Monday 9 November 2015

(२०)- २- गौ - चि०-मूखरोग ।और गले केरोग ।

(२०)- २- गौ - चि०-मूखरोग ।और गले केरोग ।

१ - पशुओं के मुख व गले के रोगों की चिकित्सा
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भक्षण- अभक्षण, अनियमित खाने , बे - मौसम की वस्तु खा जाने , दुर्गन्ध स्थान में अधिक रहने , गन्दी व कीड़े - मकोड़े युक्त वस्तुओं को खाने , संक्रामक पशु रोगियों के संसर्ग में रहने आदि कारणों से पशुओं को विभिन्न प्रकार की व्याधियाँ हो जाती है । उन रोगों का उपचार इस प्रकार करना चाहिए ।

कण्ठ नलिका ( श्वास - नली ) विकार व ( Choaking )
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कारण व लक्षण :- भोजन को कण्ठ से नीचे पहुँचाने वाली नलिका " ग्रास नली " कहलाती हैं पशु द्वारा किसी कठोर वस्तु के खा जाने पर यदि वह वस्तु गले में अटक जाये तो पशु का गला अवरूद्ध हो जाता है , जिससे वह किसी वस्तु को खा नहीं पाता और उसे बहुत पीड़ा होती है। कभी- कभी पशुओं के छोटे बच्चों को खली या दाना खिलाने से भी ग्रास- नली में घाव हो जाते हैं जिससे वें बार-बार खों- खों करके खाँसते रहते है और उस फँसीं हुई चीज़ को बाहर निकालने का प्रयास करता हैं । पशु के मुँह से लार टपकने लगती हैं उसको बेचैनी और घबराहट होने लगती हैं और वह अपनी गर्दन को ऐसे तानता हैं जैसे उसे उल्टी आ रही हो । यदि चीज़ सीने के पास जाकर अटकी हो तो पशु थोड़ा - पानी पी लेता हैं किन्तु शीघ्र ही उसे नाक और मुँह से होकर बाहर निकाल देता हैं । यदि अटकी हुई चीज़ गले से बाहर देर तक न निकले तो पशु को अफारा आ जाता हैं । और बायीं ओर की कोख फूल जाती हैं। अटकाव की जगह गर्दन में गाँठदार दिखाई देती हैं । यदि हम उसे टटोलें या आँखों से ध्यान से देखें तो वह दिखायी देता हैं और अगर ध्यान से देखने- टटोलने पर गले में अटकी हुई चीज दिखाई दें तो इस बात का संकेत हैं कि अटकाव सीने में या सीने से नीचे हैं ।तथा उचित आहार न खा सकने के कारण अत्यन्त कमज़ोर हो जाते है ।

# - इलाज - यदि गले में अटकी चीज़ दिखाई दें रही हैं तो हाथ डालकर निकाल देना चाहिए ,यदि अटकाव इतना अधिक नीचे है कि हाथ डालना सम्भव नही हो तो - अलसी का तेल या तिल का तेल और पनी बराबर मात्रा में लेकर गरम करके पिलाना चाहिए । इस प्रयोग से मुँह व गले के अन्दर की खाल चिकनी हो जाती है तथा ढीली भी हो जाती हैं और पशु को अटकी हुई चीज़ निगलने में आसानी हो जाती हैं

# - इलाज - यदि ऊपर वाली दवा से आराम नहीं होता और दवा बार- बार बाहर निकल जायें तो एक बेंत या बेंत जैसी लचकदार व रेसेदार ( जो लकड़ी टूटने के बाद भी अलग न हो पीचक जाये ऐसी लकड़ी ही प्रयोग करनी चाहिए ( कहीं ऐसा न हो की इलाज करना था लकड़ी टुट कर वही फँसीं रह जाये और पशु और बिमार हो जायें ) लकड़ी लेकर लकड़ी के सिरे पर मज़बूती से रूई थोड़ी सी लपेटकर ( जिससे लकड़ी की ठोककर से अन्दर घाव न हो ) तथा उसे घी या तेल में तर करके लकड़ी को पशु के मुँह में डालकर अटकी हुई चीज़ को अन्दर की ओर धकेल देना चाहिए तथा गले पर ऊपर से नीचे की ओर को हाथों से मालिश ऐसे करें की अटकी हुई चीज़ नीचे को आकर पेट में चली जायें । और ध्यान रहे की दवा पिलाते समय पशु को धस्का आये तो मुँह छोड़ देना चाहिए ।वरना वह श्वास नली में जाकर पशु की मृत्यु भी हो सकती हैं ।
पथ्य - पशु के गले का अटकाव निकल जाने के बाद भी ४-५ दिन तक कोई चीज़ खाने को नहीं देनी चाहिए और चावलों का माण्ड , अलसी व जौं का आटा , सत्तु पतला घोलकर तथा गाय का दूध - दलिया आदि खाने को देना चाहिए ।इसके बाद ही हरी मुलायम घास पशु को देनी चाहिए ।

१ - औषधि - नासिका मार्ग ( नाक के छिद्र ) में थोड़ा- थोड़ा सरसों का तेल डालें ।

२ - औषधि - मीठा शीरा ( लप्सी ) या गरम माँड़ रोगी पशु को पर्याप्त मात्रा में चटायें ।

३ - औषधि :- गुड २५० ग्राम , सोंठपावडर ५० ग्राम , लेकर मिलाकर १०-१० ग्राम की गोलियाँ बनाकर रख लेवें और पशु को सुबह-सायं खिलाने से लाभँ होगा ।

४ - औषधि :- तिल का तेल १०० ग्राम , में ५० ग्राम देशीशराब मिलाकर इन सब को मिलाकर पशु के गले में डालने से अटकी हूई वस्तु नीचे चली जाती हैं । और घाव सूखँ जाता हैं ।


२ - तालू फूटना ( तारू रोग )
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कारण व लक्षण :- इस रोग में दाँतों की जड़ से तालू तक का हिस्सा फूल जाता हैं अथवा कभी- कभी छाला पड़ जाता हैं । पशु खाना- पीना छोड़ देता हैं और दिन- प्रतिदिन दूबला होता जाता हैं ।

१ - औषधि :- अजवायन तंथा सोया १५-१५ ग्राम , लेंकर भलीप्रकार गरम करके काढ़ा तैयार करके ठन्डा होने पर छानकर नाल द्वारा पिलावें पशु को लाभ होगा ।

२ - औषधि - घाव में बोरिकएसिड पावडर भरें तथा घाव को दिन में कई बार पोटाश परमैग्नेट के घोल से धोते भी रहे ।

३ - औषधि - पीपरमैंट, हल्दी, ख़ैर ,और पान प्रत्येक को भलीप्रकार पीसकर मरहम बनाकर लगाना भी लाभकारी हैं ।


३ - बेलिया
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कारण व लक्षण :- इस रोग में पशु के हलक के नीचें एक अथवा दोनों ओर दो गिल्टियाँ - सी निकल आती हैं । इस को बेलिया रोग कहते हैं ।

१ - औषधि :- नीम की पत्तियों को उबालकर उसका बफारा दें तथा उसी पानी से आक्रान्त भाग को धोयें और उन्हीं पत्तियों को वहाँ पर बाँध देवें इस प्रयोग से इस रोग में लाभ होता हैं यदि इस प्रयोग से लाभ न हो तो- काला ज़ीरा , मेंथी तथा सोये के बीज एक साथ पीसकर घाव के ऊपर लेप करें ।


४ - घों - घों या घुरका रोग
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कारण व लक्षण :- इस रोग में रोगग्रस्त पशु घों- घों शब्द करने लगता हैं । दमा रोग के समान श्वास - प्रश्वास की गति में असमानता , कानों का नीचे की ओर झुक जाना , नेत्रों से पानी टपकते रहना और बेचैनी बढ़ जाना इस रोग के प्रमुख लक्षण हैं ।

१ - औषधि - प्याज़ १५० ग्राम , मेंथी १२५ ग्राम , प्याज़ को काटकर ५०० ग्राम पानी में मेंथी के साथ डालकर पकायें ख़ूब औटाकर जब पानी आधा रह जायें तब छानकर पशु को गुनगुना कर पिलाना लाभकारी होगा ।
२ - औषधि :- सरसों का तेल १० ग्राम और अफ़ीम १ छटांक मिलाकर नाक से पिलाने से भी लाभ होता हैं ।


५ - सेरदमी रोग
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कारण व लक्षण :- बहुत परिश्रम करने से पशु के कण्ठ में घुर-घुर शब्द होने लगता हैं ,रोगग्रस्त पशु जीभ मुख से बाहर निकालकर चुपचाप खड़ा रहता है । इससे पशु की साँस उखड़ जाती हैं । मेहनत पड़ने पर भी पशु जीभ मुख से बाहर ही रखता है इसरोग में आँखें भी बाहर को आने लगती हैं ।

१ - औषधि :- सोंठ , सौँफ , मिश्री , कालीमिर्च , तथा अतीश लेकर पीसछानकर चूर्ण तैयार कर लेवें ।फिर इसे जौं के आटे में गुँथकर लड्डू बनाकर पशु को खिलाये ।

२ - औषधि :- रोगी पशु को पहले थोड़ा पानी पिलाकर फिर प्याज़ १५० ग्राम , गोंदकतीरा १ तौला , कुचलकर पशु को खिलाना लाभकारी रहता हैं ।

३ - इस रोग मे २५० ग्राम देशीशराब पिलाना भी लाभदायक होता हैं ।

४ - औषधि :- जौं के आटे में १० ग्राम खाने वाला सोडा मिलाकर देना भी लाभकारी होता हैं ।

५ - औषधि :- कालीमिर्च , कुलंजन , सौँफ , सभी १०-१० ग्राम लेकर चूर्ण बना लें और १२५ ग्राम शक्कर मिला लें इसके बाद गाय के दूध में घोलकर यह एक खुराक है सुबह - सायं पिलाना हितकर रहता हैं ।



६ - चुप्पा रोग ( होंठ के ऊपर छाला )
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कारण व लक्षण :- पशु के होंठों के ऊपर छाला पड़कर सूजन आ जाती हैं और उसमें मवाद पड़ जाता हैं । इसी को चुप्पा रोग कहते हैं । पशु को चारा खाने में बहुत कष्ट होता हैं । इस रोग का समय रहते निदान नहीं कराया जाता है तो पशु कमज़ोर हो जाता हैं , साथ ही वह मवाद को चाट भी लेता हैं , जिससे उसको अनेक प्रकार के पेटरोग भी हो जाते है । अत: इस रोग को मामूली समझ कर उपचार में विलम्ब करना ठीक नहीं हैं ।

१ - औषधि - हल्दी व सांभर नमक को पीसकर कपडछान करकें सूजे हुए स्थान पर लगाने से लाभ होता हैं ।

२ - औषधि - ख़ैर , हल्दी , पीपरमैंट , को एक साथ पीसकर मिलाकर मरहम बना लें और घाव पर लगाने से लाभ होता हैं ।
दवा मलने के साथ यदि घाव से मवाद बाहर आ जाये तो ठीक वरना फोड़ कर मवाद निकाल देना चाहिए और नीम की छाल या हल्दी को बारीक पीसकर घाव में भर देना चाहिए । इससे घाव जल्दी ठीक बो जायेगें ।


७ - आरजा ( मुख बन्द ) कण्ठ रोग
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कारण- लक्षण :- मुँह के दोनों तरफ़ के चौहर ( कल्ले ) बहुत कठोर हो जाते हैं , क्योंकि इस रोग में कान की जड़ के पास हलक से ऊपर एक सूजन- सी हो जाती हैं , जिससे मुँह से फेन ( झाग ) गिरता रहता हैं । रोगी पशु का मुँह नहीं खुल पाता हैं , दाँत भी बैठ जाते हैं , पशु चारा छोड़ देता हैं । इस रोग में पशु की स्थिति भयानक हो जाती हैं । रोगी पशु खाना तो क्या पानी भी नहीं पी पाता हैं ।

१ - औषधि :- गाय के ताज़ा गोबर में अरण्डी का पत्ता भलीप्रकार पीसकर गरम करके कल्ले पर लेप करना लाभकारी होता हैं ।

२ - औषधि :- पक्की ईंट को गरम करके सूजन को सेंकना ही हितकर हैं । इस प्रयोग के करने से यदि सूजन न ख़त्म हो तो लोहा गरम करके उसे दाग देना चाहिए ।

३ - औषधि :- अमलतास का गूद्दा मकोय के पत्ते और नीम की छाल को पानी में पीसकर गरम करके लगाना चाहिए । यह प्रयोग अत्यन्त लाभकारी सिद्ध हुआ हैं । अत: दागने से पहले इस प्रयोग को अवश्य करना चाहिए ।

४ - औषधि - कपड़े की गद्दी बनाकर , पानी में भिगोकर सूजन के ऊपर रखना तथा ऊपर से गरम पानी टपकाते रहना भी लाभकारी सिद्ध होता हैं ।

५ - औषधि :- इन्द्रायण ( नारून ) के फल को भूनकर उसका गूद्दा आधी छटांक और जौं का आटा एक पाँव एक साथ मिलाकर खिलाये ।

६ - औषधि :- सोंठ , कालीमिर्च ,कालीजीरी , डेढ़ - डेढ़ तौला और लहसुन १२५ ग्राम , लेकर सभी को पानी में पीसकर २५० ग्राम जौं के आटे के साथ मिलाकर गुँथकर खिलाना हितकर हैं ।

# - यह खुराक बड़े पशु के लिए एक खुराक है तथा छोटे पशु को उम्र के हिसाब से कम कर देनी चाहिए ।

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७ - इल रोग
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कारण व लक्षण - यह रोग अधिकतर शीत ऋतु में और कभी - कभी दूसरी ऋतु में भी होता है । जब पशु घास के साथ एक प्रकार के कीड़े को खा जाते है तो यह रोग उत्पन्न होता है । कभी - कभी भीतर बीमारी के कारण भी यह रोग हो जाता है ।
पशु की जिह्वा के नीचे के भाग में चट्टे पड़ जाते है । उनमें सड़ान पैदा होती है । सड़ान में कई छोटे - छोटे जन्तु ( कीड़े ) उत्पन्न हो जाते है जिससे दुर्गन्ध आने लगती है । ये जन्तु इतने छोटे होते हैं । कि वे ठीक तरह से दिखाई नहीं देते । अगर इसका समय पर ठीक तरह से इलाज न किया जाय, तो यह रोग बड़ता ही जाता है इस रोग के चलते दूधारू पशु कम दूध देने लगते है ।

१ - औषधि - जलजमनी ( बछाँग की जड़ ) ६० ग्राम , गाय का घी २४० ग्राम , बछाँग की जड़ को महीन पीसकर , घी में मिलाकर रोगी पशु को प्रतिदिन , सुबह - सायं एक समय, अच्छा होने तक पिलायें ।

२ - औषधि - फिटकरी ६० ग्राम , मिस्सी काली ६० ग्राम , आबाँहल्दी ६० ग्राम , मकान की झाडन का घूँसा ( झोलू ) ६० ग्राम , सबको पीसकर चलनी से छानकर एक बोतल में भरकर रोगी पशु को दोनों समय, १२-१२ ग्राम , घाव पर लगायें ।

३ - औषधि - सिर के बाल ३ ग्राम , गुड़ १२ ग्राम , दोनों को मिलाकर एक टीकिया बना लें । जिह्वा को उलटकर घाव पर टीकिया रखें। फिर लाल सरिये को टीकिया पर रख दे , जिसकी गर्मी से जन्तु मर जायेंगे और पशु को आराम मालूम होगा ।वह ठीक हो जायेगा ।

# - यह नुस्खा घाव के अनुसार बनायें, छोटे घाव के लिए कम बाल तथा बड़े घाव के लिए अधिक बाल लें। रोगी पशु को हल्की और बारीक खुराक दी जाय, उसे हरी घास , जौ,जाईं, बरसिम,व सीशम की पत्ती व कोई हरा चारा खिलाना चाहिए । सुखा चारा नहीं देना चाहिए,हरा चारा देने से घाव जल्दी ठीक होता है । सूखा चारा घाव में चुभता है ।और पशु को कष्ट होता है ।

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८ - डेंडकी रोग
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कारण व लक्षण - यह रोग केवल गाय - बैल वर्ग के पशु को ही होता है । यह रोग गर्मी और जाडें में होता है । यह रोग जिह्वा के ऊपर मोटी जिह्वा और साधारण जिह्वा के बीच में पैदा होता है । सूखा , गला घास - दाना खाने के बाद , समय पर पानी न मिलने से यह रोग हो जाता है ।
पशु की जिह्वा पर ज़ख़्म - सा हो जाता है । उस ज़ख़्म से दुर्गन्ध आती है । पशु को लार गिरती है । ज़ख़्म में घास भर जाती है । घास - दाना खाने में कमी हो जाती है । दूधारू पशु के दूध देने में कमी हो जाती है है ।

१ - औषधि - पहले रोगी पशु के ज़ख़्म को , नीम के उबले हुए गुनगुने पानी से ,दोनों समय ,धोना चाहिए । फिर ज़ख़्म पर २४ ग्राम , दोनों समय ख़ूब रगड़ना चाहिए । इसके अगले दिन ज़ख़्म में ४ बार , पीसा नमक ज़ख़्म में भर दिया जाय । फिर इसके अगले दिन ज़ख़्म में आधा तोला मिस्सी , दोनों समय , चार दिन तक , भर दी जाये ।



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