Saturday 29 May 2021

रामबाण योग :- 102 -:

रामबाण योग :- 102 -:

बिही-

बिही , वानस्पतिक नाम : Cydonia oblonga Mill. (साइडोनिया ऑब्लौंगा)Syn-Cydonia vulgaris Pers. कुल : Rosaceae (रोजेसी) अंग्रेज़ी नाम : Quince (क्विन्स) संस्कृत-गुरुप्रिया; हिन्दी-बिही, बिहिदाना, गुरूप्रिया, बिपुलबीज; कहते है। यह भारत में पश्चिमी हिमालय में 1700 मी की ऊँचाई तक प्राप्त होता है, इसके अतिरिक्त काश्मीर, पंजाब, उत्तरी पश्चिमी भारत एवं नीलगिरी में इसकी खेती की जाती है। इसके फल के बीजों को बिहीदाना कहते हैं। बीजों को जल में भिगोने से फूल कर लुआबदार हो जाते हैं।
यह शाखा-प्रशाखायुक्त मध्यम आकार का छोटा वृक्ष होता है। इस वृक्ष के काण्ड की छाल गहरे भूरे वर्ण या काली रंग की तथा शाखाएं टेढ़ी-मेढ़ी होती हैं। इसके पत्र सरल, 5-10 सेमी लम्बे एवं 3.8-7.5 सेमी चौड़े, अण्डाकार, गहरे हरे, ऊपरी भाग पर चिकने, नीचे अधोभाग पर भूरे तथा रोमश होते हैं। इसके पुष्प पत्रकोण से निकले हुए लगभग 5 सेमी व्यास के, श्वेत अथवा गुलाबी रंग की आभा से युक्त होते हैं। इसके फल नाशपाती आकार के, लगभग गोलाकार, अनेक बीजयुक्त तथा पकने पर सुगन्धित सुनहरे पीले रंग के होते हैं। बीज लम्बगोल, चपटे तथा रक्ताभ-भूरे रंग के होते हैं। इसका पुष्पकाल एवं फलकाल फरवरी से जुलाई तक होता है।
बिही के बीज पिच्छिल, बलकारक, वृष्य, दाह तथा मूत्रकृच्छ्र शामक, मधुर, कषाय, शीत तथा गुरु होते हैं।
इसकी छाल ग्राही होती है।इसके बीज हृदय एवं शरीर के लिए बलकारक, अतिसार रोधी, प्रवहिकारोधी तथा वृष्य होते हैं। इसके फल बलकारक, ग्राही, व्रणरोपक, ज्वरहर, कफ निसारक, मस्तिष्क एवं यकृत् के लिए बलकारक, दीपन, तृष्णाहर तथा श्वासहर होते हैं। इसमें प्रवाहिकारोधी गुण पाया जाता है।

#- नेत्ररोग - बिही दाना को पीसकर नेत्र के बाहर चारों तरफ लगाने से नेत्रविकारों का शमन होता है।

#- कण्ठगतक्षत - बिही के बीजों फल का क्वाथ बनाकर गरारा करने से कण्ठगत क्षत आदि कण्ठ रोगों में लाभ होता है।

#- मुखपाक - बिही दाना को पानी में डालने से प्राप्त लुआब से गरारा करने पर मुखपाक में लाभ होता है।

#- शुष्क कास ( सूखी खाँसी )- बिही बीजों के लुआब में मिश्री शक्कर मिलाकर दिन में 4-6 बार थोड़ा-थोड़ा पिलाते रहने से स्वरयत्रशोथ तथा श्वासनलिका-शोथ, श्वास प्रवाहिका में लाभ होता है।

#- अतिसार - 5-10 ग्राम बिही फल का सेवन करने से अतिसार में लाभ होता है।

#- प्रवाहिका - 1-5 ग्राम बिही के बीजों को 50-100 मिलीग्राम जल में भिगोकर प्राप्त लुआब में शक्कर मिलाकर पिलाने से प्रवाहिका में लाभ होता है।

# - मूत्राशय शोथ - बिही के बीजों से निर्मित फाण्ट क्वाथ को 10-15 मिली मात्रा में सेवन करने से मूत्राशय शोथ मूत्रदाह में लाभ होता है।#- उपदंश ( सिफ़लिस ) - 9 ग्राम रसकर्पूर में 3-3 ग्राम बड़ी इलायची, बिही दाना तथा लौंग मिलाकर चूर्ण कर लगभग 200 ग्राम गाय का दूध मिलाकर ताम्रपात्र में पकाकर, 65 मिग्रा की वटी बनाकर सेवन करने से उपदंश, वात कफजन्य कास, श्वास तथा पार्श्वशूल का शमन होता है। इसके प्रयोग काल में भांग, आर्द्रक, मूंग, यूष, त्रिकटु तथा अन्य तीक्ष्ण पित्तकारक द्रव्यों का प्रयोग वर्जित है।

#- मूत्रदाह - बिही के बीजों का क्वाथ बनाकर 10-15 मिलीग्राम मात्रा में पिलाने से मूत्रदाह का शमन होता है।

#- प्रदर रोग - 1 या 2 ग्राम बिही बीज को रात्रि के समय जल में भिगोकर प्रात उसमें 5-10 ग्राम मिश्री मिलाकर पिलाने से प्रदर, मूत्रकृच्छ्र तथा मूत्राघात में लाभ होता है।

#- त्वक विकार, अग्निदग्ध आदि - बिही के बीजों से प्राप्त पिच्छिल पदार्थ को लगाने से अग्नि दग्ध, विस्फोट, तप्तद्रवदाह एवं शय्याव्रण में लाभ होता है।

#- क्षत - बिही के बीजों को पीसकर लेप करने से संधिशोथ क्षत तथा स्तनचूचुक व्रण में लाभ होता है।

#- अग्निदग्ध - आग से जले हुए स्थान पर बिही के बीजों से प्राप्त लुआब का लेप करने से शीघ्र लाभ होता है।

#- ज्वर रोग - 5-10 ग्राम बिही फल का प्रयोग ज्वर की चिकित्सा में रने से लाभ होता है।

#- सन्धिशोथ - बिही के बीजों को पीसकर लेप करने से सन्धिशोथ में लाभ होता है।


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