणों का पता चलते ही इलाज तुरन्त चालू कर देना चाहिए इलाज में देरी न करें अन्यथा रोग बढ़कर संघातिक रूप धारण कर सकता हैं । इस रोग में भी परहेज़ के अन्तर्गत अन्य रोगों के समान ही जल्दी पचने वाला आहार ही देना चाहिए तथा सर्दी- गर्मी , ठन्डी हवा , और ठन्डे पानी के प्रयोग से दूर रखें ।

१ - औषधि - हराकसीस ३ माशा , नीम के पत्ते ५ तोला , त्रिकुटा डेढ़ तोला , त्रिफला डेढ़ तौला, सज्जीखार ६ माशा , सेंधानमक ६ माशा , मेग्नेशियम साल्ट १ माशा , सभी को कुटपीसकर चूर्ण बनाकर रख लें तथा आवश्यकतानुसार गुनगुने पानी में घोलकर पशु को पिलायें । इस प्रकार सुबह-सायं दिन में दो बार १-२ दिन खिलाने सें लाभ होकर पशु चारा पानी ठीक से खाने लगता हैं ।

२ - औषधि - पहले दिन -- पशु को अप्समसाल्ट ५०० ग्राम , सोंठ पावडर २ तौला , कलमीशोरा २ तौला , नौसादर आधा छटांक , सभी नमक को पीसकर , ७५० मिलीग्राम पानी में मिलाकर पिला दें ।
दूसरे दिन -- कलमीशोरा १ तौला , नौसादर १ तौला , कपूर ३ माशा , देशीशराब १२० मिली ग्राम , इन सबको आधा किलो गुनगुने पानी में मिलाकर दिन में दो बार पिलाते रहे जब तक रोगी पूर्णरूपेण ठीक न हो जायें । जब पशु की दशा में कुछ - कुछ सुधार होना शुरू होने लगे तो उसे ताक़त प्रदान करने वाली औषधियों का सेवन कराना चाहिए । जिनका नीचे वर्णन कर रहे हैं --

# - औषधि - नौसादर , चिरायता चूर्ण , कुटकी चूर्ण , कलमीशोरा , प्रत्येक १-१ तौला , नमक ३ तौला , कुचला ३ माशा चूर्ण , सभी १किलो गुनगुने पानी में मिलाकर पिलाने से लाभ होता हैं ।

# - औषधि - एलुवा , आकाशबेल ( अमरबेल ) चिरायता , अफसंतीन, नीम के पत्ते , नौसादर प्रत्येक १-१ तौला , अप्समसाल्ट या मैग्निशियम साल्ट ५ तौला और कुचला १ माशा , - इन सभ दवाओं को कुटकर गरमपानी में मिलाकर पिलाने से लाभ होगा ।
इस रोग में राई का लेप तथा तारपीन का तेल व सरसों के तेल की मालिश करना लाभकारी सिद्ध होता है तथा मालिश करने के बाद रूई को गरम करके पेट की सिकाई करना अतिगुणकारी होता है ।

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(१६)- गौ- चिकित्सा - बवासीर( Piles )

(१६)- गौ- चिकित्सा - बवासीर( Piles )

१ - पशुओं को बवासीर ( Piles )
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कारण- लक्षण :- अधिक दिनों तक क़ब्ज़ व दस्त आदि की शिकायत रहने तथा जिगर की बिमारी के कारण पशु को बवासीर होजाता है इस बिमारी से पशु के मलद्वार में मस्सें हो जाते है और उनसे के क़तरे निकलते रहते हैं । जो गोबर में अलग ही दिखाई देते हैं यदि अन्दर से ख़ून आता हैं तो समझ लेना चाहिए कि किसी घाव आदि के कारण आया हैं क्योंकि बवासीर की मुख्यत: एक ही पहचान है कि उसके मलद्वार में मस्सें होते हैं ।

१ - औषधि - ककरोंदा पावडर २ तौला , कबीला पावडर ढाई तौला , गाय के दूध से बनी छाछ ५०० ग्राम , में मिलाकर पशु को नित्य पिलाते रहने से लाभ होता हैं ।

२ - औषधि - रसोंत ६ माशा , गेन्दें की पत्ती ढाई तौला , नीम की निबोली ढाई तौला लेकर दोनों को भली-भाँति घोंटकर पशु को प्रतिदिन पिलाना चाहिए, यह गुणकारी हैं ।

३ - औषधि - मलद्वार में बवासीर के मस्सों पर भाँग की ताजी पत्ती कूटकर गरम करके बाँधें अथवा गेंदें की पत्तियों की टिकीया बनाकर बाँधें। तदुपरान्त १ तोला माजूफल पीसकर उसमें तीन माशा अफ़ीम मिलाकर गाय के घी के साथ घोटकर लेंप तैयार करें और मस्सों पर लगायें । इस प्रयोग से शीघ्र लाभ होगा ।

४ - औषधि - रसकपूर १ रत्ती , कपूर २ रत्ती , काशकारी सफेदा ४ रत्ती , मुर्दासंग ८ रत्ती , और गाय का घी १ तौला , लें सभी को घोंटकर मरहम बना लें मरहम गाढ़ा - गाढ़ा होना चाहिए इस मरहम को पशु की गदा में मस्सों पर लगाने से मस्सें शीघ्र ठीक होने लगतें हैं ।

इस रोग में मस्सें अधिक कष्ट कारी होते हैं अत: इन मस्सों को मिटना अतिआवश्यक होता हैं ।

५ - औषधि - बवासीर के मस्सों पर सुअर की चर्बी की मालिश करते रहने से मस्सें नष्ट हो जाते हैं और पशु ठीक हो जाता हैं । यह अतिगुणकारी औषधि हैं । बवासीर की दवाये लम्बे समय करनी पड़ती हैं । तब यह रोग समूल नष्ट होता है इसका इलाज जल्दी बन्द नहीं करना चाहिए ।

# - बदहजमी व क़ब्ज़ पशु को न हो ये ध्यान रहे पशु को क़ब्ज़ कारक व भारी आहार न दें । हल्का सुपाच्य आहार देना चाहिए ।


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गौ- चिकित्सा -नकसीर फूटना ( Epistoxis )

नकसीर फूटना (Epistoxis)


कारण-लक्षण :- हृष्ट- पुष्ट पशुओं की नाक पर चोट लग जाने, अधिक छींके आने , धूप की गर्मी से अथवा गरम औषधियों के प्रभाव आदि कारणों से नाक की सुक्ष्म शिराएँ फट जाता हैं और ख़ून बहने लगता हैं इसी को नकसीर कहते हैं ।

१ - औषधि - सिर पर ठन्डे पानी की लगातार धार डालते रहने से रक्त जमकर नाक से ख़ून बहना बन्द हो जाता हैं ।
२ - औषधि - थोड़े से पानी में फिटकरी पीसकर ,घोलकर उसमें माजूफल घिसकर डाल लें इस पानी की बूँदें पशु के नाक में टपकाने रूई का फोहा तर करके नाक में रखने से रक्त गाढ़ा होकर नकसीर बन्द हो जाती है
३ - औषधि - चिरायता एक छटांक कुटकी और गिलोय ढाई-ढाई तौला और शक्कर २५० ग्राम , लेकर सभी को पानी में घोलकर शर्बत बनाकर नाल द्वारा पशु को पिलायें । नकसीर फूटने में इस योग का सफल प्रयोग है ।


(१८)-गौ - चिकित्सा - न्यूमोनिया ( Pneumonia )

(१८)-गौ - चिकित्सा - न्यूमोनिया ( Pneumonia )

१ - न्यूमोनिया ( Pneumonia ) ( फेफड़ों की सूजन )

कारण व लक्षण :- न्यूमोनिया अर्थात फेफड़ों की सूजन का रोग है , यह एक भंयकर रोग हैं जिसके कारण मृत्यु भी हो जाती है अत: इसके इलाज में देरी व लापरवाही नहीं करनी चाहिए अक्सर खाँसी , ज़ुकाम ,के बाद न्यूमोनिया हो जाने का डर रहता हैं और इसी प्रकार बुखार के बाद भी न्यूमोनिया हो जाता हैं । इस रोग के कारण प्रतिवर्ष हमारे देश में हज़ारों पशु अपनी जान से हाथ धो बैठते हैं ।
भयानक गर्मी से या सर्दी मे आ जाने से दौड़कर या अधिक परिश्रम करने पर पसीनें में होने पर पानी में भीग जाते हैं या ठन्डा पानी पी लेते हैं तो पशु के फेफड़ों पर सूजन आ जाती हैं और रोग तेज़ी से बढ़कर फेफड़ों को प्राकृतिक कार्य करने से रोक देता हैं जिसके कारण श्वास रूक जाने के कारण पशु की मृत्यु हो जाती हैं । गीलें गन्दे व शीलनयुक्त स्थानों पर पशुओं को नहीं रखना चाहिए या अधिक कमज़ोर पशु पर यह रोग आक्रमण करता हैं , पशु को हर समय तेज़ बुखार रहता हैं पिडित पशु काँपता रहता हैं , फेफड़ों तथा पसलियों में तेज़ दर्द के कारण कराहता तथा छटपटाता रहता हैं , और उसे साँस लेने में कठिनाई होती हैं । पशु के नथुनों बार- बार फूलते हैं पशु दाँत पीसता रहता हैं , अन्त में नाक से ख़ून मिला हुआ बलगम आने लगता हैं , पशु अपने अगले पैरों को चौड़ा करके खड़ा हो जाता हैं तथा उसे बैठने में कष्ट होता हैं , आँखें लाल हो जाती हैं पेशाब का रंग गहरा लाल हो जाता हैं इसके बाद पशु को दस्त भी होने लगते हैं । पशु की साँसें तेज़ और अधुरी चलने लगती हैं और यह लक्षण सात दिन तक बढ़ते है उसके बाद घटने लगते हैं ।

# - ध्यान रहे ---- इस रोग में यदि बुखार बिना इलाज के ही कम हो जाये और बिमार पशु आराम से साँस लेने लगे तो यह अशुभ लक्षण हैं ऐसा होने समझ लेना चाहिए कि पशु की मृत्यु के नज़दीक़ हैं

# - जो ज़ुकाम व सर्दी मे भपारा देने की विधी बतायी गयी हैं वह इस रोग में लाभकारी होता हैं ।

१ - औषधि :- पशु की छाती पर अलसी का लेप लगाकर रूई रखकर कपड़ा बाँध देना चाहिए तथा अलसी के तेल में सरसों का तेल मिलाकर मालिश करना व रूई के फाेहो से गरम- गरम सिकाई करनी चाहिए , यह लाभकारी सिद्ध होता है ।

२ - औषधि :- कपूर ३ तौला , जावित्री ३ माशा , मदार की छाल १ तौला , केसर ६ रत्ती , मुलहटी २ तौला , कलमीशोरा १ तौला , नौसादर १ तौला , अलसी २ तौला , गन्ने का शीरा १ छटांक , सबको आपस में मिलाकर दिनभर में २-३ खुराक देवें तथा पशु को पीने के लिए गुनगुना पानी देना चाहिए ।

३ - औषधि :- सोंठ , काकडासिंगी , छोटी पीपल , चाय पत्ती , प्रत्येक १-१ तौला , अजवायन २ तौला , लेकर मोटा- मोटा कूटकर आधालीटर पानी में डालकर पकायें जब पानी जल कर डेढ़ पाँव रह जायें तब उतारकर उसमें गुड १ तौला , कपूर २ माशा , धतुरा बीज पावडर १ माशा , ढाई तौला देशी शराब मिलाकर यह दवा पशु को नाल द्वारा पशु को पिलाना लाभकारी होता हैं ।


२ - फेफड़ों की सूजन ( निमोनियाँ )
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कारण व लक्षण - यह रोग शीत ऋतु में या वर्षाऋतु में अक्सर होता है । बुखार की हालत में पसीना होने पर बहुत ठन्डा पानी पिलाने से और ठन्डी हवा लग जाने से तथा वर्षा में अधिक समय तक भीग जाने से यह रोग हो जाता है । कभी-कभी पशु को समय पर पानी न मिलने से ,और अधिक प्यास में अधिक पानी पी लेने से यह रोग हो जाता है ।
इस रोग में रोगी पशु बहुत सुस्त रहता है । खाना- पीना और जूगाली करना बन्द कर देता है । उसके रोये खड़े हो जाते है । उसे ज़ख़्म और खाँसी हो जाती है । और पशु का शरीर काँपता है और साधारण ज्वर हर समय बना रहता है । आँखें लाल तथा गहरी हो जाती है,उसकी नाक से बलगम निकलता रहता है तथा नाड़ी तेज़ चलती रहती हैं ,पशु उस बाज़ू दबाव देकर बैठता हैं,जिस बाज़ू के फेफड़े में दर्द होता हैं और पशु बार- बार दाँत पीसता रहता है । रोग शुरू होने के बाद ६-७ दिन में यह बिमारी बढ़ जाती है । रोगी पशु के कान की जड़ ठन्डी हो जाती है , पशु के उपर के होंठ पर पसीने की बूँदें नहीं रहती है यानि होंठ ख़ुश्क बनारहता हैदर उसकी ठन्डी साँसें चलती रहती हैं तथा पशु कराहता रहता और आँखें अन्दर की और धँस जाती है ।

१ - औषधि -भैंसों के लिए- सादा नमक पिसा हुआ ३० ग्राम , नारियल तेल ४०० ग्राम , नमक को तेल में मिलाकर गुनगुना गरम करके रोगी पशु के पूरे शरीर में आधे घन्टा तक मालिश करनी चाहिए , फिर उसके शरीर पर सूखी घास रखकर ऊपर से चार कम्बल ओढाये और उन्हें रस्सी से बाँध देने चाहिए , जिससे घास और कम्बल अपनी जगह से सरकें। पानी गरम करके ठन्डा होने तक पिलाया जाय । रोगी पशु को बन्द कमरे में बाँधा जाय और रोगी पशु को हरी घास व ठन्डी चींजे न खिलायी जाय । केवल सूखी नरम घास व गेंहू का भूसा खिलाया जाय वही उसके नीचे बिछाया जाय इससे पशु को गर्मी पहुँचेगी

# - गाय के लिए- गाय व बैल की केवल हाथ से ही आधा घन्टे मालिश की जाये,और मालिश करने के बाद उपरोक्त विधी द्वारा ही घास व कम्बल बाँध दिये जाये ।

२- औषधि - देशी मुर्ग़ी के २अण्डे , १० ग्राम हल्दी पावडर ,गाय का दूध २ लीटर गरम करके उसमें हल्दी तथा अण्डे को तोड़कर दूध में डाले और अण्डे केछिलके को फेंक दें। तथा दो दिन तक दिन में एक बार , तीनों को आपस में मिलाकर गुनगुना पशु को पिला देना चाहिए ।

# - तीसरे दिन १ लीटर दूध तथा एक अण्डा व ५ ग्राम हल्दी मिलाकर गुनगुना करके पशु को पिला देना चाहिए, अगर आवश्यक हो तो चौंथे दिन भी दें ।

३ - औषधि - इन्द्रायण फल ६० ग्राम , घुड़बच ६० ग्राम , काला ज़ीरा ६० ग्राम , सेंधानमक ६० ग्राम , लहसुन ६० ग्राम , अदरक २५ ग्राम , गुड़ १२० ग्राम , अजवायन ६० ग्राम , पानी १४४० ग्राम , सभी को बारीक कूटपीसकर छलनी में छानकर ,पानी में उबालें ,जब पानी १००० ग्राम रह जाये तब गुनगुनापानी बिना छाने ही पशु को सुबह - सायं आराम होने तक इस मात्रा को पिलाते रहे ।

४- औषधि - अजवायन ६० ग्राम , सोंठ २४ ग्राम , लहसुन ३६ ग्राम , काला ज़ीरा ६० ग्राम , चन्द्रशूर ६० ग्राम , गुड़ ४८० ग्राम , पानी ५०० ग्राम , सभी को बारीक पीसकर पानी में उबालकर काढ़ा बनायें डेढ़ लीटर काढ़ा रहने पर रोगी पशु को दोनों समय बनाकर पिलाना चाहिए और आराम होने तक दवा को पिलाते रहना चाहिए।

५ - औषधि - कालीमिर्च १२ ग्राम , घुड़बच ६० ग्राम , लौंग १२ ग्राम , नमक ३० ग्राम , सभी को बारीक पीसकर ,पानी ५०० ग्राम व देशी शराब ५०० ग्राम को आपस में मिलाकर बिना छाने ही पशु को पिलानी चाहिए और आराम होने तक दोनों समय इसी मात्रा को पिलाते रहना चाहिए ।


३ - दमारोग ( Asthma )
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कारण- लक्षण :- बूढ़े एंव कमज़ोर शरीर के पशु को अधिक दौड़ाने या उससे भारी काम लेने , बदहजमी अथवा खाँसी की शिकायत बहुत दिनों तक बनी रहने और ठीक प्रकार से चिकित्सा न होने पर रोग के बिगड़ जाने के कारण खाँसी या दमा रोग हो जाता हैं । दमा से बिमार पशु को खाँसी जल्दी- जल्दी आती हैं तथा घोर कष्ट के साथ श्वास खींचकर अन्दर लें जाना पड़ती हैं । श्वास खींचने के कारण ही उसकी कोख और पेट में दर्द होने लगता हैं । खाँसी के साथ ही बलगम भी निकलता हैं ।

१ - औषधि :- श्वेत संखिया ५ रत्ती , आटे में मिलाकर खिला देने से पशु का दमा ठीक हो जाता हैं ।

२ - औषधि :- धतुरा बीज १ रत्ती , अफ़ीम १ माशा , दोनों को पीस- घोलकर २५० ग्राम पानी के साथ सेवन कराने से भी दमारोग में आराम आता हैं ।
ये दोनों दवाये पशु को बारी- बारी से १५ दिन तक देते रहने से पशु बिलकुल ठीक हो जायेगा ।

३ - औषधि :- धतुरा बीज १ माशा , कपूर १ माशा , अनार का छिल्का १ तौला , देशी शराब १छंटाक , गन्ने का शीरा १ छटांक , लें । कपूर व धतुरा के बीजों को पीसकर बाँस के पत्तों के रस में मिलाकर शराब के साथँ घोल लें । इसके बाद अनार के छिलके को ५०० ग्राम पानी में पकायें जब पानी जलकर आधा है जाये तब पानी को कपड़े में छानकर पानी को रख लें तथा गुनगुना होने पर उसमें बाक़ी सभी दवाये मिलाकर दिन में दो बार पिलाने से लाभँ होता हैं ।

४ - औषधि :- नौसादर १ तौला , अदरक १ छटांक ,पीसकर गुड १ छटांक , लेकर उसमें मिलाकर पशु को खिलायें यह दवाई ऐसी स्थिति में लाभकारी होता है जब रोगी पशु का बलगम निकलने मे कष्ट होता हैं ।

# - ध्यान रहे पशु को भारी व बादी चीज़ों से बचाना आपकी ज़िम्मेदारी हैं ।




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(२०)-३- गौ- चिकित्सा - मुखरोग ।

(२०)-३- गौ- चिकित्सा - मुखरोग ।


१ - गलफर में काँटे हो जाना ( अबाल रोग )
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कारण व लक्षण :- पशु के गलफर में काटें हो जाते हैं इस रोग को अबाल रोग कहते हैं अनछरा रोग में जीभ पर काँटे होते हैं इस रोग में गालों में होते हैं तथा इस रोग में गलफर में चिप- चिप होती रहती हैं पशु चारा नहीं खा पाता हैं
# - जो दवा अनछरा रोग में लाभ करती हैं वह गलफर में भी काम करती हैं ।
१ - औषधि - हल्दी व नमक पीसकर गालों में चुपड़ते रहना लाभकारी हैं दवा करने से पहले बाँस की खपच्ची से गलफर में उत्पन्न काँटों को धीरे-धीरे छीलकर बाद में दवा को रगड़ कर लगायें ।


२ - जिह्वा कण्टक ( अनछरा रोग या जीभ का काँटा )
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कारण व लक्षण :- पशु की जीभ के ऊपर छोटें- छोटें नोंकदार दानें - इस रोग में निकल आते हैं , जिन्हें आम बोलचाल में काटें कहते हैं । इस रोग से ग्रसित पशु खाने की तो इच्छा करता हैं किन्तु काटें चुभने के कारण खा नहीं पाता हैं ।

१ - औषधि - हल्दी व नमक पीसकर तैयार रखें , इसके बाद बाँस की खपच्ची लेकर जीभ पर रगड़कर काँटों को छील दें फिर दवा को सरसों के तेल में मिलाकर रगड़कर लगायें । इससे आराम आयेगा ।

२ - औषधि - काला ज़ीरा , काली मिर्च और अम्बा हल्दी - इन तीनों को सममात्रा में लेकर महीन कर लें और रोगी पशु की जीभ पर बार- बार लगायें ।

३ - औषधि - धाय के फूल २ तौला , रात्रि में में पानी में भिगोकर रख दें प्रात होने पर सेंधानमक कलमीशोरा , और समुद्रीफेन , प्रत्येक १-१ तौला , और रसवत ६ माशा , लेकर सबको बारीक पीसकर जीभ पर मलते रहना लाभकारी हैं ।
प्रात: काल रोगी पशु को कुछ भी खिलाने से पूर्व अदरक , पान तथा कालीमिर्च खिला देने से मुख के अन्दर उत्पन्न होने वाले तथा सभी जगहों के काँटों में लाभ होता हैं ।


३ - सूतबाम ( सुकभामी ) रोग
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कारण व लक्षण :- इस रोग में तालु अथवा तारू में छेद हो जाता हैं । इस रोग को सूतबाम या सुकभामी के नामों से जानते हैं । इसरोग में पशु की आँखों से पानी बहता हैं , उसे भूख नहीं लगती हैं जिसके कारण दिन- प्रतिदिन पशु दूबला होता जाता हैं पशु पानी पीने से डरता हैं । जब छेद में पानी पड़ता हैं तो दर्द अधिक बढ़ जाता हैं । इस पीड़ा से पशु की आँखों से आँसू निकल पड़ते हैं । इसी पीड़ा के भय के कारण पशु पानी नहीं पीता हैं । रोगी का मुख खोलकर देखने पर तालू का छेद साफ़ दिखाई देता हैं ।

१ - औषधि - लोहे खुब गरम करके छिद्र को दाग देना लाभकारी उपाय हैं । दागने के बाद घाव में देशी सिन्दुर व पीसी हूई हल्दी और गाय का घी मिलाकर मरहम तैयार करके पहले ही रखें दागने के तुरन्त बाद घाव में भर देंना चाहिए यह गुणकारी उपाय हैं ।


४ - मेझुकी ( कठभेलुकी या भेलुकी रोग
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कारण व लक्षण :- इस रोग में पशु की जीभ के ऊपर सूजन हो जाती हैं । इस रोग को मेझुकी, कठभेलुकी , भेलुकी , आदि नामों से लोग जानते हैं । इस रोग में पशु चारा न खा पाने के कारण पशु दुर्बल हो जाता हैं । इस रोग से ग्रस्त पशु चारा कम खाता हैं और पानी पीने में भी कम रूची रखता हैं ।

१ - औषधि -पशु की जीभ पर हल्के गरम लोहे से दाग लगाकर ऊपर की जली हुई खाल को खींचकर उतार दें इसके बाद गाय का घी , हल्दीपावडर , देशी सिन्दुर मिलाकर मरहम की तरह बनाकर जीभ पर लगायें इस योग को ठीक होने तक लगाना चाहिए ।

२ - औषधि - एक पक्षी होता है मैली बुगली उसको मारकर, पकाकर शोरबा बनाकर खिलाने से भी लाभ होता हैं । साथ-साथ उसके शरीर से निकली हूई हड्डियों को पीसकर पशु की जीप पर लगायें तो जल्दी आराम आता हैं ।


५ - बहता रोग
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कारण व लक्षण :- इस रोग में पशु की जीभ बहुत अधिक फूल जाती हैं , जिसके कारण उसके मुख से हर समय लार टपकती रहती हैं । रोगी पशु के नेत्रों से पानी बहने लगता हैं जिसके कारण रोगी पशु बहुत विकल्प रहता हैं , आँख से हर समय पानी बहता रहता हैं इसिलिए किसान इस रोग को बहता रोग कहते हैं ।

१ - औषधि - पशु की जीभ के नीचे वाले हिस्से के चारों रंगों में चार फस्दया फश्त खोल देना ही इस रोग का मुख्य इलाज हैं । नश्तर के घाव में - हल्दी पावडर , देशी सिन्दुर , गाय का घी मलना लाभकारी रहता है ।



६ - जिह्वा व्रण ( जीभ के घाव )
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कारण व लक्षण - पशु की जीभ पर घाव हो जाते हैं । जिसके कारण पशु ठीक प्रकार से खाना- पीना ठीक से नहीं कर पाता है और वह बहुत परेशान रहता हैं । यह रोग गायों को बहुत अधिक होता हैं ।

१ - औषधि - पशु की जीभ पर घाव होतों - पीपल की छाल जलाकर उसकी महीन राख जीप्रणाम रगड़कर कुछ देर के के लिए रोगी पशु के मुँह को बाँध देना चाहिए । दबाकर न बाँधे इतना बाँधे की पशु जबड़ा न चला पाये लेकिन नाक से साँस बन्द न हो । कभी इतना टाईट बाँध दें कि वह साँस भी न लें सकें ध्यान रहें ।


७ - गरदब्बा
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कारण व लक्षण :- इस रोग में जीभ की जड़ में अधिक सूजन आ जाती हैं जिसके कारण रोगी पशु का मुख काफ़ी गरम प्रतित होता हैं । यह भयंकर रोग हैं इसे भी जहरबाद की तरह असाध्य समझा जाता हैं । अत: इस रोग के लक्षण प्रकट होते ही तुरन्त इलाज करना चाहिए । पशु के मुँह में हाथ डालकर देखने पर मुँह अन्दर से काफ़ी ठण्डा रहता हैं ,जबकि गलाघोटू रोग में पशु का मुख अन्दर से काफ़ी गरम रहता हैं ।

१ - औषधि - मेंथी आधा पाँव प्याज़ ३ छटांक , पानी १ किलो में पकाकर पशु को नाल द्वारा पिलाने से लाभ होता हैं ।

२ - औषधि - सरसों का तेल १० ग्राम , अफ़ीम ५ ग्राम , मिलाकर पशु के नाक में डालने से आराम आता हैं ।

३ - औषधि - बंडार, कालीजीरी और मकोय तीनों को थोड़ा पानी डालकर पीस लें फिर गरम करके , महुए पुत्री बनाकर पुन: पतरी को रूई में रखकर हलक के ऊपर बाँधना भी लाभदायक हैं ।

४ - औषधि - धतुरे का पत्ता , मेउड़ का पत्ता , बकायन के पत्ते , आकाश बंवर का पत्ता और अरूस का पत्ता - इन सबको उबालकर सूजन के ऊपर बफारा ( भाँप देना ) देने से लाभ होता हैं ।

५ - औषधि - इस रोग में उपयुक्त दवाओं के प्रयोग से लाभ होता हैं । यदि इनके प्रयोग से कोई लाभ न हो तो रोगग्रस्त स्थान को लोहा छड़ को गरम करके दाग लगाना चाहिए ।


८ - दाँत हिलना
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१ - औषधि - पशुओं के हिलते हुए दाँत की जड़ में पीसी हुई हल्दी रखकर उपर से शुद्ध सरसों का तेल डाल देने से पशु का हिलता हुआ दाँत जम जाता है ।

२ - फिटकरी पावडर में पानी की बूँदें डालकर दाँत की जड़ पर लगाने से दाँत हिलने बन्द हो जाते हैं ।



९ - परिहुल ( मसूड़े फूलना )
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कारण व लक्षण :- इस बिमारी में पशुओं के दाँतों की जड़े ( मसूड़े ) फूलकर मोटे हो जाते हैं । जिसके फलस्वरूप पशु का मुख बड़ा गरम हो जाता हैं । शुरूआत में फूले हुए मसूड़े काफ़ी कठोर रहते हैं किन्तु कुछ दिनों के बाद वे पक जाते हैं और उनसे मवाद निकलने लगता हैं । इस रोग से ग्रस्त पशु न तो चारा ही चर सकता है और न ही दाना खा पाता हैं ।

१ - औषधि - शुरूआत में तो ३-४ बार साँभरनमक तथा हल्दी बारीक पीसकर व कपडछान करके मलते रहना चाहिए । यदि कुछ दिन तक मलने से सूजन नरम पड़ जाये तो नश्तर से चीरा देकर मवाद निकाल देनी चाहिए । उसके बाद पान के पत्ते पर बुरककर कालीमिर्च व सोंठ पावडर सूजन पर लगाना चाहिए ।

२ - औषधि - मेंथी , सांभर नमक और अलसी - प्रत्येक को समान मात्रा में लेकर पुलटीश बनाकर लेंप करना चाहिए यह उपयोगी होता है ।

३ - औषधि - यदि रोग की तीव्रता के कारण पशु को बुखार हो जाये और वह बुखार से परेशान होकर चक्कर काट रहा हो तो - गुड़ और चिरायता ५००-५०० ग्राम , लेकर लगभग १ लीटर पानी में औटायें । जब आधा पानी रह जाये तब छानकर रोगी पशु को गुनगुना ही पिला देना लाभप्रद होता हैं ।

# - मुलायम घास व अलसी या चावल का माण्ड में नमक मिलाकर पशु को पिलाना चाहिए ।


१० - दाँतों मे पायरिया
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कारण व लक्षण :- इस रोग को पिंग रोग के नाम से भी जानते हैं । तथा कहीं- कहीं इस रोग को "गहन " रोग से भी पुकारते हैं । यह दाँतों का भयंकर रोग है । इसमें दाँतों की जड़ों का माँस गल- गलकर क्षीण होने लगता हैं । दाँतों की जड़े खोखली हो जाती हैं और वे हिलने लगते हैं । पायरिया रोग में रोगी पशु को चारा दाना खाने का कष्ट रहता हैं ।

१ - औषधि - सरसों के तेल में रूई को भिगोकर दाँत की जड़ में रखे । साधारण गर्म लोहे को रूई के ऊपर रखें , ताकि तेल गर्म होकर दाँतों की जड़ों में चला जायें । इसके बाद बरगद का दूध रूई में भिगोकर दाँतों की जड़ों में रखने से दाँतों की जड़े मज़बूत हो जाती हैं ।


११ - दाँतों का अनियमित बढ़ना
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कारण व लक्षण :- आमतौर पर यह रोग बूढ़े पशुओं को होता हैं । उनके दाँत ऊँचे - नीचें हो जाते हैं । तथा दाढें बढ़ जाती हैं , जिसके कारण उन्हें चारा - दाना खाने में कष्ट होता हैं । इस रोग से ग्रस्त पशु चारे को दाँतों से भलीप्रकार चबा नहीं पाता हैं और उसे चबाने में कष्ट होता हैं ।
१ - औषधि - इस रोग के इलाज हेतु पशु को किसी सुयोग्य डाक्टर के पास जाकर दाँतों को रितवा देना चाहिए अथवा अनियमित रूप से बढ़े दाँतों को निकलवा देना चाहिए ।


१२ - मुँह पका रोग
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१ - मूहँ पकारोग - जूवाॅसा - १५० ग्राम , अजमोदा - १५० ग्राम , चीता ( चित्रक सफ़ेद ) -१०० ग्राम , बड़ी इलायची - ५० ग्राम , इलायची को कूटकर बाक़ी सभी दवाओं को साढ़े तीन किलो पानी में उबालकर ,छानकर पानी की एक-एक नाल सुबह-सायं देने सेल लाभ होता है ।


१३ - जीभ पर छालें पड़ जाना
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कारण व लक्षण - कभी - कभी गरम चीज़ें खा लेने के कारण शरीर का ताप बढ़ जाता है , या बदहजमी के कारण यह रोग हो जाता है , यह रोग फेफड़ों में भी हो सकता है । पशु की जीभ में छालें पड़ जाते है । मुँह से दुर्गन्ध आती है । लार टपकती है ।खाना - पीना तथा जूगाली करना कम हो जाता है । पश सुस्त रहता है और दिनोंदिन कमज़ोर होता जाता है ।

१ - बछाँग की जड़ ( जलजमनी ) ६० ग्राम , गाय का घी २४० ग्राम , जड़ को महीन कूटकर उसे घी में गुनगुना गरम करके , बिना छाने , रोगी पशु को एक समय , चार - पाँच दिन तक , दी जाय । उससे अवश्य आराम होगा ।

२ - औषधि - मुर्ग़ी का अण्डा १ नग , गाय का दूध ९६० ग्राम , अण्डे को फोड़कर और गूद्दे को दूध में मिलाकर ख़ूब फेंट लिया जाय । फिर रोगी पशु को दोनो समय ,तीन दिन तक , पिलाया जाय ।

आलोक -:- रोगी पशु को पहले जूलाब दिया जाय । उसके बाद जलजमनी की पत्तियाँ खिलाने से वह अच्छा हो जाता है । यदि वह न खाये , तो उसे बारीक पीसकर पानी के साथ मिलाकर पिलाये ।

३ -औषधि - फिटकरी ६० ग्राम , पानी २४० ग्राम , फिटकरी को पानी में मिलाकर रोगी पशु का सिर धोना चाहिए तथा उसे पिलाना भी चाहिए ।

४ - औषधि - इलायची १२ ग्राम , शीतल चीनी २४ ग्राम , पानी २४० ग्राम , इलायची और शीतल चीनी को पीसकर , पानी में मिलाकर गुनगुना करके , रोगी पशु को आठ दिन तक , देना चाहिए ।

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१४ - पान कोशी
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कारण व लक्षण - मुहँपका रोग में या माता की बिमारी में पशु के भूखे रहने से यह बिमारी हो जाती है । इस रोग में पशु अधिक गर्मी नहीं सहन कर सकता । रोगी पशु अधिक हाँफता हैं । उसे दम चलती है । वह हमेशा छाया में या पानी में रहने की कोशिश करता है । उसके रोयें बढ़ जाते है और काले पड़ जाते हैं । अगर रोगी मादा पशु हो तो गाभिन नहीं होता और हुआ भी तो दूध नहीं देता है ,उसका दूध प्रतिदिन सूखता जाता है।

१ - औषधि - बत्तख का अण्डा १ नग ,गाय का दूध ९६० ग्राम , प्रतिदिन अण्डे को फोड़कर और दूध के साथ ख़ूब फेंटकर रोगी पशु को ८ दिन तक पिलाया जाय। अगर इसके बीच रोगी पशु अच्छा हो जाय तो फिर एक समय यह दवा पिलानी चाहिए ।

२ - औषधि - मुर्ग़ी का अण्डा २ नग , गाय का दूध १ लीटर , अण्डों को तोड़कर , दूध में मिलाकर , रोगी पशु को दोनों समय ८ दिन तक देना चाहिए ।

टोटका -:-
३ - औषधि - गाय के दूध की छाछ १४४० ग्राम , कालीमिर्च ३० ग्राम , कालीमिर्च को महीन पीसकर उसे छाछ में मिला लिया जाय । फिर लोहे के टुकड़े को या पत्थर को लाल गरम करके उसे छाछ में एक दम डालकर तुरन्त ढँक दिया जाय । १५ मिनट बाद उस लोहे के टुकड़े को निकालकर , गुनगुनी छाछ रोगी पशु को दोनों समय , एक माह तक ,इसी मात्रा में पिलायी जाय ।

४ - औषधि - नीम की पत्ती १०० ग्राम , २५० ग्राम पानी में पीसकर पिलानी चाहिए । बाद मे २५० ग्राम , गाय का घी भी दोनों समय देना चाहिए ।

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१५ - फाँसी या छड़ रोग, जीभ के नीचे नसों में काला ख़ून इक्कठा होना ।
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कारण व लक्षण - यह रोग गाय व भैंस और मादा पशुओं की जीभ के नीचे यह प्राय: होता है । यह रोग अन्य पशुओं को नहीं होते देखा गया है । यह रोग गर्मियों में अधिक होता है । पशुओं को सूखी घास खाने तथा ठीक समय पर पानी न मिलने के कारण यह रोग होता है । जीभ के नीचे के भाग की नसों में काला ख़ून भर जाता है । पशु का शरीर अकड़ जाता है। उसकी कमर को ऊपर से दबाने से वह एकदम नीचे झुक जाता है । यह रोग अधिकतर दूधारू भैंसों को होता है । दूधारू पशु दूध देने तथा खाने में कमी करते हैं।

१ - औषधि - पहले रोगी पशु को धीरे से ज़मीन पर लिटा देना चाहिए । फिर उसकी जीभ बाहर निकालकर उसकी बड़ी - बड़ी दो नसों को ( जिनमें काला ख़ून भरा हो ) , जोकि कई छोटी -छोटी नसों को मिलाती है । उसे सुई से तोड़कर काला ख़ून बाहर निकाल देना चाहिए ।और बाद में २४ ग्राम हल्दी, गाय का घी २४ ग्राम , दोनों को मिलाकर जीभ पर नसों के पास लगा दें । इससे ज़ख़्म नर्म और ठीक हो जायगा ।

# - रोगी पशु की पूँछ के नीचे के भाग में थोड़ा - सा चीरा ( नश्तर) लगाकर ख़ून निकाल दिया जाना चाहिए । उसे ऊपर से नीचें की ओर लौटाना चाहिए , जिससे काला रक्त निकल जायेगा । अच्छी तरह दबाकर काला ख़ून निकाल देना चाहिए । काला ख़ून निकल जाने के बाद ज़ख़्म में अफ़ीम चार रत्ती पानी में मिलाकर नरम करकें , भर देनी चाहिए । इससे रोगी को यह रोग दूसरी बार नहीं होगा ।

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१६ - मुँह मे आँवल या मुँह में काँटों का बढ़ना
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कारण व लक्षण - यह रोग गौ वर्ग को होता है कभी - कभी गाय को नमक क्षारयुक्त पदार्थ न मिलने पर भी यह रोग हो जाता है । जिस गाय बैल को सदैव कब्जियत रहती है । उसे यह रोग अधिक होता है । इस रोग में रोगी के मुँह के आँवल बढ़ जाते है । ये आँवल गाय व बैल के जबड़े के अन्दर अग़ल - बग़ल दोनों ओर रहते है । ये काँटे लम्बाई, चौड़ाई और ऊँचाई में बढ़ जाते है । जिससे पशु घास ठीक प्रकार नहीं खा सकता है । वह दिनोंदिन कमज़ोर होने लगता है । दाना भी कम खाता है ।दूधारू गाय दूध देना कम कर देती है ।

१ - औषधि - रोगी पशु को सबसे पहले जूलाब देकर उसका पेट साफ़ कर देना चाहिए ।

२ - औषधि - रोगी पशु को प्रतिदिन २४ ग्राम , पिसानमक उन काँटों पर हाथ से मलना चाहिए ।

३ - औषधि - नारियल के रेशे , कत्थे की रस्सी को या भाभड़ के बाण को इन काँटों पर रगड़ें तथा ख़ूब मलना चाहिए ।

४ - औषधि - रोगी पशु के ज़मीन पर लेटाकर फिर उसके बढ़े हुए काँटे तेज़ कैची द्वारा काट दिये जायँ फिर बाद में हल्दी २४ ग्राम , गाय का घी या मक्खन २४ ग्राम , दोनों को मिलाकर काटो के स्थान पर हाथ से मला जायें । यह क्रिया केवल एक ही दिन करनी होती है । इससे पशु को आराम होगा । तथा ध्यान रहे की रोगी पशु को मुलायम घास , हल्की पतली ,पोषक घास देनी चाहिए । और पशु को हर चौथे नमक देना पड़ता है ।
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(२३)-१-गौ- चिकित्सा - गर्दन रोग ।

(२३)-१-गौ- चिकित्सा - गर्दन रोग ।

गर्दन रोग -
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१ - नमका या चिकवा रोग
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कारण व लक्षण - इस रोग में गर्दन सूजकर अकड़ जाती हैं । और ऐसी कठोर पड़ जाती हैं कि वह दायें- बाँये अथवा ऊपर नीचे किसी भी तरफ़ झुकायें नहीं झुकती हैं ।

१ - औषधि - पूँछ के नीचे गुदामार्ग के ऊपर नस मे फस्त लगा देनी ( खोल देनी ) चाहिए और रोगी पशु को नाक से १०-१५ ग्राम सरसों का तेल पिलाना चाहिए ।

२ - औषधि - रोगी पशु को सात- आठ दिन तक प्रतिदिन आधा किलो पुराना गुड़ खिलाना चाहिए ।

३ - औषधि - रोगी पशु को आठ दिन तक दवा करने पर भी आराम नहीं होता हैं तो " गर्दन की नस चढ़ाना " रोग में जिन दवाओं का विवरण किया गया हैं गेरू - साबुन वाले योग का उपयोग करना चाहिए ।

४ - दागना - यदि किसी दवा से आराम नही आ रहा है तो गर्दन में गोलाकार दाग चारों ओर से दाग देना चाहिए । मेरूदण्ड के दोनों तरफ़ पूँछ से गर्दन तक दाग दें और इसके बाद ४-४ अँगुल पर बीच- बीच में दाग कर देना चाहिए तथा पूँछ उठा कर नीचे के भाग में दाग दें । दागने बाद भी दवा वही चलाते रहें ।

२- गर्दन की नस चढ़ना
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कारण व लक्षण - यह रोग अक्सर गाड़ी में चलने वाले पशुओं को होता हैं । प्राय: यह रोग झटका लगने से हो जाता हैं । इसमें गर्दन की नस चढ़ जाती हैं तथा पशु अकड़ा सा खड़ा रहता हैं । वह इधर- उधर नहीं देख पाता हैं और चरने के लिए मुँह नहीं खोल पाता हैं ।

१ - औषधि - बाँबी ( दीमक ) की मिट्टी और भेड़ के गोबर को गाय की बछिया के मूत्र में पीसकर गरम करके मालिश करना लाभकारी सिद्ध होता हैं ।

२ - औषधि - गेरू और साबुन को समान भाग लेकर सरसों के तेल में पकाकर ४-५ दिन तक मालिश करने से नस ठिकाने बैठकर गर्दन सीधी हो जाती हैं ।


३ - पनियारी
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कारण व लक्षण - पशुओं के मुख व चौहर के बीच में जो ख़ाली स्थान होता हैं - इस रोग में उस पर सूजन हो जाती हैं । यह सूजन बढ़कर दाढ़ी से गर्दन तक फैल जाता हैं । इस रोग से पीड़ित पशु का मुख नहीं खुलता हैं । पशु खाना- पीना छोड़ देता हैं तथा वह अत्यन्त बैचनी की िस्थति में रहता हैं ।

१ - औषधि - इस रोग को ठीक करने का सर्वोत्तम उपाय हैं - लोहे की छड़ को लाल करके सूजन को दाग देना चाहिए ।

२ - टोटका - बकरे के सिर पर जहाँ गूद्दी होती हैं वहां के बाल लेकर व पत्थर का चूना लेकर आपस में मिलाकर रोगग्रस्त स्थान पर लेप करने से आराम आता हैं ।


४ - कण्ठमाला
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कारण व लक्षण - इस रोग को गण्डमाल के नाम से भी जानते हैं । यह रोग पशुओं की गर्दन की नस के उपर फुन्सियो के रूप में होता हैं । कुछ समय पश्चात् ये फुन्सियाँ फूटने लगती हैं ।

१ - दागना - सर्वप्रथम समस्त फुन्सियाँ को लोहा गरम करके दाग देना चाहिए ।

२ - औषधि - इसको दागने की एक यह भी विधी हैं - सेहुड़ की दूध वाली डाल लेकर उससे कण्ठ को गोद दें ।
३ - औषधि - सरसों का तेल ३ पाँव , पुरूष के सिर के बाल १ छटांक , तेल को आग पर चढ़ाकर उसमें बाल डालकर औटायें जब बाल जलकर राख हो जायें तो उसमें आधा पाँव देशी साबुन डाल दें । इस मरहम को तैयार करके दागे हूए स्थान पर जहाँ कण्ठमाला है उस पर लगायें ।


५ - गर्दन तोड़
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कारण व लक्षण - इस रोग में पशु की गर्दन नहीं घूमती । वह अकड़ जाती है । उसे बुखार रहता है । वह खाना- पीना छोड़ देता है । समय पर ठीक इलाज न होने पर पशु मर जाता है ।

१- औषधि - घुड़बचर १२० ग्राम , लहसुन ६० ग्राम , गुड २४० ग्राम , अजवाइन ६० ग्राम , इन्द्रायण का फल ३० ग्राम , पानी १२०० सबको बारीक कूट - पीसकर और पानी में उबालकर कुनकुना रहने पर , रोगी पशु को बिना छाने , पिला दिया जाय । दवा दोनों समय, अच्छा होने तक देनी चाहिए ।

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५ - गर्दन व रीढ़ का अकड़ जाना ।
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कारण व लक्षण - पशु को समय पर पानी न मिलने से यह रोग हो जाता है । पहले तो रोगी पशु को किसी नदी या तालाब में पाँच दिनों तक ख़ूब तैराना चाहिए । फिर उसके सिर को एक अच्छी रस्सी में बाँधकर वृक्ष आदि के ऊपर रस्सी डालकर उसके अगले दोनों पाँव ज़मीन से छुड़ा देने चाहिए । यानि पशु अगले पाँव से टंग जायें । यह कार्य बहुत जल्दी और केवल तीन मिनट तक ही किया जायें। फिर रोगी पशु की बेची पर लगभग एक रूपये के सिक्के के बराबर उस जगह के बाल खुरचकर निकाल दिया जाये ओर इस खुरचे हुए स्थान पर आक ( मदार ) के दूध में ,५ ग्राम रूई को भिगोकर चिपका दिया जाय । ऐसा बिना खुरचे भी ६ दिन तक लगाया जाय ।

१ - औषधि - - आबाँहल्दी २५० ग्राम , फिटकरी २५० ग्राम , सज्जी २५० सबको बारीक पीसकर छान लेना चाहिए और गोमूत्र या भैंस का मूत्र ४८० ग्राम , दवा १२० ग्राम इस हिसाब से मिलाकर , बिना छाने,एक समय रोगी पशु को आठ दिन तक पिलायी जाये ।

२ - औषधि - मेंथी का बीज ४८० ग्राम , गाय के दूध से बनी छाछ ३ लीटर , मेंथी के बीज को बारीक पीसकर , छाछ में मिलाकर , ८ घन्टे पहले गलना चाहिए । रोगी को दोनों समय ८ दिन तक पिलाना चाहिए । बाद दिन में एक समय आराम होने तक देना चाहिए । और उसकी खुराक बंद करके हरी घास खिलायी जायें ।।

३ - औषधि - फिटकरी ४८० ग्राम , काला नमक १२० ग्राम , आबाँहल्दी ४८० ग्राम , सज्जी ४८० ग्राम , ढाढ़न के बीज ५५० ग्राम सबको बारीक पीसकर और छानकर उनमें गोमूत्र ४८० ग्राम, और दवा १८० ग्राम , दोनों को मिलाकर रोगी पशु को सुबह बिना छाने , ११ दिन तक , बोतल या नाल से पिलाया जाय ।

४ - औषधि - रोगी पशु की रीढ़ पर तिल का तैल ४० ग्राम , पिचकारी में चमड़ी के भीतर उतारा जाय और उस स्थान को ख़ूब मसल दिया जाय, ताकि तेल सब जगह मिल जाय । जिस दिन दवा उतारें , उस दिन नीचें उतारें । दूसरे दिन नीचे से उपर मालिश करें और नीम के पानी से सेंकें ।

५ - औषधि - मेंथी के बीज ४८० ग्राम , पवाडिया ( चक्रमर्द ) के बीज ४८० ग्राम , नमक ३६ ग्राम , पानी ४ लीटर , बीजों और नमक को महीन पीसकर , पानी में मिलाकर , ख़ूब उबालें ,ठन्डा होने पर दोनों समय ,१५ दिन तक रोगी पशु को खिलायें ।

# - १० ग्राम भुई कोला ( पाताल तुमड़़ी ) बिदारीकन्द उबाल और छानकर काम में लिया जायें ।

५ - औषधि - रोगी नर पशु की कमर व गर्दन में पिचकारी से दवा उतारी जाय,भुई कोला का तेल बना करकें - भुई कोला ( पाताल तुमड़़ी ) ४०० ग्राम , अलसी का तैल १००० ग्राम ,पाताल तुमड़़ी को तैल में पकाकर तैयार कर लें ।

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६ - कन्धो में सूजन और पेशाब चढ़ जाना
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कारण व लक्षण - जब बैल पेशाब करता है तो उसे रोक देना चाहिए । उस समय उसे चलाया नहीं जाना चाहिए । गोबर निकालते ( टट्टी करते ) समय भी उसे आराम देना चाहिए । ऐसा न करने पर कंधा की बिमारी हो जाती है । उसके शरीर के अन्दर पेशाब ( मूत्र ) भर जाता है । कन्धे पर काफ़ी सूजन आ जाती है । यह रोग केवल बैल को ही हो जाती है ।

१ - औषधि - सुई लगाकर पिचकारी से उसका मूत्र कन्धा में से निकालकर बाहर फेंक दें । बाद में नीम के उबले हुए पानी से घाव को धोयें तथा कपड़े से उसकाे पोंछ दें । अामचूर का तेल १२० ग्राम ,सिंगदराद पत्थर९० ग्राम , लेकर सिंगदराद को महीन पीसकर दोनों को मिलाकर गरम करके मालिश करें । दोनों समय, सुबह- सांय नीम के पानी से घाव धोते रहना चाहिए ।

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७ - कन्धा तिड़कना
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कारण व लक्षण - यह रोग बैल व भैंसे मे होता है जोत को ढिला रखने पर गाड़ी मे काफ़ी दिनों तक न जोतने पर और फिर अचानक जोतने पर बैल का कन्धा तिडक जाता है । उससे ख़ून निकलने लगता है । उस पर मक्खियाँ गिरने लगती है । लापरवाही के कारण घाव हो जाता है और उसमें कीड़े भी पड़ जाते हैं ।

१ - औषधि - पहले रोगी पशु के कंधे को नीम के उबले हुए गुनगुने पानी से सेंकना चाहिए , फिर रूई से उसे साफ़ कर देना चाहिए ।

२ - औषधि - पहले रोगी पशु के कन्धे को नीम के उबले हुए गुनगुने पानी से सेंकना चाहिए , फिर रूई से उसे साफ़ कर देना चाहिए ।

३ - औषधि - अमचूर का तैल २४ ग्राम , सिंगदराद १२ ग्राम , सिंगदराद को पीसकर छान लें और अमचूर के तैल में मिलाकर गरम कर लें । गरम करते समय दवा को हिलाते रहना चाहिए , जिससे दवा अच्छी तरह मिल जाय । फिर गुनगुना दवा से पशु के कन्धे पर दोनों समय , अच्छा होने तक , मालिश करते रहें ।

४ - औषधि - रतनजोत का दूध २४ ग्राम , को रोगी पशु के कन्धे पर दिन में तीन बार , अच्छा होने तक ,लगाते रहे ।

५ - औषधि - गधापलास की गीली लकड़ी के काँटे साफ़ कर उसे आँच पर जला लें और ठंडा होने पर रोगी पशु के कन्धे पर २४ ग्राम , नारियल तैल लगाकर लकड़ी से घाव पर दोनों समय ,अच्छा होने तक रगड़े । इससे पशु जल्दी अच्छा होगा ।

६ - औषधि - नीम का तैल १२ ग्राम , मिस्सी ९ ग्राम , नीम के तैल को रोगी पशु के घाव पर लगाकर मिस्सी को बारीक पीसकर लगायें ।

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८ - कन्धे में गाँठ पड़ना
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कारण व लक्षण - अक्सर बैलों को जोतने पर , जोत ढीली रहने पर , नया बैल होने पर , छोटे-बड़े बैलों को एक साथ जोतने पर , बैलों को लगातार १५ दिनों तक न जोतने के बाद यकायक जोतने पर बैल के कन्धो पर सूजन आ जाती है । यह सूजन धीरे - धीरे गाँठ का रूप धारण कर लेती है । इससे पशु को बहुत कष्ट होता है ।

१ - औषधि - कन्धे की गाँठ को पहले नीम के उबले हुए पानी में दोनों समय , क़रीब आठ दिनों तक , सेकें । गरम ईंट से गाँठ सेंकने से पशु को आराम होता है ।

२ - औषधि - अमचूर का तैल ४८ ग्राम , सिंगदराद २४ ग्राम , सिंगदराद को महीन पीसकर कपड़े में छानकर तैल गरम करते समय मिला दें । उसे हिलाते रहे । फिर गुनगुना होने पर पंशु के कन्धे पर दोनों समय ,अच्छा होने तक लगायें ।

३ - आक ( मदार ) का दूध छ: माशा ( ९ ग्राम ) रोगी पशु को बेची पर चाक़ू से एक रूपये के बराबर जगह खुरचकर बाल उड़ा दें । फिर उसी स्थान पर रूई से आक का दूध लगा दें । प्रतिदिन सुबह ६ दिन तक दूध लगायें ऐसा करने पर पहले कन्धे पर सूजन आयेगी । नसें तंग होगी , लेकिन उसके बाद गाँठ गल जायेंगी । गँवारपाठा का गूद्दा निकालकर पशु के कन्धे पर लगाना चाहिए ।

४ - औषधि - मदार की जड़ ६ माशा रोटी में डालकर पशु को आठ दिन तक खिलानी चाहिए ।

९ - बैल व भैंसा की गर्दन में मूतार
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कारण व लक्षण - मूतार ( बैल - भैंसा ) की गर्दन में सूजन आने के बाद पक जाना -- यह बिमारी वज़न ढोनेवाले पशुओं की गर्दन में हो जाता है ।गर्दन में सूजन आ जाती है। एसे में किसान को जुताई नहीं करनी चाहिए ।

१ - औषधि - असली रूमीमस्तगीं ५ ग्राम , राल २० ग्राम , गूगल १० ग्राम , मूर्दा सिंह १० ग्राम , सिन्दुर १० ग्राम , नील ३ ग्राम , मोमदेशी ३० ग्राम , इन सभी दवाओं को कूटकर १५० ग्राम ,सरसों के तैल मे मिलाकर एक उबाल देकर डिब्बे में रख लें और पशु को धूप में बाँध कर उसकी गर्दन पर लगाये ।
दवाई को हाथ से नही लगानी चाहिए , किसी लकड़ी की चम्मच से लगाना चाहीए , दवाई गर्दन पर पतली- पतली दवा लगाना चाहिए नहीं तो गर्दन को जला देगी , और ध्यान रहे जबतक ठीक न हो जबतक पशु को हल व बूग्गी में नहीं जोड़ना चाहिए ।


१० - जहरवात ( जहरबाद ) गर्दन में सूजन
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कारण- लक्षण - इस रोग में पशु की गर्दन में बहुत अधिक सूजन आ जाती हैं । यह कष्टदायक व्याधि हैं पशु दाना-खाना लेने में असमर्थ रहता हैं ।

१ - औषधि - सोंठ, पीपल , कालीमिर्च , ज़ीरा सफ़ेद , ज़ीरा काला , कुटकी , चिरायता , चीता ( चित्रक) बायबिड्ंग , काकडासिंगी , सभी को ५०-५० ग्राम , लेकर कूटपीसकर - कपडछान करके रख लें । बण्डार २०० ग्राम , लहसुन २०० ग्राम , पीसकर मिला लें , इस दवा को ८-९ दिन तक रोज़ाना जौं के आटे में मिलाकर पशु को खिलाना चाहिए ।

२ - औषधि - काली जीरी ५ ग्राम ,कुटकी १० ग्राम , बण्डार १० ग्राम को बराबर में मिलाकर पीसछानकर दिन मे ४-५ बार जौं के आटे में मिलाकर खिलाने से आराम आता हैं ।

३ - औषधि - चीता , चिरायता , काकडासिंगी , जवाॅखार , कुटकी , भाँग , बड़ी पीपल, पीपरामूल , ढाक के बीज , गुगल , संभालू के सूखे पत्तें । मरोड़ फली , सभी को २५०-२५० ग्राम , लें । सज्जीखार , सेंधानमक , कालाजीरा , सफेदजीरा घुड़बच , हींग , अजवायन देशी , अजवायन खुरासानी , राई , अदरक , इन्द्रायण के फल , नीम के पत्ते , बेलगिरी , कालीमिर्च , इन्द्रजौं , गिलोय , छोटी हरड़ , सभी को ५००-५०० ग्राम , लें। बड़ी हरड़ , बण्डार , कचरी , सोंठ , बहेड़ा , सहजन ( सोहजना ) की छाल , पुदिना , प्याज़ , प्रत्येक १-१ किलो लें । कुचला छिला हूआ ३ छटांक , सुहागा फूला ७५ ग्राम , फिटकरी फूला ७५ ग्राम , सबको लेकर कुटपीसकर ७५-७५ ग्राम के गोले बना लें और दिन में तीन बार पशु को खिलाने से जहरवात बिमारी ठीक हो जायेगी ।

४ - औषधि - कालीजीरी , मकोय , बण्डार , सममात्रा में लेकर पीसकुटकर लेपबनाकर लेप को गुनगुना कर रोगग्रस्त स्थान पर लगाकर महुआ का पत्ता बाँधने से लाभकारी सिद्ध होता हैं ।

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११ - जहरवात
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कारण व लक्षण - यह रोग अधिकतर मादा ( दूध देने वाले ) पशुओं के थन और साधारण पशुओं के गले ( कण्ठ) में होता है । पहले गले या कण्ठ और थन में एक गाँठ पैदा होती है । कुछ ही घण्टों बाद वह बड़ा रूप धारण कर लेती है । यह रोग हर जगह हो सकता है ।
गाय को छूने पर वह गरम मालूम होती है । गाँठ का आकार ३-४ इंच तक होता है । पशु खाना पीना और जूगाली करना बन्द कर देता है । उसे बुखार चढ़ आता है । गले पर सूजन आ जाती है , जिससे साँस लेने में उसे कठिनाई होती है । कभी - कभी इसका आक्रमण थनों पर भी होता है । थन ख़राब हो जाते है । थनों और दूग्धकोष पर सूजन आ जाती है , कभी - कभी छिछडेदार और रक्तमिश्रित दूध निकलता है । समय पर इलाज न होने से थन बेकार हो जाते है । यह बीमारी कभी एक , दो , तीन , चारों थनों में हो जाती है । उपचार उचित समय पर न होने के कारण गर्दन के रोग वाला पशु जल्दी मर जाता है ।

१ - औषधि - रोग - स्थान को नीम के उबले पानी को गुनगुना होने पर दिन में ३ बार सेंका जाय । फिर नारियल का तैल या नीम के तैल की मालिश की जाय । इससे गाँठ को गरम होने में सहायता मिलेगी ।

२ - औषधि - सत्यनाशी की जड़ १२० ग्राम , गुड़ २४० ग्राम , पानी ७२० ग्राम , जड़ को बारीक पीसकर , गुड़ मिलाकर , पानी में घोलकर , रोगी पशु को ( बिना छाने ही ) , दो बार पिलाना चाहिए ।

३ - औषधि - हुलहुल का पुरा पौधा ( मच्छुन्दी ) १२० ग्राम , इसको बारीक पीसकर , रोटी के साथ रोगी पशु को दोनों समय , खिलाया जाय । अथवा इसको बारीक पीसकर ७२० ग्राम , पानी के साथ बिना छाने पिलाया जाय । दवा जादू का - सा असर दिखायेगी ।

टोटका -:-
४ - औषधि - जिस व्यक्ति की सबसे छोटी और अँगूठे के पासवाली अंगुली लम्बी करने से मिल जाती है , उसके द्वारा कुँआरी बछडी का गोबर लेकर सूजन के ऊपर गोल चक्कर बनाकर मध्य में चित्र नं० १ की तरह चीर देना चाहिए ।

आलोक -:- दोनों उँगलियों को मिलाते वक़्त उसको दूसरी दोनों अंगुलियों को हथेली की और दबाकर अंगुलियाँ मिलाना चाहिए ।



१२ - खाँसना ( ढाँसना )
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कारण व लक्षण - प्राय : बदहजमी और सरदी - गर्मी के कारण पशु को खाँसी चला करती है । यह ऐसा रोग है, जिसमें छाती के भीतर फोड़े हो जाते है । और पशु सुस्त रहता है । उसके खानपान में कमी हो जाती है । वह कमज़ोर हो जाता है । अक्सर उसके रोयें खड़े हो जाते हैं । कभी - कभी उसे ज्वर भी आ जाता है । उसका रंग काला पड़ जाता है । अक्सर उसे क़ब्ज़ रहा करती है , नाक वआँख से पानी बहता रहता हैं। और आँख से पानी बहता रहता है । उसकी श्वास की गति बढ़ जाती है । कभी-कभी खाँसते-खाँसते पशु का गोबर निकल जाता है ।

१ - औषधि - धान का छिल्का ४८ ग्राम ,( बिनौला कपास का बीज ) ४८० ग्राम , दोनों को ख़ूब मिलाकर , सूखा ही , आठ दिन तक दोनों समय रोगी पशु को खिलायें ।

२ - औषधि - खड़ी मूँग २४ ग्राम , मीठा तैल १२० ग्राम , खड़ी मूँग को तैल के साथ रोगी पशु को पिलाने से फ़ायदा होता है ।उपर्युक्त मात्रा में प्रतिदिन सुबह- सायं ४-५ दिन तक देने से आराम मिलता है और खाँसी दूर हो जाती हैै । कलई के चूने का पानी १२० ग्राम , चूने को ८ घन्टे पहले गरम पानी में गलाया जाय । फिर ऊपर का स्वच्छ पानी निथारकर रोगी पशु को ६० ग्राम , बोतल द्वारा पिलाया जाय । यह दवा चार दिन तक , दोनों समय ,पिलाये ।
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