१३- गौसंहिता
..............शास्त्रोक्त.............
१. गवां दृष्ट्या नमस्कृत्य कुर्याच्चैव प्रदक्षिणम् ।
प्रदक्षिणी कृता तेन सप्तद्वीपा वसुन्धरा ।।
अर्थात- गौएँ समस्त प्राणियों की माताएँ एंव समस्त सुख देने वाली ।वृद्धि की आकांक्षा करने वाले मनुष्य को नित्य गौऔ की प्रदक्षिणा करनी चाहिए ।
२. गाव: श्रेष्ठा पवित्राश्च पावना जगदात्मा ऋते दधि घृतेनह न यज्ञ: संप्रवतर्ते
पयसा हविषा दध्ना शक्रता मूत्र चर्मणा अस्थिमिक्ष्यचोप कुर्वन्ति वालै: क्षंगैक्ष्च भारत
गोभिस्तुल्यम न पश्यामि धनं कििञ्चदाच्युत गावो लक्ष्म्य: सदा मूलं गोषु पाश्मा न विद्यते:
अर्थात- भगवान कृष्ण ने कहा -
हे अर्जुन !इस संसार में गाय श्रेष्ठ,पवित्र,पावन और उत्तम है ।उसके दूध एंव घी के बिना संसार में कोई यज्ञ सम्पादित नहीं होता है ।हे पार्थ ! गाय का दूध ,दही,घी,मूत्र,चमड़ी, बाल,हड्डियँा हमारा उपकार करती है । हे अच्युत ! इस संसार म े गाय के समान और कोई धन नहीं देखता ,गाय वास्तव में सम्पत्ति का मूल है । गाय के प्रति पापाचार मत करो ।
३. यदा देवेषु वेदेषु गमोषु विप्रेषु साधुषु ।
धर्मे मयि च विद्वेष: स वाँ आशु विनश्यति ।।
अर्थात - कोई भी प्राणी जब देवता,वेद,गाय,ब्राह्मण,साधु,धर्म,एंव मुझ(परमात्मा) से द्वेष करने लगता है ,तब शीघ्र ही उसका विनाश हो जाता है ।यह सर्वकालिक विधान है ।
४. अष्टैश्वर्यमयी लक्ष्मी गोमय वसते सदा ।
चत्वार: सागरा: पूर्णास्तस्या एंव पयोधरा: ।।
अर्थात - गाय के गोबर में आठ एश्वर्य से सम्पन्न लक्ष्मी तथा स्तनो में जल से परिपूर्ण चारों समुद्र निवास करते है ।
५. िस्नग्धं विपाके मधुरं दीपनं बलवर्द्धनम् ।
वातापहं पवित्रञ्च दधि, गव्यं रूचीप्रदम् ।।
अथार्त- गाय की दही िस्नग्ध,विपाक में मधुर,अग्निदीपक बलवर्धक,वातनाशक ,पवित्र और रूचीकर होता है ।
६. यूयं गावो मेदयथा कृशं चिदक्षीरं चित् कृणुथा सुप्रतीकम ।
भद्रं गृहं कृणुथ भद्रवाचो बृहद्वो वय ़उच्चते सभासु ।।
अर्थात - गौओ ! तुम कृश शरीर वाले व्यक्ति को हृष्ट- पुष्ट कर देती हो एंव तेजोहीन को देखने में सुंदर बना देती हो ।इतना ही नहीं ,तुम अपने मंगलमय शब्द से हमारे घरों को मंगलमय बना देती हो । इसी से सभाओं में तुम्हारे ही महान यश का गान होता है ।
७. शान्ति कान्ति बल बुद्धि दे, पेयो में बहुमूल्य ।
सचमुच में गौदुग्ध "मृदु" होता अमृत तुल्य ।।
८. शीतलता, बल, सौष्ठव दे करता कल्याण ।
गोघृत "मृदु" करता हमें नूतन शकित प्रदान ।।
९. पेट रोग सब शान्त कर, जाग्रत करता चक्र ।
"मृदू" देवों के लिए भी, दुर्लभ गोदधि तक्र ।।
१०. जीवन में आरोग्य का सर्व सुलभ यह सुत्र ।
"मृदु" उठ नित्य निहार मुँह सेवन कर गोमूत्र ।।
..............शास्त्रोक्त.............
१. गवां दृष्ट्या नमस्कृत्य कुर्याच्चैव प्रदक्षिणम् ।
प्रदक्षिणी कृता तेन सप्तद्वीपा वसुन्धरा ।।
अर्थात- गौएँ समस्त प्राणियों की माताएँ एंव समस्त सुख देने वाली ।वृद्धि की आकांक्षा करने वाले मनुष्य को नित्य गौऔ की प्रदक्षिणा करनी चाहिए ।
२. गाव: श्रेष्ठा पवित्राश्च पावना जगदात्मा ऋते दधि घृतेनह न यज्ञ: संप्रवतर्ते
पयसा हविषा दध्ना शक्रता मूत्र चर्मणा अस्थिमिक्ष्यचोप कुर्वन्ति वालै: क्षंगैक्ष्च भारत
गोभिस्तुल्यम न पश्यामि धनं कििञ्चदाच्युत गावो लक्ष्म्य: सदा मूलं गोषु पाश्मा न विद्यते:
अर्थात- भगवान कृष्ण ने कहा -
हे अर्जुन !इस संसार में गाय श्रेष्ठ,पवित्र,पावन और उत्तम है ।उसके दूध एंव घी के बिना संसार में कोई यज्ञ सम्पादित नहीं होता है ।हे पार्थ ! गाय का दूध ,दही,घी,मूत्र,चमड़ी, बाल,हड्डियँा हमारा उपकार करती है । हे अच्युत ! इस संसार म े गाय के समान और कोई धन नहीं देखता ,गाय वास्तव में सम्पत्ति का मूल है । गाय के प्रति पापाचार मत करो ।
३. यदा देवेषु वेदेषु गमोषु विप्रेषु साधुषु ।
धर्मे मयि च विद्वेष: स वाँ आशु विनश्यति ।।
अर्थात - कोई भी प्राणी जब देवता,वेद,गाय,ब्राह्मण,साधु,धर्म,एंव मुझ(परमात्मा) से द्वेष करने लगता है ,तब शीघ्र ही उसका विनाश हो जाता है ।यह सर्वकालिक विधान है ।
४. अष्टैश्वर्यमयी लक्ष्मी गोमय वसते सदा ।
चत्वार: सागरा: पूर्णास्तस्या एंव पयोधरा: ।।
अर्थात - गाय के गोबर में आठ एश्वर्य से सम्पन्न लक्ष्मी तथा स्तनो में जल से परिपूर्ण चारों समुद्र निवास करते है ।
५. िस्नग्धं विपाके मधुरं दीपनं बलवर्द्धनम् ।
वातापहं पवित्रञ्च दधि, गव्यं रूचीप्रदम् ।।
अथार्त- गाय की दही िस्नग्ध,विपाक में मधुर,अग्निदीपक बलवर्धक,वातनाशक ,पवित्र और रूचीकर होता है ।
६. यूयं गावो मेदयथा कृशं चिदक्षीरं चित् कृणुथा सुप्रतीकम ।
भद्रं गृहं कृणुथ भद्रवाचो बृहद्वो वय ़उच्चते सभासु ।।
अर्थात - गौओ ! तुम कृश शरीर वाले व्यक्ति को हृष्ट- पुष्ट कर देती हो एंव तेजोहीन को देखने में सुंदर बना देती हो ।इतना ही नहीं ,तुम अपने मंगलमय शब्द से हमारे घरों को मंगलमय बना देती हो । इसी से सभाओं में तुम्हारे ही महान यश का गान होता है ।
७. शान्ति कान्ति बल बुद्धि दे, पेयो में बहुमूल्य ।
सचमुच में गौदुग्ध "मृदु" होता अमृत तुल्य ।।
८. शीतलता, बल, सौष्ठव दे करता कल्याण ।
गोघृत "मृदु" करता हमें नूतन शकित प्रदान ।।
९. पेट रोग सब शान्त कर, जाग्रत करता चक्र ।
"मृदू" देवों के लिए भी, दुर्लभ गोदधि तक्र ।।
१०. जीवन में आरोग्य का सर्व सुलभ यह सुत्र ।
"मृदु" उठ नित्य निहार मुँह सेवन कर गोमूत्र ।।
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