१५- गौसंहिता
़ " तक्र " ( छाछ )
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१. ' तक्र , जो दही में पानी डालकर मथनी से मथा जाय इसे तक्र कहा जाता है ।दही मैं पानी मिलाया है या नहीं या फिर कितना मिलाया है,मलाई निकाली है या नहीं इन आधारों पर तक्र के विभिन्न प्रकार आयुर्वेद शास्त्र में वर्णित है ,इस तक्र को ही गोरस,मथित,गोरसजम,विलोडित एेसा भी कहा जाता है ।छाछ,छास,मट्ठा मराठी में 'ताक, कहा जाता है ।
२. गाय के दही की पतली छाछ में एक चम्मच मीठी नीम की पत्ती की चटनी मिलाकर भोजन के बाद सेवन करने से एक माह बाद मेंसे वजन घटने लगता है ।
३. तक्र के जो विभिन्न प्रकार शास्त्र में वर्णित है ।उनमें दधि से मलाई निकाले बिना ही उसे मथनी से मथते है तब उसे घोल कहते है ।यह घोल शक्कर मिलाकर कर बनाए जाता है ।तब लस्सी जैसा तैयार होता है एसा घोल शरीर को शक्ति देने वाला होता है ,शुक्रधातु को बढ़ाने वाला होता है ।इसके सेवन से भूख बढ़ती है ,यह त्वचा में चिकनापन देता है ।यह शरीर में गुणात्मक्ता बढ़ाता है ,दोषों के आधार पर कहे तो वात एंव पित्त को कम करने वाला है ।रोगों के आधार पर कहे तो शरीर में यदि प्यास बढ़ी होते उसे कम करता है,शरीर में गर्मी के प्रकोप को कम करता है,शरीर पर लाल चक्कते उठना या नाक से खून आना,प्रतिशयाय/सर्दी,जुकाम को दूर करता है ।
४. दूसरा जो प्रकार है,उसमें दही मे से मलाई को अलग निकालकर दही को मथा जाता है ।यह तक्र विशेषत: बढ़े हुए कफ और पित्त का नाश करता है ।
५. एक मिट्टी की हाड़ी में मलाईयुक्त दही को लेकर मथनी से मथें एंव धीरे- धीरे ठण्डा जल दही के आधे प्रमाण में मधुर,ठण्डा जल डालकर पुनः मथे,इसे उदश्रिवत कहते है ।इसमें से मक्खन नहीं निकालना चाहिए ।
६. एक मिट्टी के हाड़ी में दही की मलाई निकाले बिना ही दही को मथनी से मथे एंव दही से चौथा हिस्सा सादा,शुद्ध,मधुर जल डालकर पुनः मथने से जो प्राप्त होता है ।उसे तक्र कहा जाता है ।यह तक्र बढ़े हुए वात,पित्त,कफ का नाश करता है ।
७. मलाई निकल जाने से यह पचने में हल्का एंव रूक्ष है ।यह तक्र के पाँच प्रकार विभिन्न अवस्थाओ में गुणानुसार उपयुक्त हो सकते है ।
८. तक्र को पृथ्वी का अमृत कहा गया है ।लेकिन दोषों के आधार पर कहे तो वातरोग में तक्र अम्लरस ़युक्त एंव सैंधवनमक मिलाकर सेवन करे ।पित्त एंव कफदोष विकार है,तब तक्र मधुर रस हो,दही में खट्टापन आने के पूर्व ही तथा शर्करा (चीनी) मिलाकर तक्र लेना हितकर होता है ।
९. हींग जीरा एंव सैंधवनमक मिलाया हुआ घोल अत्यन्त वायुनाशक ,रूचीकारक अर्श,अतिसार को दूर करने वाला ,शरीर को पुष्ट ,बल देने वाला एंव बस्तिशूलनाशक होता है ।
१०. जब कफदोष से पीड़ित हो तब सोंठ,मिर्चकाली,एंव पीपल मिलाकर। क्षारयुक्त हितावह होता है ।मूत्रकृच्छ में गुड मिलाकर एंव पाण्डूरोग में चित्रक के साथ तक्र लेना हितकर होता है ।
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१. ' तक्र , जो दही में पानी डालकर मथनी से मथा जाय इसे तक्र कहा जाता है ।दही मैं पानी मिलाया है या नहीं या फिर कितना मिलाया है,मलाई निकाली है या नहीं इन आधारों पर तक्र के विभिन्न प्रकार आयुर्वेद शास्त्र में वर्णित है ,इस तक्र को ही गोरस,मथित,गोरसजम,विलोडित एेसा भी कहा जाता है ।छाछ,छास,मट्ठा मराठी में 'ताक, कहा जाता है ।
२. गाय के दही की पतली छाछ में एक चम्मच मीठी नीम की पत्ती की चटनी मिलाकर भोजन के बाद सेवन करने से एक माह बाद मेंसे वजन घटने लगता है ।
३. तक्र के जो विभिन्न प्रकार शास्त्र में वर्णित है ।उनमें दधि से मलाई निकाले बिना ही उसे मथनी से मथते है तब उसे घोल कहते है ।यह घोल शक्कर मिलाकर कर बनाए जाता है ।तब लस्सी जैसा तैयार होता है एसा घोल शरीर को शक्ति देने वाला होता है ,शुक्रधातु को बढ़ाने वाला होता है ।इसके सेवन से भूख बढ़ती है ,यह त्वचा में चिकनापन देता है ।यह शरीर में गुणात्मक्ता बढ़ाता है ,दोषों के आधार पर कहे तो वात एंव पित्त को कम करने वाला है ।रोगों के आधार पर कहे तो शरीर में यदि प्यास बढ़ी होते उसे कम करता है,शरीर में गर्मी के प्रकोप को कम करता है,शरीर पर लाल चक्कते उठना या नाक से खून आना,प्रतिशयाय/सर्दी,जुकाम को दूर करता है ।
४. दूसरा जो प्रकार है,उसमें दही मे से मलाई को अलग निकालकर दही को मथा जाता है ।यह तक्र विशेषत: बढ़े हुए कफ और पित्त का नाश करता है ।
५. एक मिट्टी की हाड़ी में मलाईयुक्त दही को लेकर मथनी से मथें एंव धीरे- धीरे ठण्डा जल दही के आधे प्रमाण में मधुर,ठण्डा जल डालकर पुनः मथे,इसे उदश्रिवत कहते है ।इसमें से मक्खन नहीं निकालना चाहिए ।
६. एक मिट्टी के हाड़ी में दही की मलाई निकाले बिना ही दही को मथनी से मथे एंव दही से चौथा हिस्सा सादा,शुद्ध,मधुर जल डालकर पुनः मथने से जो प्राप्त होता है ।उसे तक्र कहा जाता है ।यह तक्र बढ़े हुए वात,पित्त,कफ का नाश करता है ।
७. मलाई निकल जाने से यह पचने में हल्का एंव रूक्ष है ।यह तक्र के पाँच प्रकार विभिन्न अवस्थाओ में गुणानुसार उपयुक्त हो सकते है ।
८. तक्र को पृथ्वी का अमृत कहा गया है ।लेकिन दोषों के आधार पर कहे तो वातरोग में तक्र अम्लरस ़युक्त एंव सैंधवनमक मिलाकर सेवन करे ।पित्त एंव कफदोष विकार है,तब तक्र मधुर रस हो,दही में खट्टापन आने के पूर्व ही तथा शर्करा (चीनी) मिलाकर तक्र लेना हितकर होता है ।
९. हींग जीरा एंव सैंधवनमक मिलाया हुआ घोल अत्यन्त वायुनाशक ,रूचीकारक अर्श,अतिसार को दूर करने वाला ,शरीर को पुष्ट ,बल देने वाला एंव बस्तिशूलनाशक होता है ।
१०. जब कफदोष से पीड़ित हो तब सोंठ,मिर्चकाली,एंव पीपल मिलाकर। क्षारयुक्त हितावह होता है ।मूत्रकृच्छ में गुड मिलाकर एंव पाण्डूरोग में चित्रक के साथ तक्र लेना हितकर होता है ।
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