१२- गौसंहिता
...........शास्त्रोक्त...........
१. माता रूद्राणाद दुहिता वसूनांस्वसादित्यानां अमृतस्य नाभि: ।
प्र नु वोचं चिकितुषे जनाय मा गामनागामदितिं वधिष्ट ।।
अर्थात - गाय रूद्रों की माता ,वसुओं की पुत्री और आिदत्यों की भगनी है और इसकी नाभि में अमृत है ।प्रत्येक विचारशील को यही समझाकर कहा है कि निरपराध एंव अवध्य गौ का वध न करो ।
२. सर्व देवा: िस्थता देहे सर्वदेवमयी हि गौ: ।
अर्थात- गाय के शरीर में सभी देवताओं का निवास है ,अ:त गाय सर्वदेवमयी है ।
३. गव्यं महिषमानंच। कारभं स्त्रेणमाविकम् ।
एैभ मैकशफं चेति क्षीरमष्टविधं। मतम् ।।
केवल दूग्ध शब्द का जहाँ भी उल्लेख आया हो वहाँ गौदूग्ध ही मानना चाहीए एैसा भिशम्बर मानते है ।
४. गोक्षीरं मधुरं शीतं गुरू स्िनग्धं रसायनम् ।
बृहणं स्तन्य कृद्वहृां जीवनं वातपित्तनुत:।
अर्थात- गायकादूधमधुर,शीतल,गुरू,िस्नग्धरसायनबृहण,स्तन्यजनन,बलकारक,जीवनीय,ज्ञ ंवातनाशक,पित्तनाशक है ।
५. जीर्णज्वरे मूत्रकृच्छे रक्तपित्ते मदात्यये ।
कासे श्वासे प्रशंसन्ति गण्यं क्षीरं भिषग्वरा:।।
अर्थात- जीर्णज्वर ,मूत्रकृच्छ,रक्तपित ,मदात्यय कास,श्वास आदि रोगों में गाय के दूध का पान किये जाने को वैद्यवर कहते है ।
६. तत्व नेकौषधि रस प्रसादं प्राणदं गुरू ।
मधुरं पिच्छ़लं शीतं स्िनग्धं लक्ष्मं सरं य मृदु ।
अर्थात- गौदुग्ध मीठा,शीतल,स्िनग्ध ,देवताओं का प्रसाद,पिच्छ़ल ,औषधिय गुणों से भरपूर बाण की तरह सीधे लक्ष्य पर वार करता है ।
७. गव्यं दध्यत्तत बहृां पार्कें सस्वादू सुरूची प्रप्रदम ।
पवित्र दीपनं िस्नग्ध पुष्टीकृप्पवनापह्मा ।।
अर्थात- गाय के दूध का दही अत्यन्त उत्तम ,बलकारक,पाक में स्वादु रूचीकर ,पवित्र, और जठराग्नि,बढ़ाने वाला ,स्िनग्ध,वायुनाशक है ।
८. गव्यं तु दीपनं तक्रं मेध्यमशर्िस्त्रदोषनुत ।
हीतं गुध्मतिसारेष प्लीहार्शोग्रहणी गदे ।।
अर्थात- गाय का तक्र( छाछ) जठराग्नि बढ़ाने वाला (क्षुधा बढ़ाने वाला) मेधावर्धक,अर्शो्घ््न त्रिदोषध्न है ।गुल्म, अतिसार, प्लीहारोग,संग्रहणीरोग में हितकर है ।
९. न तक्र सेवी व्यथते कदाचिन्न तक्रदग्धा: प्रभवन्ती रोगी ।
यथा सुराणांमृतं प्रधानं तथा नराणां भुवि तक्रमादु: । ।
अर्थात- नित्य तक्र (छाछ) सेवन करने वाला कभी पीड़ित नहीं होता है ।अर्थात रोगी नही होता है ।जिस प्रकार देवताओं के लिए अमृत प्रधान है, उसी प्रकार पृथ्वी पर मनुष्य के लिए तक्र ़प्रधान है ।
१०- गावो भूतंच भव्यंच गाव: पुष्टि : सनातनी ।
गावो लक्ष्म्यास्तथा मूलं गोषु दत्तंन नश्सति ।।
अर्थात- गौएँ ही भूत और भविष्य है ।गौएंँ ही सदा रहने वाली पुष्टि का कारण तथा लक्ष्मी की जड़ है ।गौऔ को जो कुछ दिया जाता ह,उसका पुण्य कर्म नष्ट नहीं होते है ।
...........शास्त्रोक्त...........
१. माता रूद्राणाद दुहिता वसूनांस्वसादित्यानां अमृतस्य नाभि: ।
प्र नु वोचं चिकितुषे जनाय मा गामनागामदितिं वधिष्ट ।।
अर्थात - गाय रूद्रों की माता ,वसुओं की पुत्री और आिदत्यों की भगनी है और इसकी नाभि में अमृत है ।प्रत्येक विचारशील को यही समझाकर कहा है कि निरपराध एंव अवध्य गौ का वध न करो ।
२. सर्व देवा: िस्थता देहे सर्वदेवमयी हि गौ: ।
अर्थात- गाय के शरीर में सभी देवताओं का निवास है ,अ:त गाय सर्वदेवमयी है ।
३. गव्यं महिषमानंच। कारभं स्त्रेणमाविकम् ।
एैभ मैकशफं चेति क्षीरमष्टविधं। मतम् ।।
केवल दूग्ध शब्द का जहाँ भी उल्लेख आया हो वहाँ गौदूग्ध ही मानना चाहीए एैसा भिशम्बर मानते है ।
४. गोक्षीरं मधुरं शीतं गुरू स्िनग्धं रसायनम् ।
बृहणं स्तन्य कृद्वहृां जीवनं वातपित्तनुत:।
अर्थात- गायकादूधमधुर,शीतल,गुरू,िस्नग्धरसायनबृहण,स्तन्यजनन,बलकारक,जीवनीय,ज्ञ ंवातनाशक,पित्तनाशक है ।
५. जीर्णज्वरे मूत्रकृच्छे रक्तपित्ते मदात्यये ।
कासे श्वासे प्रशंसन्ति गण्यं क्षीरं भिषग्वरा:।।
अर्थात- जीर्णज्वर ,मूत्रकृच्छ,रक्तपित ,मदात्यय कास,श्वास आदि रोगों में गाय के दूध का पान किये जाने को वैद्यवर कहते है ।
६. तत्व नेकौषधि रस प्रसादं प्राणदं गुरू ।
मधुरं पिच्छ़लं शीतं स्िनग्धं लक्ष्मं सरं य मृदु ।
अर्थात- गौदुग्ध मीठा,शीतल,स्िनग्ध ,देवताओं का प्रसाद,पिच्छ़ल ,औषधिय गुणों से भरपूर बाण की तरह सीधे लक्ष्य पर वार करता है ।
७. गव्यं दध्यत्तत बहृां पार्कें सस्वादू सुरूची प्रप्रदम ।
पवित्र दीपनं िस्नग्ध पुष्टीकृप्पवनापह्मा ।।
अर्थात- गाय के दूध का दही अत्यन्त उत्तम ,बलकारक,पाक में स्वादु रूचीकर ,पवित्र, और जठराग्नि,बढ़ाने वाला ,स्िनग्ध,वायुनाशक है ।
८. गव्यं तु दीपनं तक्रं मेध्यमशर्िस्त्रदोषनुत ।
हीतं गुध्मतिसारेष प्लीहार्शोग्रहणी गदे ।।
अर्थात- गाय का तक्र( छाछ) जठराग्नि बढ़ाने वाला (क्षुधा बढ़ाने वाला) मेधावर्धक,अर्शो्घ््न त्रिदोषध्न है ।गुल्म, अतिसार, प्लीहारोग,संग्रहणीरोग में हितकर है ।
९. न तक्र सेवी व्यथते कदाचिन्न तक्रदग्धा: प्रभवन्ती रोगी ।
यथा सुराणांमृतं प्रधानं तथा नराणां भुवि तक्रमादु: । ।
अर्थात- नित्य तक्र (छाछ) सेवन करने वाला कभी पीड़ित नहीं होता है ।अर्थात रोगी नही होता है ।जिस प्रकार देवताओं के लिए अमृत प्रधान है, उसी प्रकार पृथ्वी पर मनुष्य के लिए तक्र ़प्रधान है ।
१०- गावो भूतंच भव्यंच गाव: पुष्टि : सनातनी ।
गावो लक्ष्म्यास्तथा मूलं गोषु दत्तंन नश्सति ।।
अर्थात- गौएँ ही भूत और भविष्य है ।गौएंँ ही सदा रहने वाली पुष्टि का कारण तथा लक्ष्मी की जड़ है ।गौऔ को जो कुछ दिया जाता ह,उसका पुण्य कर्म नष्ट नहीं होते है ।
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