Saturday 7 November 2015

(२९)-गौ-चि०-२-बुखार ।

(२९)-गौ-चि०-२-बुखार ।

१ - दुग्ध ज्वर, बुखार ( Milk Fever )
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पशुओं में दुग्ध ज्वर भी एक व्यापक रोग होता हैं । इस रोग को प्रसूत ज्वर या जापें का ज्वर के नाम से भी जाना जाता हैं । अंग्रेज़ी मे भी इस रोग को विभिन्न नामो से जाना जाता हैं। पास्चूरिएन्ट हाईपो कैल्सिमिया , पास्चूरिएन्ट पैरोसिस, पास्चूरिएन्ट एपो प्लेक्सी आदि नामों से जाना जाता हैं ।यह रोग अक्सर ५ से १० वर्ष की आयु के मादा पशुओं के ब्याने के ( प्रसवोपरान्त ) ४८ घन्टे के अन्दर- अन्दर उस समय हो जाता हैं जब पशु के ख़ून मे कैल्शियम की बहुत कमी होती हैं सामान्यतः गाय आदि पशु के रक्त में १० मिलीग्राम प्रति १०० घन सेंटीमीटर के हिसाब से कैल्शियम की उपस्थिति अनिवार्य होती हैं । किन्तु एक तो मादा पशु के ब्याते समय शरीर से काफी ख़ून निकलता हैं और दूसरे उस अवस्था में जो खीस पैदा होती हैं उसमे भी कैल्शियम की भरपूर मात्रा होती हैं । पशु का दूध दुहते समय वह मात्रा भी शरीर से बाहर आ जाती हैं । और अगर पशु के शरीर मे कैल्शियम की कमी पहले से ही होती हैं तो वह पशु अवश्य बिमार हो जाता हैं । और कभी- कभी इसके साथ परावटु दुष्क्रिया ( Parathyroid Disfunction) भी हो जाती हैं ।

आमतौर पर इस रोग के पशु के ब्याने के अर्थात प्रसवोंपरान्त १से तीन दिन के अन्दर-अन्दर रोग के लक्षण प्रकट हो जाते हैं ,रोगग्रस्त पशु की भूख मारी जाती हैं । वह बेचैन रहने लगता हैं । यदि उसके शरीर का तापमान नही बढ़ता। कभी-कभी रोगी पशु के माथें और गर्दन की माँसपेशियों में ऐंठन हो जाती हैं । इसके बाद उसकी पेशियों मे कमज़ोरी आ जाती हैं । जिसके कारण पशु को चलने- फिरने में कष्ट अनुभव करने लगता हैं । पशु लड़खड़ाता है और धीरे- धीरे पशु अत्यधिक सुस्त होकर अचेत सा गर्दन झुकाकर खड़ा रहता हैं। वह साँस वह साँसें गहरी- गहरी व धीरे- धीरे लेता हैं । और चारा- दाना भी नही निगल पाता हैं। पशु की जीभ बाहर लटक जाती हैं । रोगी पशु के रक्त में शर्करा की मात्रा ( हाईपर-ग्लीसिमिया ) अधिक हो जाती हैं । इस रोग की एक और बडी पहचान हैं । यदि पशु की गर्दन व सिर को पकड़कर सीधा कर दिया जाये तो वह हाथ से छोड़ते ही यथास्थान पर यानि वही पहुँच जाती हैं ।वह उसी स्थान पर झुकाकर खड़ा रहता हैं ।
आलोक :- इस रोग का समय रहते समय पर पूर्ण सावधानी के साथ इलाज करना चाहिए । लापरवाही करने पर पशु की मृत्यु भी हो सकती हैं ।

# - जहाँ - जहाँ पर पशुओं के शरीर मे कमी पायी जाती हैं । वहाँ के पशुओं को ४ औंस मैग्निशियम सल्फेट भी खिलाया जा सकता हैं ।

# - इसके अतिरिक्त जैसे पहले बताया गया है की ब्याने के बाद पशु के दूध मे प्रचूर मात्रा होती हैं यदि मादा पशु के ब्याने के बाद २-३ दिन तक दूध न निकालें तो कैल्शियम की मात्रा कम होने का भय नही रहता हैं यदि रोग होता है । तो बिमार होता भी है तो जल्दी ठीक होता हैं। ऐसा कुछ चिक्तिसकों का मानना हैं लेकिन मेरे विचार से यह ग़लत तरीक़ा हैं । हमें पशु की पहले से ही चिन्ता करके शरीर मे कैल्शियम की पूर्ति करके रखनी चाहिए या बाहर से कैल्शियम देवें । लेकिन दूध नही निकालेगें दूध सूखने की समस्या आती हैं और जब पशु के अयन मे दूध का दबाव होता और उसको न निकाले तो पशु बेचैन रहता हैं । दूसरा वह खीस तो अमृत होता है वह बछड़े व मानव के लिए उपहार है इस धरती पर । यह प्राकृतिक क्रिया है इसके करने मे ही पशु व जगत की भलाई हैं ।

# - पशुओं को पानी मे चूना डालकर पानी पिलाते रहने से भी पशुओं शरीर मे होने वाली कमी नही होती हैं ।

# - थनों मे हवा द्वारा पशु चिकित्सा की विधी -- इस रोग की कुछ चिकित्सक थनों मे हवा भरकर भी करते हैं , थनों मे हवा भरने का यन्त्र भी आता हैं। लेकिन दूरस्थ गावँ मे आप फ़ुटबॉल पम्प या साईकिल पम्प का भी प्रयोग कर सकते हैं । ध्यान ये रखना की साईकिल की बाल्वबोडी निकालकर साफ़ करलें और उसको किटाणु रहित कर लें ,तथा पम्प को भी साफ़ कर लें कही उसके अन्दर धूल मिट्टी तो नही हैं ,वाल्व थोड़ी लम्बी करलें तथा स्प्रिट या डिटोल या नीमतेल, कपूर तेल से किटाणु रहित करने के बाद प्रयोग करें ।

हवा भरने से पहले पशु को दूह कर उसके थनों से समस्त दूध निचोड़ लेना चाहिए । इसके बाद बाल्वबोडी को पम्प मे लगाकर टाईट चूड़ी चढ़ाकर प्रयोग करें रबड़ वाल्व का सिरा थन के छेद धीरे- धीरे अन्दर डालकर टाईट करके पकड़ लेना चाहिए जिसके कारण लिक न हो और ध्यान रहे हवा धीरे- धीरे भरना चाहिए । जिस व्यक्ति ने थन व वाल्व को पकड़ा हैं वह दूसरे हाथ से गाय के थन व अयन को धीरे- धीरे सहलाते रहना होगा जिससे हवा पूरी अन्दर तक चली जायें । हवा जज़्ब करने के लिए अयन की हल्की- हल्की मालिश करते रहें । जब थनों मे काफी हवा भर जायें तो वाल्व निकालते समय थन को टाईट बन्द रखे जिससे हवा बाहर न आयें और थनों पर पट्टी बाँध देनी चाहिए । ताकि हवा न निकलें । थनो मे व अयन पर तिल का तेल मे कपूर मिलाकर मालिश करना चाहिए । थोड़ा देर बाद पशु को करवट बदल वा देनी चाहिए । ऐसा करने ३-४ घन्टे बाद रोगी पशु स्वयं ही उठकर खड़ा हो जायेगा । तब दुबारा से उसके थनो मे हवा भर देनी चाहिए । परन्तु इस प्रयोग के उपरान्त कम से कम १२ घन्टे तक पशु के थनो से दूध नही निकालना चाहिए और नही पशु को खूँटे से बाँधकर रखना चाहिए । इस चिकित्सा विधी से पशुओं शीघ्र लाभ होते देखा गया हैं ।

१ - औषधि :- रोगी पशु की योनि को ३-४ बार गुनगुना जल से धोना चाहिए तथा सवा किलो पानी में १ तौला काब्रोलिक एसिड मिलाकर उसके थनों को धोना लाभदायक होता हैं ।

२ - औषधि :- सुहागा अथवा कपूर मिले तेल से रोगी पशु के थनों पर कई बार चुपड़ना चाहिए ताकि थनों पर सूजन न चढें ।

३ - औषधि :- उजड़ के दाने के बराबर रसकपूर कच्चे केले में रखकर रोगी पशु को खिलाना लाभकारी सिद्ध होता हैं ।

४ - औषधि :- ऐसा पशु जिसमे कैल्शियम कम है उसको सहजन के पत्ते या अतिबला के पत्ते खिलाने से भी कैल्शियम की पूर्ती होती हैं ।

२ - निमोनिया ( बुखार )
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यह रोग प्राय: पशुओ के बच्चों को ठण्ड लगने के कारण होता हैं । इसमे सर्वप्रथम रोगी पशु की नाक बहना , उसका चारा न खाना , मन्द ज्वर ( जो आगे चलकर बढ़ जाता है ) खाँसी का धस्का लगना आदि लक्षण प्रकट होते हैं । रोग बढ जाने पर कफ घड़घड़ाने लगता हैं और श्वासनली रूक जाती हैं तथा रोगी पशु की मृत्यु हो जाती है । बाल रोग पशु गाय या बकरियों मे पाया जाता है यह रोग एक भयानक संक्रामक रोग होता हैं । इस रोग को कहीं- कहीं ढाँस या धस्का आदि नामो से जाना जाता हैं ।

१ - औषधि - तारपीन का तैल व अलसी के तैल मे देशी कपूर मिलाकर रोगी पशु की मालिश करनी चाहिए ।

२ - औषधि - किसी बन्द कमरे व अन्य स्थान पर रोगी पशु के मुँह के पास गुगल व लौहवान की धूनी देनी चाहिए । इससे फेफड़ों मे जमा हुआ कफ मुलायम होकर निकल जायेगा और सूजन भी पटक जायेगी ।

३ - औषधि - तिल के तैल मे थोड़ा - सा तारपीन का तैल मिलाकर रोगग्रस्त पशु की छाती पर मालिश करने से सूजन कम होती हैं और कफ कम होने लगती हैं ।

४ - औषधि - पशु को खाँसी पीड़ित कर रही हो तो - कालीमिर्च , मुल्हैटी,अलसी , कलमीशोरा , कपूर तथा शीरा के योग का अवलेह बनाकर सेवन कराना चाहिए ।



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