Saturday 7 November 2015

(०) परजीवी कीटाणु जनित कुछ प्रमुख रोग और उनकी चिकि

(०) परजीवी कीटाणु जनित कुछ प्रमुख रोग और उनकी चिकित्सा
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परजीवी कीटाणु उन्हे कहते है जो दूसरे जीवों पर आश्रित रहते हैं ।यानि ऐसे जीव जो दूसरे प्राणीयो के शरीर पर चिपके रहते है और उन्हीं का ख़ून पीकर अपना भरणपोषण करते है , ऐसे मे आश्रयदाता सदैव हानि उठाता है और आश्रय पाने वाला आन्नदित रहता है । जो दूसरों के ऊपर जीवित रहते है ऐसे कीटाणुओं को ही परजीवी कहते हैं ।यह परजीवी कीटाणु अनेक प्रकार के होते हैं । जैसे कृमि ( कीड़े ) तथा चिचडियाँ आदि स्थाई परजीवी हैं । और जोंक आदि अस्थाई परजीवी हैं। कुछ मौसमों परजीवी भी होते है जैसे मच्छर ,मक्खी,पिस्सू व डांस आदि । कुछ परजीवी खाल के ऊपर रहते है और कुछ परजीवी आश्रयदाता के शरीर मे पनपते हैं उन्हे आन्तरिक परजीवी कहते हैं ।
अपने देश में पशु पक्षियों मे रोग फैलाने वाले "प्रोटोजोआओं " के मुख्यत: ४ कूल पाये जाते हैं ।
१ - ट्राइपैनोसोम ।
२ - पाइरोप्लाजम ।
३ - काक्सीडिया ।
४ -भीलेरिया ।

ट्राइपैनोसोम इवान्सी जनित " सड़ा रोग "
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कारण व लक्षण - सड़ा रोग घोड़ों , गधो , खच्चरों , तथा ऊँटों आदि पशुओं को होने वाला एक प्रमुख घातक रोग हैं । यह रोग लम्बे समय तक चलता और रोगग्रस्त पशु को अधिक दुर्बल कर देता हैं कभी-कभी यह रोग भैंसों व कुत्तों व हाथियों को भी हो जाता हैं । किन्तु गायों मे इस रोग का विशेष जोर नही होता हैं ।यह रोग प्राय: बरसात के उपरान्त मक्खियों द्वारा ट्राइपैनोसोम वंश के प्रोटोजोआ परजीवियों को पशुओं के रक्त मे पहुँचाने के कारण होता हैं ।
इस रोग मे गो पशुओं मे महीनों तक यह पशु इन परजीवियों को अपने शरीर के अन्दर पालते रहते हैं । और उनमे रोग के कोई लक्षण प्रकट नही होते हैं । केवल धीरे- धीरे रोगग्रस्त पशु दुर्बल होता चला जाता हैं ।फिर अचानक ही रोगाणु उन पर आक्रमण करते हैं । और यदि रोग उग्ररूप धारण कर लेता हैं ।तो समूह के अनेक गो पशु एक साथ रोगग्रस्त होकर २-४ दिन मे ही मर जाते हैं ।रोग की उग्रावस्था मे गायें ,भैंस आदि तेज बुखार की बेचैनी से ईधर-उधर चक्कर काटती हैं । और अपने दाँत पीसती रहती हैं , कराहती हैं ,और उन्हे साँस लेने मे घबराहट होती हैं तथा वे बार- बार गोबर - मूत्र त्याग करती रहती हैं इन लक्षणों के अतिरिक्त वे बार- बार गिरती हैं और कभी-कभी बेहोश भी हो जाती हैं तथा उनकी शक्ति नष्ट हो जाती हैं ।
१ - दवाई - सरामिन - इस रोग यह एलोपैथिक की सफल औषध हैं । सडारोग के मौसम मे इस दवा को पशुओ को खिलाते रहना चाहिए । इसके प्रयोग से स्वस्थ पशु बिमार होने से बचे रहते हैं । सरामिन व नागानोल रोगग्रस्त पशुओ को उपर्युक्त मात्रा मे खिलाने से कुछ दिनों मे रोग नियन्त्रण मे आ जाता हैं ।

२ - दवाई - एण्ट्रीपोल - भी एलौपैथिक की इस रोग की सफल दवा है किन्तु यह इन्जैकशन के रूप मे हैं यह शीघ्र व अच्छा प्रभाव दिखाती हैं । इसके लिए जीवाणु रहित डिस्ट्रीलवाटर में १०% दवा मिलाकर घोल तैयार करना चाहिए और फिर उस घोल का इन्जैकशन रोगी पशु को लगाना चाहिए । दो बातें मुख्यरूप से ध्यान मे रखना आवश्यक हैं - १- प्रत्येक बार इंजेक्शन लगाने के लिए घोल ताजा ही तैयार करें । २ - इस घोल का इन्जैकशन रोगी पशु की अन्त: शिरा मे लगाना चाहिए । गायों के लिए इंजेक्शन लगाने की मात्रा इस प्रकार है - प्रथम दिन १०० पौण्ड भार के लिए ०.५ ग्राम । यदि आवश्यकता हो तो १५ दिन बाद आधी मात्रा मे इन्जैकशन दे सकते हैं ।
उपरोक्त दवाओं के अतिरिक्त एेलोपैथिक मे - एण्ट्रसाइड ( क्विनपाइरामाइन सल्फेट ) नामक दवा
भी सडारोग मे परम लाभकारी सिद्ध होती हैं । यह दवा बाज़ार मे दो रूपों मे उपल्बध हैं - मैथिल सल्फेट और प्रो- साल्ट । के रूप मे मिलती हैं । मैथिलसल्फेट केवल रोगी पशु की चिकित्सा करने के लिए दी जाती हैं । और प्रो- साल्ट को रोग की रोकथाम के लिए दिया जाता हैं । वैसे यह दवा भी रोगी पशु को लाभ पहुँचाती हैं ।मैथिलसल्फेट को १०% का घोल डिस्टिल्डवाटर मे तैयार किया जाता हैं और पशु के प्रतिकिलो शरीर भार के अनुसार ३ मिलीग्राम दवा के हिसाब से - दवा लेकर रोगी पशु की उपत्वचा मे इन्जैकशन दिया जाता हैं । इस विधी से प्रो- साल्ट का भी प्रयोग किया जाता हैं । यह इन्जैकशन १-२ महीने के अन्तर पर लगाया जा सकता हैं ।


पाइरोप्लाजम जनित रोग
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पाइरोप्लाजम परजीवियों से उत्पन्न रोग विभिन्न पशुओ के शरीर मे लालरक्त कीटाणुओं के पाये जाते हैं यह भिन्न - भिन्न प्रकार के वर्ग के सूक्ष्म प्रोटोजोआओ के आधार पर इनको दो भागो मे बाँटा गया हैं -

(१) बेबीसियोस रोग , (२) थीलेरियोसोस अथवा गांडीरियोस रोग ।
बेबीसियोस रोगों में गो-पशुओं का लाल पेशाब, घोड़ों और गंधों का पित्तज्वर ,कुत्तों का विषाणु पीलिया अथवा चिचड़ी ज्वर प्रमुख रूप से उल्लेखनीय हैं । प्राय: यह रोग चिचडियों द्वारा एक पशु से दूसरे पशु तक पहुँचते हैं । देशी गायों पर या अन्य देशी पशुओं पर इन रोगों का आसानी से प्रभाव नही होता हैं , किन्तु विदेशों से आयातित पशु ही इन रोगों का शिकार होते पाये गये हैं ।

१ - बेबीसियोस रोग ( गो- पशुओं का लाल पेशाब रोग )
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यह रोग बेबीसियोस बाइगेमिना रोगाणुओं द्वारा उत्पन्न होता हैं और सम्पूर्ण भारतवर्ष मे पाया जाता हैं । गो- पशुओं मे यह रोग प्राय: बहुत छोटी आयु मे लग जाता हैं । और जब कभी पशु की रोगरोधी शक्ति अर्थात प्रतिरोधकात्मक क्षमता ( Imunity ) कम हो जाती हैं , तभी यह रोग पकड़ जाता हैं । यह रोगाणु चुँकि पशु के रक्त में अपना परिवार बढ़ाता हैं , इसलिए रोगी की रक्त कोशिकाओं को विषेश हानि पहुँचाता है । दूसरे - यह रक्त के रंग अर्थात हीमोग्लोबिन ( Hemoglobin ) को रक्त निकालता रहता हैं । इसी कारण पशुओं को लाल पेशाब आता हैं । इस रोग का मुख्यतम् और सुस्पष्ट लक्षण यही हैं । बाद मे जब धीरे- धीरे रोगग्रस्त पशु मे रक्त की कमी हो जाती हैं पीलिया के लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं और साथ ही प्राय: ऐसे पशु को पेचिश का रोग भी लग जाता हैं तथा ते बुखार भी हो जाता हैं ।

एेलोपैथिक चिकित्सा - ट्रापैन ब्लू और क्विन रोनियम यानि बेहीसान और एकैप्रिन इस रोग की रोगनाशक विशिष्ट औषधियाँ हैं, जोकि विशेष रूप से लाभप्रद सिद्ध होती हैं । ट्राइपैन ब्लू का इन्जैकशन लगाने के लिए पानी अथवा नमक के घोल में १-२% ट्राइपैन ब्लू दवा मिलाकर ( प्रत्येक बार ताजा दवा तैयार करके ) १ से ४ ग्राम तक की मात्रा में अन्त : शिरा इंजेक्शन लगाया जाता हैं एकैप्रिन अथवा बेबीसान का इन्जैकशन उपत्वचा में लगाया जाता हैं तथा पशु के प्रति १०० पौण्ड भार के लिए ०.५ घ० सेमी से १ घ० सेमी तक मात्रा ली जाती हैं । प्राय: इन दोनो मे से किसी एक दवा का एक इन्जैकशन ही रोगी पशु को स्वस्थ कर देता हैं कभी- कभी तीन से चार दिन के अन्तराल पर १-२ इन्जैकशन भी देने पड़ जाते हैं ।

२ - काक्सीडिया जनित रोग खूनीपेचिश
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काक्सीडियोसिस, काक्सिडिया रोगाणु प्राय: आँतों की बाहरी झिल्ली की कोशिकाओं मे अपनी वंश वृद्धि करते हैं और गोबर के बाहर निकलते रहते हैं । इन्हें सुक्ष्मदर्शी यन्त्र द्वारा ही देखा जा सकता हैं । गो - पशुओं मे इनकी इमेरिया जुरेनी और इमेरिया बोबिस जातियाँ मुख्य रूप से यह रोग उत्पन्न करती हैं । कुत्तों और बिल्लियों मे आइसो स्पोरा रिवोल्टा,आइसो स्पोराफेलिस तथा मेरिया ईकैनिस जातियाँ रोग उत्पन्न करती हैं और भेड़ - बकरियों मे रोग उत्पत्ति का का कारण इनकी इमेरिया फ़ौरी और इमेरिया आरलोइन्गी जातियाँ होती है ।मुर्ग़ियों मे इमेरिया टेनेला जाति ख़ूनी पेचिश पैदा करती हैं जोकि सबसे अधिक उग्र व भंयकर होती हैं । इस रोग के लक्षणों के अन्तर्गत - बछड़ों मे यह रोग उग्ररूप मे देखा जाता हैं वे पहले पतला गोबर करने लगते हैं , फिर उसमें आँव तथा ख़ून मिलकर आने लगता हैं , जोकि तेज बदबूदार होता हैं । उन्हे गोबर करते समय बड़ा कष्ट होता है वे चरना तथा दूध पीना छोड़ देते हैं और लगभग एक सप्ताह मे ही उनकी मृत्यु हो जाती हैं ।

एेलोपैथिक चिकित्सा - इस रोग मे सल्फोनाइड मिक्शचर , नाइट्रोफ्यूरैजोन और निकाबार्जाइन औषधियाँ विशेष रूप से सिद्ध होती हैं । अत: इन्हीं दवाओं का यथा समय तुरन्त प्रयोग करना चाहिए ।


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