(३४)-२-गौ - चि०-अन्य-छोटी बिमारी ।
अन्य छोटी - छोटी बिमारियाँ
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१ - पशु को चक्कर आना
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कारण व लक्षण - पशुओं को वर्षा - ऋतु के आरम्भ में नया , गन्दा पानी पी लेने के कारण चक्कर का रोग हो जाता है । पशु अचानक चक्कर खाकर गिर जाता है । चक्कर खाते समय रोगी पशु पीछे - पीछे हटता जाता है और चक्कर खाकर गिर पड़ता है । वह बेहोश हो जाता है , आँखें घुमाता हैं और काँपने लगता हैं ।
१ - औषधि - चक्करदार चींटी , जो ज़मीन पर चक्करदार बिल बनाती है , उस जगह के बिल के चक्करवाली मिट्टी ३० ग्राम , पानी २४० ग्राम , उक्त मिट्टी को पानी में घोलकर छान लें और रोगी पशु को चार - चार घन्टे बाद उक्त मात्रा में आराम होने तक देते रहें ।
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२ - चमारी चढ़ना
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१ - औषधि -- पहले उस स्थान को नीम के उबले हुए गुनगुने पानी से धोना चाहिए। आमचूर का तैल ४८ ग्राम , सिंगदराद पत्थर २४ ग्राम , सिंगदराद को महीन पीसकर गरम तैल में मिलाकर गरम करें और गुनगुना होने पर रोगी पशु को रोग - स्थान पर , दिन में २ बार, अच्छा होने तक , लगायें ।
२ -- औषधि - नील ९ ग्राम , देशी साबुन ४८ ग्राम , दोनों को मिलाकर करके गुनगुना होने पर पशु को , रोगग्रस्त स्थान पर दोनों समय अच्छा होने तक लगायें ।
३ - औषधि - मेंहदी १२ ग्राम , आमचूर का तैल ४८ ० ग्राम , मेहंदी को महीन पीसकर कपड़े से छानकर तैल में मिलाकर गरम कर लें । गरम करते समय हिलाते रहना चाहिए । गुनगुना होने पर रोगग्रस्त स्थान पर, दोनों समय , अच्छा होने तक , लगायें ।
४ - औषधि - रोगग्रस्त स्थान पर रतनजोत ( बधरेंडी ) का दूध २ तोला ( २४ ग्राम ) रोज , दोनों समय , अच्छा होने तक लगायें । कभी - कभी अधिक दिनों तक इस रोग का इलाज न करने से उसमें माँस के अंकुर निकल आते हैं । उनको काटकर दागनी से दाग लगा देना चाहिए ।
५ - औषधि - पारिभद्र, (गधापलास , इण्डियन कोरल ट्री,एथटिना इ्ण्डिका ) की गीली लकड़ी लाकर और उसके काँटे को साफ़ करके आग में जला देना चाहिए । फिर रोगग्रस्त स्थान पर गाय का घी लगाकर जली हुई लकड़ी को ख़ूब घिसना चाहिए , ताकि रोग - स्थान काला पड़ जायें ।
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३ - नासूर ( घाव )
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कारण व लक्षण - यह रोग फोड़े होने पर होता है । या नस में छेद हो जाने पर होता हैं । कभी - कभी कोई हड्डी रह जाने पर भी नासूर हो जाता है । यह काफ़ी बड़ा फोड़ा हो जाता है और नस में छेद होने पर ख़ून निकलता रहता है ।
१ - औषधि - आवॅला १२ ग्राम , कौड़ी २४ ग्राम , नीला थोथा ५ ग्राम , गाय का घी ५ ग्राम , आॅवले और कचौड़ी को जलाकर , ख़ाक करके , पीसलेना चाहिए । फिर नीले थोथे को पीसकर मिलाना चाहिए । उसमें घी मिलाकर गरम करके गुनगुना कर नासूर में भर देना चाहिए ।
२ - औषधि - नीला थोथा १२ ग्राम , गोमूत्र ९६० ग्राम , नीलेथोथे को महीन पीसकर , उसे गोमूत्र में मिलाकर , पिचकारी द्वारा नासूर में भर देना चाहिए ।
३ - औषधि - काला ढाक , पलाश,की अन्तरछाल २४ ग्राम , गोमूत्र ६० ग्राम , छाल को महीन पीसकर , कपड़े से छानकर , गोमूत्र में मिलाकर , पट्टी से बाँध देना चाहिए । यह पट्टी २४ घन्टे बाद रोज़ बदलते रहना चाहिए ।
५ - औषधि - हल्दी, फिटकरी , गन्धक , प्रत्येक आधा- आधा पाँव , नीला थोथा १ छटांक , हींग ढाई तौला , लहसुन का रस १ पाँव , अदरक का रस आधा किलो , धतुरे के पत्तों के का रस १ किलो कड़वा ( सरसों ) का तेल डेढ़ पाँव - सभी को मिलाकर मन्द- मन्द आँच पर पकायें । जब पानी जल जाये और तेल शेष रह जायें तो छानकर साफ़ - स्वच्छ शीशी में भरकर सुरक्षित रख लें । यह तेल भी उत्तम कीटाणुनाशक है हैं । साथ ही यह तेल - नासूर , घाव , फोड़े ,फुन्सी , खाज , छाजन आदि समस्त चर्मरोग के लिए भी लाभकारी हैं । यह दवा घाव भरने की अच्छी औषधि हैं ।
४ - पटका रोग
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कारण व लक्षण - इस रोग से पिडित पशु अचानक धरती पर गिर पड़ता हैं बेदम और बेहोश हो जाता हैं तथा तुरन्त ही उसकी मृत्यु हो जाती हैं । यह रोगी एक या दोपहर में ही मर जाता हैं ।
१ - उपचार - यह रोग असाध्य हैं किन्तु जब तक पशु जीवित हैं तबतक उसका एक कान या आधे सिर दाग देना चाहिए । दैवयोग से इस उपाय से सुधार होते देखा गया हैं । जबकि इस रोग से बचना मुश्किल होता हैं ।
२ - टोटका - पशु के गिरते ही हुक्के का पुराने से पुराना पानी , मनुष्य के सिर की जूँएँ , दोनों को लेकर रोगी पशु के कान में डालकर में डालकर कानों को मुँह की ओर करके मुँह से चिपका कर १०-१५ मिनट के लिए बन्द कर दें कानों में हवा न जा पाये पशु बच जाता है यह रामबाण टोटका हैं ।
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५ - शीत पित्त उछलना
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कारण व लक्षण । - यह रोग पित्त की ख़राबी के कारण - विशेष से पित्त में यह रोग फैल जाता है । इस रोग में रोगी पशु की चमड़ी पर स्थान - स्थान पर मच्छर के काँटे जैसे गोल- गोल चकत्ते पड़ जाते है । ये चकत्ते एक से डेढ़ इंच तक के होते है । पशु के पूरे शरीर पर चकत्ते घटते बढ़ते रहते है ।
१ - औषधि - सेंधानमक ३६ ग्राम , कालीमिर्च १२ ग्राम , सरसों का तैल ३६० ग्राम , सभी को बारीक पीसकर छान लेना चाहिए तथा तैल में मिलाकर गरम करके ,इस खुराक को सुबह - सायं गुनगुना करके दो दिन तक पिलाना चाहिए ।
२ - औषधि - ढाक ( पलाश ) की जड़ ९६० ग्राम , पानी ३ लीटर , जड़ को महीन पीसकर पानी में डालकर ख़ूब पकायें जब पानी २ लीटर रह जाये तब उस पानी को छानकर २० लीटर पानी में मिलाकर पशु को सुबह - सायं ,आराम होने तक रोज़ स्नान करायें ।
३ - औषधि - घुड़बच ६० ग्राम , नमक ३६ ग्राम , मीठा तैल १८० ग्राम , दोनों को बारीक कूटछानकर तैल में मिलाकर , गरम करके गुनगुना रहने पर सुबह - सायं पिलाया जाये तथा उपर्युक्त विधी से स्नान कराने बाद पिलायें तो जल्दी आराम आयेगा ।
४ - औषधि - घुड़बच ६० ग्राम , नमक ३६ ग्राम , मीठा तैल १८० ग्राम , दोनों को बारीक कूटपीसकर , छान लें और तैल में मिलाकर गरम करके गुनगुना होने पर दोनों समय पिलाया जाये और उपर्युक्त विधी से स्नान कराया जायें ।
आलोक - रोगी पशु को धूप में बाँधना चाहिए और रात में किसी बन्द कमरे में बाँधना चाहिए।
६ - पशु का अकड़ जाना
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कारण व लक्षण - ठण्ड लगने के कारण , सर्दी व वर्षा में बँधे रहने से प्राय: पशु अकड़ जाते हैं । अन्य कारणों से भी कभी-कभी पशु अकड़ जाते है । सूखा कपासिया खिलाने से भी पशु अकड़ जाते हैं । ऐसी हालत में पशु अच्छी तरह चल नहीं सकते, दूधारू पशु दूध देने में कभी कर देते हैं । पशु के रोयें ( रोंगटे ) खड़े हो जाते है ।
१ - औषधि - - मीठा तैल ५०० ग्राम , काला नमक ६० ग्राम , लेकर नमक को पीसकर तैल में मिलाकर सुबह- सायं ऊपर लिखी दवा की मात्रा पिलानी चाहिऐ ।
२ - औषधि - - गुड़हल की अन्तरछाल ९६० ग्राम , पानी ४८०० ग्राम , छाल को बारीक कूटकर उसे पानी में उबालकर, लगभग चौथाई दवा रहने पर उसे छानकर रोगी पशु को दोनों समय इसी मात्रा में दें । आराम होने तक यह दवा देते रहना चाहिऐ ।
३ - औषधि - - मेंथी के बीज ४८० ग्राम , पानी २४०० ग्राम , तथा मेंथी के बीज को बारीक पीसकर, या पानी के साथ उबालें । गाढ़ा होने पर ठण्डा कर रोगी पशु को दोनों समय अच्छा होने तक पिलायें ।
# - दूधारू पशु को यह दवा पिलाने पर दूध को रोज़ाना तौलना चाहिऐ ।जैसे-जैसे पशु अच्छा होता जायेगा , उसके दूध की मात्रा बढ़ती जायेगी ।
४ - औषधि - - ढाक ( टेसू ) सूखे फल ४८० ग्राम , पानी ३७६० ग्राम , ढाक के फुलों को पानी में उबालकर औटाते रहे चौथाई पानी रहने पर कपड़े में छानकर कुनकुना पानी रोगी पशु को दोनों समय आराम होने तक पिलाते रहे। ढाक के फूल ९६० ग्राम , बारीक कूटकर १४ किलो ६०० ग्राम , पानी में डालकर उबालना चाहिऐ ,जब करीब ३ किलो पानी रह जायें , तब उसे उतार लेना चाहिऐ और उससे दिन में एक समय पशु को नहला देना चाहिए ढाक के उन्हीं फूलों को कपड़े में बाँधकर नहलाते समय गरम पानी में पोटली को भिगोकर उसे रगड़ते जायँ उससे ज़्यादा फ़ायदा होगा ।
७ - धनुषटंकार या धनुर्वात ( हनुस्तम्भ ) रोग ( Tats us or Lock Jaw )
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कारण व लक्षण :- यह रोग सबसे अधिक घोड़ों में होता हैं अन्य पशुओं के मुक़ाबले । इसलिए इस रोग को घोड़ों का रोग कहते हैं । धनुर्वात रोग ( टिटैनस ) क्लोस्ट्रीडियम टेलानी नामक जीवाणुओं कें विष का स्नायु प्रणाली ( Nervous System ) पर कु- प्रभाव पड़ने से होता हैं । यह जीवाणु मुख्यत: चोट, घाव आदि के द्वारा पशुओं तथा मनुष्यों के शरीर में प्रविष्ट हो जाते हैं और फूट हुए गहरे घावों में बढ़ते और पनपते रहते हैं । आमतौर पर ये जीवाणु घोड़ों की आँतों में पाये जाते हैं और लीद के साथ बाहर निकलने रहते हैं जब कोई पशु अथवा मनुष्य ( जिसके शरीर में चोट अथवा घाव ) इन जीवाणु से युक्त लीद के सम्पर्क मे आ जाता हैं तो तुरन्त ही ये जीवाणु उस चोट अथवा घाव के माध्यम से उसके रक्त में प्रविष्ट हो जाते हैं । इसलिए जब किसी व्यक्ति को चोट लग जाती हैं और ख़ून आ जाता हैं अथवा किसी वाहन की टक्कर से दुर्घटना ( Accident ) हो जाती हैं इस रोग की सुरक्षात्मक दृष्टि से टिटैनस रोधक टीका ए०टी०एस० ( a.t.s) लगा देते हैं , क्योंकि यह रोग इतना अधिक उग्र होता हैं कि यदि चोट आदि लगने पर - इस रोग के जीवाणु रक्त में प्रवेश कर जायें और ४ घन्टें के भीतर ही उक्त इंजेक्शन न लगाया जाये तो प्राय : रोगी के प्राण बचाना असम्भव हो जाता हैं । पशुओं में इस रोग के लक्षण कुछ दिनों से लेकर ३ सप्ताह तक में प्रकट हुआ करते हैं जोकि निम्न प्रकार होते हैं -
लक्षण :- घोड़ों में इस रोग प्रारम्भ मे कान खडे हो जाना , आँखो की पलकों की झिल्ली आगे को बढ़ जाना तथा उसमे साधारण उत्तेजना पैदा होना , तदुपरान्त चेहरे की पेशियाँ सिकुड़ जाना,जिसके फलस्वरूप घोड़े को चारा चबाने तथा निगलने मे कठिनाई महसूस होना , फिर जबड़े की पेशियाँ जकड़ जाने से मुँह का न खुलना आदि लक्षण प्रकट होते हैं । इसलिए इसे हनुस्तम्भ या जबड़ा न खुलना रोग भी कहते है । तदुपरान्त धीरे- धीरे पशु का सारा शरीर ही जकड़ जाता हैं । पूँछ उठी रहती हैं और देखने से वह काठ का घोड़ा मालूम होता हैं । मल- मूत्र रूक जाते हैं किन्तु पसीना ख़ूब आता हैं । इस रोग में पशु का तापमान नही बढ़ता हैं । श्वास नालियों की पेशियों को लकवा मार जाता हैं और पशु को श्वास लेने मे कठिनाई का सामना करना पड़ता हैं अन्त मे श्वास न ले पाने के कारण पशु की मृत्यु हो जाती हैं । गाय- भैंस ( जूगाली करने वाले पशु ) मे इस रोग के लक्षण इतने उग्र नही होते है । पशुओं का जबड़ा जकड़ जाता हैं वह जूगाली नही कर पाते हैं और पेट मे अफारा आ जाता हैं तथा पैर भी अकड़ जाते हैं और पशु अपनी गर्दन को लम्बी किये रहता हैं तथा गोबर खुलकर नही करता हैं । और मुँह भी अच्छी तरह नही खूल पाता हैं ।
# -जूलाब- औषधि - इस रोग मे सर्वप्रथम रोगी पशु जमालघोटा के तेल की १० बूँद थोड़े से गरम जल मे मिलाकर पिलाना चाहिए । यदि इस दवा से थोड़े से दस्त हो जायें तो आगे लिखी दवाओं का प्रयोग करना चाहिए --
१ - औषधि - जूलाब देने के बाद सरसों का तेल आठ भाग , तारपीन तेल १ भाग व सोंठ पावडर १ भाग लेकर तीनों को आपस मे मिलाकर पशु के शरीर पर मालिश करनी चाहिए ।
२ - औषधि - हींग १ तौला , गरमपानी मे घोलकर पशु को दिन मे कई बार पिलाना चाहिए ।
३ - बेलाडोना का सत ६ माशा और हींग ३ माशा आधा लीटर पानी मे घोलकर नाल से दिन में कई बार पिलाना चाहिए ।
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