(९)-३-गौ- चिकित्सा - पेटरोग ।
१ - पशु का जुगाली न करना
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यह रोग प्राय: मोटे व ख़राब चारे का खिलायें जाना , चारा खिलाकर तुरन्त काम में जोत देना जूगाली करने का समय न मिलना तथा बदहजमी आदि हो जाना ।
इस रोग में भी पशु को हल्का जूलाब देना चाहिए , ताकि पशु का बिना पचा चारा आदि बाहर निकलकर बदहजमी दूर हो जाय । जूलाब हेतु नीचे फ़ार्मुला है--
१ - औषधि :- अप्समसाल्ट ५०० ग्राम , नमक २५० ग्राम , सोंठ १ छटांक , कलमीशोरा ५०० ग्राम , सभी को आपस में मिलाकर १ लीटर पानी में मिलाकर पशु को पिला दें । उसके बाद पशु पीने के लिए गरमपानी दें तथा खाने वाला सोडा और सौँफ २-२ तौला , चिरायता १ तौला , ईसबगोल ५०० ग्राम , आवश्यकतानुसार गन्ने के शीरे में मिलाकर देना चाहिए , इस प्रकार कुछँ दिनों तक इलाज करने पर पशु स्वस्थ होकर जुगाली करने लगता है और उसका हाज़मा ठीक हो जाता है ।
२ - पशु के मेदे में चारा अटक जाना
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कारण- लक्षण :- जब पशु मुलायम हरा चारा खाते- खाते अचानक सुखा और कड़ा चारा खाने लगता है तो उसे ठीक प्रकार से पचा नहीं पाता और वह उसके मेदे में अड़ जाता है । इसी प्रकार यदि पशु कई दिन का भूखा हो , उस तेज़ भूख में ही उसे सुखा तथा कड़ा चारा खाने को दें दें तो वह चारा पेट में पहुँचने पर मेदे की दीवारें उसके बोझ से फैल जाती है , नसें दब जाती हैं । उनसे निकलने वाला पाचक रस पर्याप्त मात्रा में नहीं निकल पाता है ।परिणामत: मेदा धीरे- धीरे काम करता हैं तथा भोजन को ठीक से हज़म नहीं कर पाता है । जिसके कारण पशु दुर्बल व बिमार हो जाता हैं ।
इस रोग के लक्षण कुछ अफारा से मिलते जुलते हैं। अन्तर केवल यह होता हैं , कि अफारा में लक्षण तेज़ी से दिखाई देते हैं किन्तु इस रोग में लक्षण धीरे- धीरे दिखाई देते है । अफारा में पशु कुछ दिनों या कुछ घन्टों में मर जाता है , किन्तु इस रोग में पशु ४-५ दिन तक संघर्ष करता रहता हैं तथा अन्य प्रमुख लक्षणों में -- जुगाली बन्द कर देता है , सुस्त रहता है और बाँयी ओर की कोख धीरे- धीरे फूलने लगना , पेट पर अंगुली से ठोकने पर ढोल जैसी आवाज़ आना तथा कोख को दबाने पर गुँथें हुए आटे की भाँति गड्डा पड़ जाता हैं , रोग के प्रारम्भ में ही पशु को क़ब्ज़ हो जाता हैं । तथा कुछ घन्टो के बाद ही रोग बढने लगता हैं सांसें तेज़ चलने लगती हैं । पशु साँस लेने में कराहता हैं प्राय: दांयी करवट बैठता हैं और बैठकर फिर जल्दी उठ जाता हैं , क्योंकि बैठकर साँस लेने में उसे कठिनाई मैहसुस होने लगती हैं । पशु गोबर कड़ा व थोड़ा-थोड़ा करता हैं और यदि चारा पेट में सड़ने लगता है तो पेट फूल जाता हैं । और बुखार चढ़ जाता है , नाड़ी हल्की व कमज़ोर होकर चलने लगती है उचित चिकित्सा न मिलने पर बेचैनी व घोर कष्ट को सहन करते- करते पशु असहाय होकर गिर पड़ता हैं और दम घुटकर उस रोगी पशु की मृत्यु हो जाती हैं ।
औषधियाँ -- सबसे पहले ऐसे रोगी को ऐसी दवाओं का प्रयोग कराना चाहिए जो जो मेदे को शक्ति प्रदान करने वाला हो ताकि चारा हज़म होकर अपने आप ही आगे बढ़ता जायें , साथ- साथ दस्तावर दवा देकर क़ब्ज़ को भी होने रोकना चाहिए और पशु का पेट साफ़ कर देना चाहिए ।
१ - औषधि :- नमक ५ तौला, गरमपानी २ किलो लेकर उसमें नमक मिलाकर पिलाये , इससे दस्त खुलकर आते है , रोगी पशु को आराम आने लगता हैं ।
२ - औषधि :- अरण्डी तेल ८ छटांक , गन्धकपावडर २ छटांक , जमालघोटा की गिरी ५ नग का पावडर , देशीशराब १२५ मिलीग्राम , लेकर सभी को आपस में मिलाकर रोगी पशु को नाल द्वारा पिलाने से लाभ होता हैं ।यह कल्याणकारी योग है ।
३ - औषधि :- पशु के पेट पर विशेषकर बाँयी कोख पर मालिश करना व सेंक करना भी लाभदायक हैं , इसके लिए तारपीन का तेल पानी में डालकर उससे सेंक करें तथा तारपीन का तेल १० ग्राम , तिल का तेल ५० ग्राम , मिलाकर उससे मालिश करना चाहिए । उसके बाद गरम कपड़े से सेंक करें , यह लाभकारी रहेगा ।
४ :- औषधि :- यदि पशु बेहोश होने लगे तो अजवायन पावडर २ तौला , सोंठपावडर १ तौला , नोंसादरपावडर १ तौला , पानी ५०० ग्राम , सभी को आपस में मिलाकर पशु को पिलायें फिर उसके बाद चावलों का माण्ड ५०० ग्राम मे १ छटांक नमक , मिलाकर पशु को मिलाकर दें ।
# - यदि आराम नहीं हो रहा है तो आपरेशन कराना ज़रूरी होगा ।
३ - पशु के पेट में बन्द लगना ( गोबर न करना )
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कारण- लक्षण :- यह रोग अधिकतर चारे की कमी , अकाल , तेज़ गर्मी , आदि कारणों से पशुओं को हो जाता हैं । जब पशुओं को हरा चारा पर्याप्त मात्रा में नहीं मिलता और उन्हें रूखे - सूखे चारे पर ही निर्भर रहना पड़ता हैं । ऐसी स्थिति में पशु सरकण्डे तथा सूखी टहनियाँ आदि खाकर पेट भरते हैं और वह सूखी टहनियाँ पेट में जाकर तीसरे अमाशय में अटक जाती हैं और वहाँ पत्थर की तरह कड़ी होकर जम जाती हैं । इस रोग में - पशु जूगाली करना तथा चारा खाना बन्द कर देता हैं । उसकी भूख ख़त्म हो जाती हैं । क़ब्ज़ और पेटदर्द के कारण पशु कराहता हैं । कभी - कभी दस्त भी लग जाते हैं , पेट फूल जाता हैं पेशाब का रंग लाल हो जाता है । गोबर में चारे के काले- काले टुकड़े निकलते हैं । पेट में जलन बढ़ जाती हैं , पशु दाँत पीसता हैं और बेचैन रहता हैं । उसके कान और सींग ठन्डे पड़ जाते है । गोबर पतला , गाँठदार तथा दुर्गन्ध से भरा होता हैं , रोगी पशु धीरे- धीरे कमज़ोर होकर ५-७ दिन में मर जाता है ।
१ - औषधि - जबतक अटकी हूआ चारा न निकल जायें तबतक अलसी के दलिया के अतिरिक्त ओर कुछ खाने को न दें ।
२ - औषधि - तारपीन का तेल व अलसी का तेल मिलाकर पेट पर मालिश करना लाभदायक होता हैं ।
३ - औषधि - तारपीन का तेल मिलाकर गरम करकें उससे पेट पर सेंक करना गुणकारी होता हैं ।
४ - नमक ३५० ग्राम , एलुवा १ छटांक , सोंठ पावडर १२५ ग्राम , गन्ने की राब १२५ ग्राम , गरमपानी १ किलो , सभी को आपस में मिलाकर नाल द्वारा पिलाने से पशु को दस्त होकर पेट का रूका हुआ मल निकल जायेगा और वह ठीक हो जायेगा ।
दवा देने के ठीक बाद डेढ़ छटांक अलसी , डेढ़ छटांक देशी शराब , पानी ४ किलो , अलसी व पानी मिलाकर पतला- पतला दलिया बना लें और बन जाने पर शराब डालकर पशु पिलायें , यदि आठ पहर तक पशु को दस्त न आयें तो उपरोक्त दवा फिर से देवें लेकिन दूसरी बार में दवा की मात्रा आधी कर दें , और यह दलिया भी बारबार पिलाते रहने से आराम आ जायेगा ।
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